कल भाग गई थी कविता लिपि समेत
पन्नों के पिंजड़े को तोड़कर
लेखनी की आँखों में धूल झोंककर
सारे शब्दों और भावों के साथ
शुभकामनाओं और बधाइयों के
अत्याधुनिक तोपों से
अंधाधुंध बरसते
भाषाई प्रेम- गोलों से
खुद को बचाते हुए
अपने ही झंडाबरदारों से
छुपते हुए , छुपाते हुए
कानफोड़ू जयकारों से
न चाहकर भी भरमाते हुए
सच में ! कल भाग गई थी कविता
आज लौटी है
विद्रुप सन्नाटों के बीच
न जाने क्या खोज रही है .
चलिये इसी बहाने सही आप निकल के आयीं और आपकी कविता भी एक लम्बे अन्तराल पर। शुभकामनाएं फ़िर भी हिन्दी दिवस की।
ReplyDeleteहिन्दी दिवस पर कविता का भागना ...
ReplyDeleteआप कभी कभी आएँगी तो ऐसा ही होगा ... निरंतर रहिये .. हिन्दी दिवस की बधाई ...
हिंदी दिवस पर ही सही पर कविता लौटी है. सन्नाटा तो आपने छोड़ा हुआ था. खैर ! कलम की आँखों से धूल धो दीजिए अब.
ReplyDeleteकविता खोज रही है पांव टिकाने की तिल भर जगह,थोड़ी सी जगह मिल भर जाये वह फिर से अपना आशीष बरसाएगी
ReplyDeleteआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 17.9.2020 को चर्चा मंच पर दिया जाएगा। आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी|
ReplyDeleteधन्यवाद
दिलबागसिंह विर्क
जी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना शुक्रवार १८ सितंबर २०२० के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
वर्षों बाद भी आपके लेखनी की रफ़्तार सटीक है
ReplyDeleteसाधुवाद
शुभकामनाओं और बधाइयों के
ReplyDeleteअत्याधुनिक तोपों से
अंधाधुंध बरसते
भाषाई प्रेम- गोलों से - वर्तमान की सच्चाई ...
आज लौटी है
ReplyDeleteविद्रुप सन्नाटों के बीच
न जाने क्या खोज रही है - - नमन सह।
बहुत ही सुंदर सृजन।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर ..बहुत दिनों के बाद लौटी है कविता आपके
ReplyDeleteसृजन के रूप में ।
क्या करे बेचारी ..भागना है लाचारी
ReplyDeleteसंवेदनहीन समाज में रुके भी कहाँ...
बहुत ही सुन्दर... लाजवाब।
बहुत सुन्दर... शीर्षक बड़ा ही आकर्षक बन पड़ा है...
ReplyDeletekhoj toh liye kavita ne शब्द - प्रसुताओं के हो रहे हैं पाँव भारी se lekar शब्दों के घास , फूस की खटमिट्ठी खेती हूँ ..... takk ke anek vishay upvishay aur unmein jeewan ke aashay sanshay aadi aadi
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