वाक् मेरे वाग्बद्ध हो
क्यूँ सुर में झंकृत होने लगा है
वेदना अब वंदना बन
क्यूँ अश्रु सा बहने लगा है
व्यथा भी वितृण वाट्य बन
क्यूँ पुष्प सा खिलने लगा है...
बोलो हे ! विधि के विधायक
सघन वीथिका में दृग हमारे
क्यूँ कर दिए वृहद् इतना
उभरती हैं जो वृत्तियाँ आज ये सहसा
उन्हें कुछ भिन्न सा दिखने लगा है ....
बोलो हे ! सर्व सत्व के सर्जक
गहन संवेदना में संस्पर्श हमारे
क्यूँ कर दिए सूक्ष्म इतना
उमड़ती है जो अनुभूतियाँ आज ये सहसा
उन्हें कुछ भिन्न सा छूने लगा है....
बोलो हे ! प्रणय के प्रदीपक
प्रेम की कैसी ये धारा
बह रही है मुझमें अब
निज है जो मेरा आज ये सहसा
क्यूँ निज में ही खोने लगा है।
वाग्बद्ध -- मौन , वितृण --- तृष्णा रहित , विधायक -- नियम बनाने वाला ,
सत्व -- अस्तित्व , प्रणय -- प्रेम
प्रदीपक -- प्रकाश फैलानेवाला
विचारों का प्रवाह बना रहे, उसी से जीवन को साँस मिलती है।
ReplyDeleteबोलो हे ! सर्व सत्व के सर्जक
ReplyDeleteगहन संवेदना में संस्पर्श हमारे
क्यूँ कर दिए सूक्ष्म इतना
उमड़ती है जो अनुभूतियाँ आज ये सहसा
उन्हें कुछ भिन्न सा छूने लगा है....
गहन अनुभूति है जो भीगे प्रश्न पूछती है. बहुत सुंदर.
अमृता जी अद्भुत रचना है ....बहुत सुंदर भाव ...मन तक पहुँच कर स्थापित हो गए हैं...!!
ReplyDeleteबधाई एवं शुभकामनायें..
प्रेम की कैसी ये धारा
ReplyDeleteबह रही है मुझमें अब
निज है जो मेरा आज ये सहसा
क्यूँ निज में ही खोने लगा है.
ab isse behtar kya kahna honga !!!
atiuttam bhaav vibhor kar gai yah kavita.
ReplyDeleteसुन्दर भावों को संजोये हुए अच्छी रचना
ReplyDeleteगहन अनुभूति और समर्पण की चेतना लिए एक उदात्त अभिव्यक्ति ...
ReplyDeleteहर शब्द में गहन भावों का समावेश ...बेहतरीन ।
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteवाक् मेरे वाग्बद्ध हो
क्यूँ सुर में झंकृत होने लगा है
वेदना अब वंदना बन
क्यूँ अश्रु सा बहने लगा है।
क्या कहने
बहुत सुंदर भाव और प्रेम से ओतप्रोत रचना !
ReplyDeleteगहन संवेदना में संस्पर्श हमारे
ReplyDeleteक्यूँ कर दिए सूक्षम इतना
उमड़ती है जो अनुभूतियाँ आज ये सहसा
उन्हें कुछ भिन्न सा छूने लगा है....
ankahe gahre bhawon ki sukshmta
बहुत ही उम्दा प्रस्तुति ।
ReplyDeleteगहन अनुभूति...
ReplyDeleteगहन अभिव्यक्ति ......
ReplyDeleteहर शब्द में सुंदर भावों का समावेश.. बेहतरीन रचना.. ।
ReplyDeleteवाग्देवी जैसे बैठी हो पंक्तियों में . क्या कहा ? कुछ ज्यादा हो गया ? एकदम नहीं .
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना रची है आपने अपनी लेखनी से!
ReplyDeleteवाह,बहुत सुंदर,आभार.
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना........शब्दों का अदभुत समावेश किया है
ReplyDeleteप्रेम की कैसी ये धारा
ReplyDeleteबह रही है मुझमें अब
निज है जो मेरा आज ये सहसा
क्यूँ निज में ही खोने लगा है.....हर शब्द में सुंदर भावों का समावेश.. बहुत सुन्दर...
कमाल के शब्द एवं भाव संयोजन....
ReplyDeleteअद्भुत चिंतन...
सादर बधाई...
बीबी की डांट या कचहरी
ReplyDeleteभले डांट घर में तू बीबी की खाना
भले जैसे -तैसे गिरस्ती चलाना
भले जा के जंगल में धूनी रमाना
मगर मेरे बेटे कचहरी न जाना
कचहरी न जाना- कचहरी न जाना
कचहरी हमारी तुम्हारी नहीं है
कहीं से कोई रिश्तेदारी नहीं है
अहलमद से भी कोरी यारी नहीं है
तिवारी था पहले तिवारी नहीं है
कचहरी की महिमा निराली है बेटे
कचहरी वकीलों की थाली है बेटे
पुलिस के लिए छोटी साली है बेटे
यहाँ पैरवी अब दलाली है बेटे
कचहरी ही गुंडों की खेती है बेटे
यही जिन्दगी उनको देती है बेटे
खुले आम कातिल यहाँ घूमते हैं
सिपाही दरोगा चरण चुमतें है
कचहरी में सच की बड़ी दुर्दशा है
भला आदमी किस तरह से फंसा है
यहाँ झूठ की ही कमाई है बेटे
यहाँ झूठ का रेट हाई है बेटे
कचहरी का मारा कचहरी में भागे
कचहरी में सोये कचहरी में जागे
मर जी रहा है गवाही में ऐसे
है तांबे का हंडा सुराही में जैसे
लगाते-बुझाते सिखाते मिलेंगे
हथेली पे सरसों उगाते मिलेंगे
कचहरी तो बेवा का तन देखती है
कहाँ से खुलेगा बटन देखती है
कचहरी शरीफों की खातिर नहीं है
उसी की कसम लो जो हाज़िर नहीं है
है बासी मुहं घर से बुलाती कचहरी
बुलाकर के दिन भर रुलाती कचहरी
मुकदमें की फाइल दबाती कचहरी
हमेशा नया गुल खिलाती कचहरी
कचहरी का पानी जहर से भरा है
कचहरी के नल पर मुवक्किल मरा है
मुकदमा बहुत पैसा खाता है बेटे
मेरे जैसा कैसे निभाता है बेटे
दलालों नें घेरा सुझाया-बुझाया
वकीलों नें हाकिम से सटकर दिखाया
धनुष हो गया हूँ मैं टूटा नहीं हूँ
मैं मुट्ठी हूँ केवल अंगूंठा नहीं हूँ
नहीं कर सका मैं मुकदमें का सौदा
जहाँ था करौदा वहीं है करौदा
कचहरी का पानी कचहरी का दाना
तुम्हे लग न जाये तू बचना बचाना
भले और कोई मुसीबत बुलाना
कचहरी की नौबत कभी घर न लाना
कभी भूल कर भी न आँखें उठाना
न आँखें उठाना न गर्दन फसाना
जहाँ पांडवों को नरक है कचहरी
वहीं कौरवों को सुरग है कचहरी
कठिन शब्द, पाठक के ह्रदय में घुमड़ रहे भावों को भटका दे रहे हैं...ऐसा लगा।
ReplyDeleteवेदना अब वंदना बन
ReplyDeleteक्यूँ अश्रु सा बहने लगा है
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति। बधाई अमृता जी॥
बहुत सुन्दर रचना ..खासकर अनुप्रास अलंकार का प्रयोग और भाव तो हमेशा की तरह लाजवाब हैं ही
ReplyDeleteअम्रता जी अनुपम शब्दों के साथ सुन्दर प्रस्तुति . बधाई हो . मेरे ब्लॉग पर आने के लिए शुक्रिया . अब आपका ब्लॉग फोल्लो कर लिया है , आसानी से आपकी कविता हम तक पहुच जाएगी :) शुभ -दिन
ReplyDeletesapne-shashi.blogspot.com
अमृता जी ..
ReplyDeleteबहुत सुन्दर शब्द दिए हैं आपने अपनी अनुभूतियों को... यही अनुभूति तो इंगित करती है मिलन को..जो स्वयं से स्वयं का होता है.. आत्मा से परमात्मा का होता है.... बधाई आपको इन अनुभूतियों के लिए ...
सुन्दर अमृतमय प्रस्तुति.
ReplyDeleteआपका एक एक शब्द पवित्रता
का अहसास कराता है.
आपका आभार.
नई पुरानी हलचल का आभार.
बोलो हे ! प्रणय के प्रदीपक
ReplyDeleteप्रेम की कैसी ये धारा
बह रही है मुझमें अब
निज है जो मेरा आज ये सहसा
क्यूँ निज में ही खोने लगा है.
प्रस्तुति का जादू ,मुग्धा भाव सिर चढ़के बोल रहा है .
बहुत भावपूर्ण एवं मार्मिक प्रस्तुति ! बहुत सुन्दर
ReplyDeleteगहन अनुभूति
ReplyDeleteसुन्दर पोस्ट............कठिन शब्दों का अर्थ देने का शुक्रिया.........आज कुछ ऐसा लगा जैसे जय शंकर प्रसाद जी की कोई रचना पढ़ी हो ...........'आँसू' जैसी |
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति !!!
ReplyDeleteबोलो हे ! विधि के विधायक
ReplyDeleteसघन वीथिका में दृग हमारे
क्यूँ कर दिए वृहद् इतना
उभरती हैं जो वृतियाँ आज ये सहसा
उन्हें कुछ भिन्न सा दिखने लगा है
गहन अर्थों को सुंदर शब्दों में प्रगट करती अनुपम कविता।
शब्दों का बेहतरीन प्रयोग...अच्छी रचना...
ReplyDeleteसार्थक शब्दों से बिंबितसूक्षम भाव प्रवाह .
ReplyDeleteप्रसंसा से इस कविता की मान को ठेस पहुचाना नहीं चाहता हूँ .इसे तो बस महसूस ही किया जा सकता है.एक दिन आप का अपना एक विशिस्ट हिंदी काब्य में स्थान हगा. अपनी बिशिस्ट सैली के लिए जानी जाएँगी.
आपकी लिखी रचना सोमवार 19 सितम्बर ,2022 को
ReplyDeleteपांच लिंकों का आनंद पर... साझा की गई है
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
संगीता स्वरूप
वागबद्ध!!!
ReplyDeleteआपका सृजन सदैव मन्त्रमुग्ध करता है । गहन भावाभिव्यक्ति ।
ReplyDeleteबोलो हे ! विधि के विधायक
ReplyDeleteसघन वीथिका में दृग हमारे
क्यूँ कर दिए वृहद् इतना
उभरती हैं जो वृत्तियाँ आज ये सहसा
उन्हें कुछ भिन्न सा दिखने लगा है ....
गहन अर्थ लिए बहुत ही लाजवाब
अप्रतिम सृजन ।
कुछ अनुभूतियों का स्पर्श आत्मा का दिव्य गान बन जाता है,
ReplyDeleteमनुष्य मन विकलता से उद्वेलित हो मौन होकर भी मुखर हो जाता है।
अत्यंत सूक्ष्म भावों को व्यक्त करती अद्भुत अभिव्यक्ति।
सस्नेह।
वेदना अब वंदना बन
ReplyDeleteक्यूँ अश्रु सा बहने लगा है//
गहन संवेदनाओं में मन की पीड़ा आत्मा की अतल गहराइयों से सच में प्रार्थना ही बनकर फूट पड़ती है।एक अत्यंत मार्मिक अभिव्यक्ति प्रिय अमृता जी।ढेरों शुभकामनाएं 🙏
बोलो हे ! विधि के विधायक
ReplyDeleteसघन वीथिका में दृग हमारे
क्यूँ कर दिए वृहद् इतना
उभरती हैं जो वृत्तियाँ आज ये सहसा
उन्हें कुछ भिन्न सा दिखने लगा है ....
..ये कुछ भिन्न सा अद्भुत अवलोकन आपकी रचनाओं में दिख जाता है इस उत्कृष्ट रचना के लिए अनंत बधाई स्वीकारें।