Wednesday, September 30, 2020
हाँ ! ये रक्तबीजों का आसन है संजय......
Tuesday, September 22, 2020
शब्द - प्रसुताओं के हो रहे हैं पाँव भारी ........
एक तो विकट महामारी
ऊपर से जीवाणुओं , विषाणुओं और कीटाणुओं के
प्रजनन -गति से भी अधिक तीव्रता से
शब्द -प्रसुताओं के हो रहे हैं पाँव भारी
प्रसवोपरांत जो शब्द जितना ज्यादा
आतंक और हिंसा फैलाते हैं
वही युग -प्रवर्तक है , वही है क्रांतिकारी
शब्दों के संक्रमण का
देश -काल से परे ऐसा विस्फोटक प्रसार
जितना मारक है , उतना ही है हाहाकारी
कुकुरमुत्ता हो या नई -पुरानी समस्याएँ
यूँ ही उगते रहना है लाचारी
ऐसे में शब्द -प्रसुताओं के द्वारा
उनके जड़ों पर तीखे , जहरीले , विषैले
शब्द -प्रक्षालकों का सतत छिड़काव
बड़ा पावन है , पुनीत है , है स्वच्छकारी
अति तिक्तातिक्त बोल -वचनों से
जो सर्वाधिक संक्रमण फैलाते हैं
वही रहते हैं आज सबसे अगाड़ी
आह -आह और वाह -वाह कहने वाले
खूब चाँदी काट -काट कर
लगे रहते हैं उनके पिछाड़ी
बाकी सब उनके रैयत आसामी होते हैं
जिनपर चलता है दनादन फौजदारी
मतलब , मुद्दा , मंशा व गरज के खेल में
तर्क , कुतर्क , अतर्क , वितर्क के मेल में
चिरायता नीम कर रहें हैं मगज़मारी
रत्ति भर भी भाव के अभाव में
गाल फुला कर मुँह छिपा रही है
करैला के पीछे मिर्ची बेचारी
जहाँ आकाशीय स्तर पर
चल रहे इतने सारे सुधार अभियानों से
पूर्ण पोषित हो रही है हमारी भुखमरी , बेकारी
वहाँ आरोपों -प्रत्यारोपों के
शब्दाघातों को सह -सह कर और भी
बलवती हो रही है मँहगाई , बेरोजगारी
पर ऐसा लगता है कि
शब्द -प्रसुताओं के वाद -विवाद में ही
सबका सारा हल है , सारा समाधान है
आखिर इन शब्दजीवियों का भी हम सबके प्रति
कुछ तो दायित्व है , कुछ तो है जिम्मेवारी
इसतरह उपेक्षित और तिरस्कृत होकर
चारों तरफ चल रहे तरह -तरह के
नाटक और नौटंकी को देख - देख कर
माथा पीट रही है महामारी
उसके इस विकराल रूप में रहते हुए भी
न ही किसी को चिन्ता है न ही परवाह है
वह सोच रही है कि आखिर क्यों लेकर आई बीमारी
लग रहा है वह बहुत दुखी होकर
भारी मन से बोरिया -बिस्तर समेट कर
वापस जाने का कर रही है तैयारी .
Tuesday, September 15, 2020
कल भाग गई थी कविता .......
कल भाग गई थी कविता लिपि समेत
पन्नों के पिंजड़े को तोड़कर
लेखनी की आँखों में धूल झोंककर
सारे शब्दों और भावों के साथ
शुभकामनाओं और बधाइयों के
अत्याधुनिक तोपों से
अंधाधुंध बरसते
भाषाई प्रेम- गोलों से
खुद को बचाते हुए
अपने ही झंडाबरदारों से
छुपते हुए , छुपाते हुए
कानफोड़ू जयकारों से
न चाहकर भी भरमाते हुए
सच में ! कल भाग गई थी कविता
आज लौटी है
विद्रुप सन्नाटों के बीच
न जाने क्या खोज रही है .