काँपी धरती
ह्रदय भी काँपा
मौत के ख़तरे को
हम सभी ने भाँपा
तन-मन जोर से डोला
फिर सच ने
वही अपना राज़ खोला
जिस घर के लिए
दुश्मन हुए भाई
नाते-रिश्तों की
खूब कीमत लगाई
या आजीवन खर्च किया
खून-पसीने की
गाढ़ी कमाई
कौन सा किया नहीं
तेरी - मेरी
उसी घर को
छोड़ने में तनिक भी
लगाई नहीं देरी
जान बचा भाग चले
खड़े हो गए
आसमान तले
ओह ! कैसा उभरा
दृश्य निराला
उस अपने घर में
एक पल किसी को
रहना हुआ न गवारा .
भूकंप को मैंने इतनी अच्छी तरह महसूस किया कि पोस्ट डालने से खुद को रोक नहीं पायी .
आपने तो अपनी कविता में ही भूकंप ला
ReplyDeleteदिया अमृता जी.आपकी अंतिम पंक्तियाँ
न पढता तो हैरान होता मैं कि सब कुछ
क्यूँ हिल रहा है.
वाह! बहुत बहुत आभार जी.
बहुत सशक्त अभिव्यक्ति..रचना के भावों ने अंतस को भूकंप से ज्यादा झकझोर दिया..
ReplyDeleteप्रलय में भी सच को ढूंढ़ निकाला | कमाल ..कमाल..कमाल..
ReplyDeleteसार्थक व सटीक लेखन ।
ReplyDeleteतेरी-मेरी करते हुए यदि धरती काँपने लगे तो तेरी-मेरी को भूल कर मानव जान बचाने भगता है. धरती के कांपने से पहले वह किसी के दिल को कितना कँपा रहा था उसे याद नहीं रहता.
ReplyDeleteह्र्दय की गहराई से निकली अनुभूति रूपी सशक्त रचना
ReplyDeleteभूकंप का सटीक वर्णन सच्चाई से कही गयी बात
ReplyDeleteबहुत खूब कहा आपने
ReplyDeleteभूकंप को भी हिला दिया आपने
कविता करती है सच्चाई को बयां
एस यादे छोड़ जाती है दिल पर कदमो के निशान ........
ek pal me kitna bada sach saamne aa jata hai...
ReplyDeleteजान है तो जहान है।
ReplyDeletebahut badi sachchai harday ki gahan anubhooti vaykt ki hai aapne.jindgi bhar kis liye liye laden jab ek kafan hi saath jaana hai.
ReplyDeleteभूकंप से उभरे दृश्य को आपने ख़ूबसूरती से उकेरा है.
ReplyDeleteमकान से ज़्यादा जान जरूरी है.
ह्र्दय की गहराई से निकली, सार्थक व सटीक रचना...
ReplyDeleteमानव चाहे जितनी वैज्ञानिक उन्नति कर ले परंतु उसे प्रकृति के सामने झुकना ही पड़ेगा। वस्तुतः प्रकृति के नियमानुसार आचरण करना ही धर्म है किन्तु पोंगा-पंडितों ने अधर्म और अज्ञान को धर्म के जामे मे परोस रखा है जिस कारण झगड़े-टंटे खड़े होते हैं। ऐसी घटनाएँ याद दिलाती हैं कि अब भी अधर्म को छोड़ कर वास्तविक धर्म को अपना लिया जाये ।
ReplyDeleteसार्थक रचना....
ReplyDeleteज़बरदस्त लिखा है।
ReplyDeleteसादर
दृश्य निराला
ReplyDeleteउस अपने घर में
एक पल किसी को
रहना हुआ न गवारा .
यह प्राकृतिक आपदा वास्तव में हिला कर रख देती है. मन की भावनाओं को खूबसूरती से रखा है. बधाई.
कुदरत ही दिखाती है आईना !बहुत बढ़िया प्रतीकात्मक प्रस्तुति .
ReplyDeleteसोमवार, १९ सितम्बर २०११
मौलाना साहब की टोपी मोदी के सिर .
बहुत बढ़िया.
ReplyDeleteवाह! जान है तो जहान है।
ReplyDeletedil se nikli hai yeh udgar .............bahut hi sarthak rachna
ReplyDeleteमार्मिक अभिव्यक्ति!!
ReplyDeleteसशक्त अभिव्यक्ति...बहुत सुंदर
ReplyDeleteकभी अपने भी पराये हो जाते है, अपना घर भी काटने को दौड़ता है
ReplyDeleteसार्थक व सटीक लेखन| धन्यवाद|
ReplyDeleteसार्थक व सटीक रचना...
ReplyDeleteआपके ब्लॉग की चर्चा ब्लॉग4वार्ता पर
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मैं भी एक पल डर गया था जब मुझे खबर मिली...सही बात है भूकंप में अगर अपने खून पसीने से बनाय घर को गिरते देखने से ज्यादा दुखद और क्या हो सकता है..
ReplyDeleteआपबीती ही इतनी सटीकता दर्शा सकती है...........कुछ दिनों पहले यहाँ दिल्ली में भी रात हमने महसूस किया भूकंप.........ईश्वर इन सब आपदाओ से बचाए सबको.......आमीन
ReplyDeleteभूकम्प का हल्का असर ऊपरी असम में भी हमने महसूस किया, घर से निकल आए थे पर जिस शिद्दत से आपने इस अनुभव को लिखा है काबिले तारीफ है... आभार!
ReplyDeleteप्राकतिक आपदा जब आती है इंसान सब कुछ भूल जाता है .. जान की परवा करता है ... पर अच्छे समय में उसको याद नहीं करता ...
ReplyDeleteसार्थक लेखन आपका ..
भोगा यथार्थ हम भूल जाते है . सब माया है .
ReplyDeleteबड़ी सामयिक और सटीक पोस्ट ,वाह.
ReplyDeleteसशक्त अभिव्यक्ति.....
ReplyDeleteओह ! कैसा उभरा
ReplyDeleteदृश्य निराला
उस अपने घर में
एक पल किसी को
रहना हुआ न गवारा ...
अमृता जी हमने आपकी हरेक रचना में भूकंप से झटकों को महसूस किया है.. यह झटका भी बहुत जबर्दस्त रहा.. आभार..
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...वाह!
ReplyDeleteन घर तेरा न घर मेरा ,चिड़िया रैन बसेरा !
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर।
ReplyDeleteसामयिक विषय पर गंभीर चिंतन
हाँ ज़िन्दगी भर प्यारी रही चीज़ें जान के वक़्त मामूली हो जाती हैं..
ReplyDelete*पोस्ट के नाम को सही करके "गंवारा" कर दें..
आभार
तेरे-मेरे बीच पर आपके विचारों का इंतज़ार है...
काँपी धरती
ReplyDeleteह्रदय भी काँपा
मौत के ख़तरे को
हम सभी ने भाँपा
very true....
यथार्थ का मार्मिक चित्रण ....
ReplyDeleteवास्तव में बड़ी हृदयविदारक घटना घटित हुई |
सबसे पहले जीवन... यथार्थ यही है...
ReplyDeleteसार्थक रचना...
सादर...
जान है तो जहान है...
ReplyDeleteजान है तो जहान है:)...भूकंप के एक मानवीय पहलू को खूब उभारा आपकी इस कविता ने ....साधुवाद !
ReplyDeleteअद्भुत रचना भूकंप का लाइव टेलीकास्ट कहूँगा
ReplyDeleteजिस घर के लिए लोगों ने कितने प्रपंच किये
उसे ही छोड़ भागे अपनी जान बचाने के लिए
लोग अब भी उस बात में यकीं करते हैं
जान है तो जहान है....
लेकिन जान बच गयी
तो लौट के बुद्धू को घर में आना ही था
फिर वाही जोड़-तोड़ और छल-प्रपंच वाली जिंदगी का बोझ
अपने कंधों पर उठाने के लिए...................