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Sunday, July 18, 2021

मोह लगा है ........

जबसे सोने के पिंजरे से मोह लगा है

अपना ही ये घर खंखड़ खोह लगा है

सपना टूटे , अब अपना ही सच दिखे

दिन- रात एक यही ऊहापोह लगा है


इस घर में अब उदासी-सी छाई रहती है

मेरे सुख-चैन को ही दूर भगाई रहती है

मन तो बस , बंद हो गया उसी पिंजरे में

उसे पाने की इच्छा , फनफनाई रहती है


स्तब्ध हूँ कि कैसे मैं अबतक हूँ यहाँ

जो दिखता था जीवन , यहाँ है कहाँ

छल करता हर एक सुख है , पर अब

आँखों को दिखता साक्षात स्वर्ग वहाँ


अब वही , सोने का स्वर्ग मुझे चाहिए

मदाया हुआ , उन्मत्त गर्व मुझे चाहिए

दुख में ही तो बीता हीरा जनम , अब

क्षण-क्षण छंदित मेरा पर्व मुझे चाहिए


अपना होना भी मिटाना पड़े मिटा दूंगी

सबकुछ लुटाना पड़े तो , सब लुटा दूंगी

हँसते-हँसते उस सोने के पिंजरे के लिए

पर कटाना पड़े तो , खुशी से कटा लूंगी


अभी तो उस झलकी का संयोग लगा है

जीर्ण- जगत गरल सम प्रतियोग लगा है

असमंजस में प्राण है बीते न बिताए पल

जबसे उस सोने के पिंजरे से मोह लगा है .

Thursday, December 31, 2020

सुना है कि ---

                                 ॐ शांति: शांति: शांति: ॐ


                 सुना है जो हम हैं वही हमें चारों तरफ दिखाई पड़ता है । हमें जो बाहर दिखता है ,  वह हमारा ही प्रक्षेपण होता है ।  स्वभावत: हमारी चेतना जो जानती है उसी का रूप ले लेती है । इसलिए हम सुंदर को देखते हैं तो सुंदर हो जाते हैं , असुंदर को देखते हैं तो असुंदर हो जाते हैं । हमारे सारे भाव भी अज्ञात से आते हैं और हमें ही यह निर्णय करना होता है कि हम किस भाव को चुनें ।  ये भी सुना है कि संतुलन प्रकृति का शाश्वत नियम है । जैसे दिन-रात , सुख-दुख , अच्छाई-बुराई , शुभ-अशुभ , सुंदर-असुंदर आदि । बिल्कुल पानी से आधे भरे हुए गिलास की तरह । गिलास को हम कैसे देखते हैं वो हमारी दृष्टि पर निर्भर करता है ।  

                           ये भी सुना है कि इन दृश्य और अदृश्य के बीच भी बहुत कुछ है जो तर्कातीत है । काव्य उन्हीं को देखने और दिखाने की कला है । तब तो साधारण से कुछ शब्द आपस में जुड़ कर असाधारण हो जाते हैं और इनका उद्गार हमें रससिक्त करता है । साथ ही हमारा अस्तित्व आह्लादित होकर और प्रगाढ़ होता है ।  हम किन भावों को साध रहे हैं इतनी दृष्टि तो हमारे पास है ही । आइए ! उन्हीं भावों का हम खुलकर आदान-प्रदान करें हार्दिक शुभकामनाओं के साथ ।

न जाने कितनी भावनाऐं , भीतर-भीतर ही

उमड़-घुमड़ कर , बरस जाती हैं

जब तक हम समझते , तब तक

शब्दों के छतरियों के बिना ही

हमें भींगते हुए छोड़कर , बह जाती है

आओ ! मिलकर हम

छतरियों की , अदला-बदली करें

भाव बह रहें हैं , थोड़ा जल्दी करें

एक-दूसरे के हृदय को , खटखटाएं

कुछ हम सुने , कुछ कहलवाएं

बांधे हर बिखरे मन को

उन के हर एक सूनेपन को

आओ ! सब मिलकर , साथ-साथ शब्द साधें 

गुमसुम , गुपचुप यह जीवन कटे

छाई हुई उदासियों का , आवरण हटे

शब्द-शब्द से मुस्कानों को , गतिमय बनाएं

आओ ! हर एक भाव में , पूरी तरह तन्मय हो जाएं .

Friday, December 4, 2020

भला मुझसे कोई आकर यह न पूछे कि ---

भला फूलों से कोई जाकर यह पूछता है कि ---

तुम कैसे खिले हो , क्यों खिले हो , किसके लिए खिले हो 

किस रूप से खिले हो , किस ढंग से खिले हो

किसी विवशता में खिले हो या मलंग से खिले हो

किसी के तदनुरूप खिले हो या अपने अनुरूप खिले हो

ये खिलना तुम्हारा स्वभाव है या किसी का प्रभाव है

क्षणजीवी हो या दीर्घजीवी  ,  उपयोगी हो या अनुपयोगी

तुम्हारा अपना कितना जमीन है , कितना आसमान है

तुम्हारे खिलने का अनुमानित कितना मान- सम्मान है


भला फूलों से कोई जाकर यह पूछता है कि ---

क्यों तुमसे उठी हुई तुम्हारी सुगंध , सुवास , मिठास

हवाओं में तैर कर मीलों दूर तक फैल- फैल जाती है 

क्यों तेरे पराग- परिमल की कणी- कणी छिटक- छिटक कर

सबके नासपुटों को जाने- अनजाने में भी फड़काती है 

क्यों तेरे मदिर मादकता से स्वयं पर किसी का वश न रहता है 

भँवरा- सा मचल- मचल कर वह तुम तक आ- आ बहता है 

क्यों मधुछत्तों से मधुमक्खियां भागी- भागी तुम तक आती है 

क्यों तितलियां तुम पर ही नाचती,  डोलती,  गाती , मंडराती है 


फूलों- सी ही मेरी कविताएं  मुझसे झर- झर झरती हैं

कभी शब्द से तो कभी शून्य से सब कुछ कहती है

किसी से कोई दुराग्रह नहीं है कोई आग्रह नहीं है

विक्षुब्ध , विक्षिप्त सा कोई विकट विग्रह नहीं है

भीतर- भीतर जो बात उमंग में उमड़ती- घुमड़ती रहती है

निर्झरिणी- सी कविता बन अल्हड़ अठखेलियां करती है

कविता बहाने वाली बह- बह कर चुपके से कहीं हट जाती है

मैं भी देखती हूँ कि कविता कुछ- कुछ उपनिषद- सी ही घट जाती है


भला मुझसे कोई आकर यह न पूछे कि ---


Saturday, November 14, 2020

अपने करूण दीपों को फिर से जलायें ......

    आनंद का सहज स्फूर्त पुलक उठ कर

    व्याप्त हो गया है लोक-लोकांत में

    विराट अस्तित्व आज फिर से

    श्रृंगारित हुआ सृष्टि के दिग-दिगांत में

    

    निज अनुभूतियाँ फिर से प्राण पाकर

    प्रकाशधार में बलक कर बह रही है

    चौंधियायी आँखों से अंधकार की

    कृतज्ञता झुक कर कुछ कह रही है

    

    हर कान में फुसफुसा रहा है हर हृदय

    सुन प्रणय की इस मधुर मनुहार को

    अपने-अपने संचित उत्साह से सफल करें

    कल के विफलता की हर एक पुकार को

    

    आओ इस दीपोत्सव में सब मिलकर

    अपने करूण दीपों को फिर से जलायें

    जग की विषमता को आत्मसात करके

    हर कसकते घावों को सदयता से सहलायें . 


   *** दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएँ ***

    

Saturday, May 30, 2020

मुझे निमित्त बना कर........

उन सारे सामान्य शब्दों से
एक असामान्य -सी , कविता कहना है 
उन्हीं साधारण -से शब्दों के जोड़ से
असाधारण से भी कुछ ज्यादा गहना है......

जैसे प्रेम से छुआ कोई स्पर्श
स्वयं ही आतुरता को कह जाए
जैसे श्वास के सहारे
कोई हृदय तक उतर आए.......

जैसे बंद आँखों से ही
वो अनदेखा दिख जाता है
जैसे मौनावलंबन भी
कुछ अनकहा कह जाता है.......

जैसे गहन अंधकार के बीच
एक बिजली कौंध जाती है 
जैसे बादलों को परे हटाकर
चाँदनी बाँहे फैला कर मुस्काती है ......

जैसे वीणा के तार पर मीठा छुअन
ध्वनियों के पार हो जाता है
जैसे नृत्य में नर्तक एकमेक हो
तन्मय हो जाता है.....

जैसे चित्रफलक पर
रंगों और कूचियों का मिलना
जैसे अनगढ़ पत्थरों को पूजने के लिए
प्राण भर- भरकर गढ़ना ......

जैसे कोई अद्भुत रहस्य
अनायास ही उद्घाटित हो जाता है
जैसे खुली मुट्ठी में भी
अनंत ऐश्वर्य भर आता है.....

जैसे व्यक्त होकर भी 
वो अव्यक्त रह जाता है
जैसे मुझे निमित्त बना कर
स्वयं कविता कह जाता है .....

निस्संदेह मेरे कहने में
कहने से भी कुछ ज्यादा है
पर जो कहा न जा सका
वो और भी बहुत ज्यादा है .





Saturday, December 29, 2018

संतों ! संत हुई मैं .......

रोआँ - रोआँ हुआ कवि
साँस - साँस कविता
अब तुझको कैसे मैं कहूँ ?
आखिर , अकिंचन आखर की
है अपनी भी , कुछ विवशता !

ये विवशता भी बड़ी निराली है
जिसको जी कर , जीती ये शिवाली है
चाहो तो , मौन से आखर महकाओ
या आखर को मूक बनाओ
ये समरसता तुझपर बलिहारी है !

बना कर अपनी पोगड़िया
ले लिया सब लकुटी - कमरिया
धड़कन के मँजीरा पर अब
नचाओ , मुझे खूब नचाओ
पहना अपनी धानी लहरिया !

चतुर हुई , निश्चिंत हुई मैं
ना डोलूँ अब , संत हुई मैं
संतो ! समझ सको तो समझ लो
मेरे अकिंचन आखर की विवशता
कह कर , ना कह कर भी अनंत हुई मैं !

संतों ! संत हुई मैं .

Sunday, April 29, 2018

स्वार्थ ........

मेरे लिए मेरी हर रात महाभिनिष्क्रमण है
और मेरा हर दिन महापरिनिर्वाण है
स्वअर्थ में अपना दीप मैं स्वयं हूँ
बस इतना ही ध्यान है , इतना ही भान है ...

जहाँ सस्ती से सस्ती बोली में बिकती स्वतंत्रता है
चारों ओर एक गहन संघर्ष है , खींचातानी है
वहाँ जीवन में स्वयं का बड़ा भाव भी बड़ा न्यून है
और परतंत्रता में ही सबसे बड़ी बुद्धिमानी है ....

कल तक उधार में जो मैंने लिया था
वो बहुत ही सुंदर शब्दों का भरा- पूरा संसार है
पर अब हर क्षण अपने ही स्वार्थ में ही सधना
मेरे मौलिक होने का मूल आधार है ...

दूसरों को कारण बना स्वयं विचलित होना
अब मेरे लिए अहितकारी है , अशुभ है
आत्मानुभूति और आत्माभिमान के आलोक में रहना
परम दुष्कर तो है पर मेरे लिए शुभ है ....

केवल अपने अर्थ की महत्ता को समझकर ही
सहज रूप से स्वयं के सत्य को पाना है
उसी स्वार्थ में ही तो परार्थ का प्रज्वलित दीप है
अपना दीप स्वयं होकर ही मैंने जाना है .


*** अपना अर्थ स्वयं पाना है ***
*** अपना दीप स्वयं जलाना है ***
*** अपना बुद्ध स्वयं जगाना है ***
      *** शुभकामनाएँ ***

Monday, January 1, 2018

यदि मैं भी कभी गुनगुना दूँ .......

बड़ा सुख था वीणा में
पर उत्तेजना से
फिर पीड़ा हो गई ......
संगीत बड़ा ही मधुर था
सुंदर था , प्रीतिकर था
हाँ ! गूँगे का गुड़ था
पर आघात से
फिर पीड़ा हो गई .....
तार पर जब चोट पड़ी
कान पर झनकार था
शब्दों के नाद से
हृदय में मदभरा हाहाकार था
पर चोट से
फिर पीड़ा हो गई .......
अनाहत का संगीत
अब सुनाओ कोई
चोट , आघात से भी
अब बचाओ कोई .....
न उँगलियाँ हो , न ही कोई तार हो
न ही उत्तेजना का कोई भी उद्गार हो
उस नाद से बस एक ओंकार हो
शून्य का , मौन का वही गुंजार हो .....
अनंत काल तक जिसे मैं
सुनती रहूँ , सुनती रहूँ
यदि मैं भी कभी गुनगुना दूँ
तो तुम्हें भी
उसी झीना - झीना ओंकार में
अनंत काल तक मैं
बुनती रहूँ , बुनती रहूँ .

Sunday, July 9, 2017

अतिश्योक्ति की दिशा में गतिमान हो गई हूँ ......

गुणियों ! गुरु - गुण गा - गा कर मैं तो गुण - गान हो गई हूँ
सुधियों ! सुध खो - खो कर अधिक ही सावधान हो गई हूँ
मुनियों ! मन - मधु पीते - पीते मैं भी मधुर मुस्कान हो गई हूँ 
अरे ! अतिश्योक्ति की दिशा में अब तो गतिमान हो गई हूँ 

मुस्कान में है तन्मय , तन्मय में है अमृतायन
अमृतायन में है नर्त्तन , नर्त्तन में है गायन
गायन में है वादन , वादन है बड़ा पावन
पावन सा है रमण , रमण से है जीवन

मधु - मन में जब न यह मेरा है , न वह मेरा है
तब ठहराव कहाँ ? जो है बस गति का फेरा है
अलियों- कलियों की गलियों में रास का डेरा है
गुरु में हुई मैं अब तन्मय जो अमृत का घेरा है 

परिधि में है प्राण , प्राण में है उड़ान
उड़ान से है आकाश , आकाश है वरदान
वरदान से है अवधुपन , अवधुपन में है ध्यान
ध्यान में है दर्शन , दर्शन में अभिराम

संगम पर समेट रही मैं मद की मधुर उफान
गुरु- रस से भीगी- भागी है हिय- कोकिल की तान
मैंने खोला है बाँहों को , आलिंगन में है प्राण
तब तो सहस्त्र सिंगार रच- रच के मुस्काये मुस्कान 

गुणियों ! गुरु - गुण गा - गा कर मैं तो गुण - गान हो गई हूँ
सुधियों ! सुध खो - खो कर अधिक ही सावधान हो गई हूँ .

Friday, October 7, 2016

तू मधुपान कर माँ !

हे मधुरी, हे महामधु, हे मधुतर
तू सबका त्राण कर माँ !
सबपर प्रसन्न होकर
तू मधुपान कर माँ !

मेरे पथ की सुपथा !
वाचालता मेरी नहीं है वृथा
असमर्थ स्तुति रखती हूँ यथा
तू मत लेना इसे अन्यथा
नत निवेदन है, आदान कर माँ !
प्रसन्न हो, प्रसन्न हो, प्रसन्न हो
प्रतिपल प्रसन्नता प्रदान कर माँ !

सबपर प्रसन्न होकर
तू मधुपान कर माँ !

गदा, शूल, फरसा, वाण, मुदगर
तनिक तू इन सबको बगल में धर
और अपने अत्यंत हर्ष से
रोम- रोम को रोमांचित करके
अदग अभिलाषाओं का आधान कर माँ !

सबपर प्रसन्न होकर
तू मधुपान कर माँ !

तेरा मुख मन्द मुस्कान से सुशोभित है
तू कमनीय कान्ति से कीलित है
तू मंगला है, शिवा है, स्वाहा है
तू ही अक्षय, अक्षर प्रणव- प्रकटा
प्रतिदेय प्रतिध्वान कर माँ !

सबपर प्रसन्न होकर
तू मधुपान कर माँ !

तेरी ही निद्रा से खींचे हुए
पुण्यात्माओं का चित्त भी
तेरी महामाया में फँस जाता है
और दुरात्माओं का क्या कहना ?
उनका तो प्रत्येक कृत्य ही
पाप- पंक में धँस जाता है
क्षमा कर, क्षमा कर, क्षमा कर
सबको क्षमादान कर माँ !

सबपर प्रसन्न होकर
तू मधुपान कर माँ !

पुण्य घटा है, पाप बढ़ा है
तब तो तुझे क्रोध चढ़ा है
उदयकाल के चन्द्रमा की भाँति
अपने मुख को लाल न कर
तू तनी हुई भौहों को
और अधिक विकराल न कर
तेरे भय से भयभीत हैं सब
सबको अभयदान कर माँ !

सबपर प्रसन्न होकर
तू मधुपान कर माँ !

तेरे हृदय में कृपा
और क्रोध में निष्ठुरता
केवल तुझमें ही दोनों बातें हैं
इसलिए जगत का कण- कण मिलकर
क्षण- क्षण तेरी स्तुति गाते हैं
हे सुन्दरी, हे सौम्या, हे सौम्यतर
तनिक अपने सिंह से उतर कर
सबका कल्याण कर माँ !

सबपर प्रसन्न होकर
तू मधुपान कर माँ !

Wednesday, September 14, 2016

हे देवी हिन्दी ! .....

" या देवि सर्वभूतेषु हिन्दीरूपेण संस्थिता ।
  नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः "


हे सृष्टिस्वरूपिणी !
हे कामरूपिणी !
हे बीजरूपिणी !
जो जिस भाव और कामना से
श्रद्धा एवं विधि के साथ
तेरा परायण करते हैं
उन्हें उसी भावना और कामना के अनुसार
निश्चय ही फल सिद्धि होती है .......

हे भाषामयी !
हे वांङमयी !
हे सकलशब्दमयी !
हृदय में उदित भव भाव रूप से
मन में संकल्प और विकल्प रूप से
एवं संसार में दृश्य रूप में
अब तुम्हारे स्वरूप का ही दर्शन है .....

हे ज्योत्सनामयी !
हे कृतिमयी !
हे ख्यातिमयी !
अब बिना किसी प्रयत्न के ही
संपूर्ण चराचर जगत में
मेरी यह स्थिति हो गई है कि
मेरे समय का क्षुद्रतम अंश भी
तुम्हारी स्तुति , जप , पूजा
अथवा ध्यान से रहित नहीं है .....

हे शक्तिमयी !
हे कान्तिमयी !
हे व्याप्तिमयी !
इस बात को स्वीकार कर
मैं अति आह्लादित हूँ कि
मेरे संपूर्ण जागतिक आचार और व्यवहार
तुम्हारे प्रति यथोचित रूप से
व्यवहृत होने के कारण
तुम्हारी ही पूजा के रूप में
पूर्णतः परिणत हो गये हैं .

हे देवी हिन्दी !

Sunday, January 25, 2015

हे जगद्धात्री !

हे  जगद्धात्री !
न धुन है न रस है
न संगीत है न ही सुवास है
न कोई विधि-विधान है
न कोई अभ्यास है
अकारण ही तेरा अनुग्रह हो
बस यही एक आस है

हे वाक् अधिष्ठात्री !
न कोई वक्तृत्व-शैली है
न कोई वाक-विन्यास है
न ही कोई कृति-कौशल है
यदि तू देती रहे सद्बुद्धि तो
बस यही एक बल है

हे विश्व धात्री  !
जब बोलने को कुछ हो
तो ही मुझे बोलना आये
अन्यथा मेरा चुप होना ही
बस सार्थक हो जाये

हे दीप्ति धारित्री  !
मेरी अनुभव सम्पदा
सौभाग्य का साधन बने
और मुझसे निकली वाणी
बस तेरा वाहन बने

हे दिव निर्मात्री !
मेरे गीतों से
सबके ह्रदय का प्रसाद बढे
जो गहन से गहन होकर
और-और पगे

हे विद्या विधात्री,
तेरा वरद्हस्त हो तो
शब्दों के काव्य भी
हो जाते हैं इतने रस सने
और जो तू वृहद्वर दे तो
मेरा सम्पूर्ण जीवन ही
शाश्वत काव्य बने .

हे अमृत दात्री!    

Thursday, July 24, 2014

अमृता में तन्मय ...

                   हाँ ! पंख लगे मेरे सपनों को
                   सिर पर ही पैर लिए दौड़ी मैं
                   ऐसी झलक दिखी है उसकी
                  कि सदियाँ जी ली क्षण में मैं

                  क्षण में ही जीकर सदियों को
                 जीवन के अर्थ को जान लिया
                 अक्षय-प्रेम का आभास पाकर
                गर्त के शीर्ष को पहचान लिया

                 मैं चौंकी , मेरी कुंठा जो टूटी
               अमृता से ही सब कुछ खो गया
               चित्त- चंदन को घिस- घिसकर
               एक सौरभ भर गया नया- नया

                धन्य हुई , आभार फिर आभार
               भाव में भासित उस चिन्मय को
                डुबकी मारी जो तो डूब ही गयी
               बचा न पाई , मैं इस तन्मय को

                 अर्द्धोच्चारित से शब्द हैं सारे
                उच्चार में भी वो न समाता है
                पर इतना प्रीतिकर है वह कि
                 बिन उच्चारे रहा न जाता है

                 सांस में भीतर,सांस में बाहर
                 वही तो आता है औ' जाता है
                 पर जब मैं उसे बुलाती हूँ तो
                 अमृता में तन्मय हो जाता है .

Tuesday, May 27, 2014

क्यों से क्यों तक.......

क्यों ?
सबसे कमजोर क्षणों में तुम्हारी ही
सबसे अधिक आवश्यकता होती है
और आलिंगी सी तू फलवती होकर
चूकी कामनाओं में भी सरसता बोती है.....

क्यों ?
जब मैं व्यर्थ ही बँट-बँट कर
भरे संसार में अकेली पड़ जाती हूँ
और संकोच छोड़कर तुमसे मिलते ही
क्षण में ही उत्सुक हो सबसे जुड़ जाती हूँ....

क्यों ?
लगातार लुटी-पिटी सी होकर भी
मुझसे तेरी वो शक्ति नहीं खोती है
और चैन से तुम्हारी गोद में आकर भी
ये जो चेतना है वो कभी नहीं सोती है.....

क्यों ?
इन सजल भार से बुझी-बुझी आँखों में
रह-रहकर सौ-सौ दीये जल जाते हैं
और तेरे तप्त भावों से पिघलना सीख कर
मेरे मित्ति-पाश टूट-टूटकर गल जाते हैं.....

क्यों ?
तेरे मशाल की लौ ऐसे लहका कर भी
केवल अपनी शीतलता में ही भिंगोती है
और इस अंतर की विकल घुमड़न को
अपने अमृत-कण की मालाओं में पिरोती है.....

क्यों ?
अपने ऊपर लम्बी बहसों की श्रृंखला चलाकर
सही अर्थों में सबको संस्कारित करना चाहती हो
और खुद परिधि से बाहर हो घृत-अगन में
प्राणपण से सबको परिष्कृत करना चाहती हो.....

क्यों ?
तुम नितान्त निष्प्रयोज्य सी होकर भी
सबकी सोयी संवेदनाओं को जगा देती हो
और अपनी जादूभरी चमत्कारी छुअन से
हिलकोर कर सबको ऐसे उमगा देती हो.....

फिर क्यों न तेरा मान हो ?
फिर क्यों न तुझपर अभिमान हो ?
फिर क्यों न तेरा गुणगान हो ?

मेरे हर क्यों से निकलती कविता !
मेरे हर क्यों से बहती कविता !
मेरे हर क्यों से सिमटती कविता !

सच है इस ब्रम्हांड की तुम्ही तो धड़कन हो
इसलिए तुमसे बँधकर मैं भी धड़कना चाहती हूँ
साथ ही तुमसे अपने हर क्यों से क्यों तक
निज प्रियता की मांग करते रहना चाहती हूँ .

Sunday, April 6, 2014

सौभाग्यशाली हूँ मैं...

मैंने पत्थरों को भी
ऐसे छुआ है जैसे
वह मेरा ही परमात्मा हो
उसके नीचे कोई दबा झरना
जैसे मेरी ही आत्मा हो
इस आंतरिकता में
मेरी चेतना का तल
सहज ही बदल जाता है
सौभाग्यशाली हूँ मैं
कि मुझे
उस पल का पता चल जाता है...

इस निर्मल बोध को
मुझमें प्रकटाने वाले
बिना धुंआ के ही
अपनी शिखा को जलाने वाले
और मेरे आधार पर ही
ऐसी ऊंचाइयां दिलाने वाले
अनन्य सहयोगी मेरे !
सौभागयशाली हूँ मैं
कि अब मेरी
तैरकर ऊपर आती आकांक्षा
अचेतन में डूबती जा रही है
सपनों की सजावट भी
मुझसे छूटती जा रही है
और कल्पना की निखार
जीवन-दृष्टि बन रही है...

सौभाग्यशाली हूँ मैं
कि मुझे
पत्थरों ने भी ऐसे छुआ है
जैसे मैं ही उनका परमात्मा हूँ
और मेरे नीचे मेरा दबा झरना
जैसे उनकी ही आत्मा हो
इस आंतरिकता में
चेतना के तल को
ऐसे बदलना ही था
और संवेदनशीलता के
सौंदर्य का पता चलना ही था...

अनन्य सहयोगी मेरे !
सौभाग्यशाली हूँ मैं
कि मुझे
चेतना का ऐसा तरल तल दे
अपने को छिपा लेते हो
और संकेतो में ही
सब कुछ कहलवा लेते हो
या तुम अपना पता
ऐसे ही बता देते हो....

अनन्य सहयोगी मेरे !
सौभाग्यशाली हूँ मैं...  

Tuesday, December 31, 2013

चलो याद करते हैं......

इस आत्म विसर्जक युग में
कुछ पल के लिए ही सही
चलो भूलते हैं
कल की सारी बातों को
व हर गहरी अँधेरी रातों को
और क़दमों को मिली हर मातों को.....
चलो भूलते हैं
अपने सजाये प्लास्टिक के फूलों को
व भेस बदल कर चुभते शूलों को
और पीछे पछताते सारे भूलों को......
चलो भूलते हैं
दीवारों में दबे अपने संसार को
व आँगन में उग आई हर बाड़ को
और धूप-छाँव से पड़ती हुई मार को.....
चलो भूलते है
दुःख के अपने सारे प्रबंधों को
व आधुनिकता से हुए अनुबंधों को
और बिखरे से हर संबंधों को....

इस उत्सव अनुप्रेरक युग में
कुछ पल के लिए ही सही
चलो याद करते हैं
आंसुओं में छिपे मधुर गीत को
हर मुश्किल में भी थामे मीत को
और उनका आभार प्रकटते रीत को....
चलो याद करते हैं
बेरुत ही फागुनी फुहारों को
उसमें झूमते-गाते खुमारों को
और प्यार के नख-शिख श्रृंगारों को.....
चलो याद करते हैं
उस शुद्ध सच्चे उल्लास को
व उसी से बंधी हर आस को
और चिर-परिचित हास-विलास को....
चलो याद करते हैं
प्राण से उठती शुभ पुकार को
व शुभैषी कामनाओं के उपहार को
और प्रणम्य सा सबों के स्वीकार को.....
चलो याद करते हैं .


         *** शुभकामनाएं ***

Sunday, December 8, 2013

मेरा एक काम .....

                                     फूल भी तुम्हारा
                                    चरण भी तुम्हारा
                                     शीश जो चढ़ाऊँ
                                    शरण भी तुम्हारा

                                     चलूँ तो तुममें
                                      बैठूँ तो तुममें
                                      रूक जाऊँ तो
                                     ऐंठूँ भी तुममें

                                      खाऊँ तो तुम्हें
                                      पियूँ तो तुम्हें
                                       श्वास भी लूँ
                                      तो जियूँ तुम्हें

                                        चुप तो तुम
                                        बोलूँ तो तुम
                                        रूठूँ तुम्हीं से
                                        मानूँ तो तुम

                                       ओढ़नी भी तू
                                      बिछौनी भी तू
                                      सोऊँ तो उसमें
                                      मिचौनी भी तू

                                      आकाश भी तेरा
                                       सागर भी तेरा
                                        मिट्टी का सब
                                        गागर भी तेरा

                                          हवा भी तू
                                         आग भी तू
                                      सब को पिरोता
                                         ताग भी तू

                                       माया भी तुम
                                       मोह भी तुम
                                      मिलन तुम्हीं से
                                      बिछोह भी तुम

                                       दुविधा भी तुम
                                      सुविधा भी तुम
                                        विष के बीच
                                        सुधा भी तुम

                                        प्रश्न भी तुम
                                       उत्तर भी तुम
                                        पूछूँ कुछ तो
                                      निरुत्तर भी तुम

                                       मिथ्या भी तुम
                                        सांच भी तुम
                                      रस से पिघलाते
                                        आंच भी तुम

                                        नया भी तू
                                       पुराना भी तू
                                      बाँचने के लिए
                                       बहाना भी तू

                                      कोई भी नाम
                                       तेरा ही नाम
                                     पुकारा तुम्हें ही
                                       मुझे तू थाम

                                      तुम्हें ही रोया
                                      तुम्हें ही गाया
                                      तड़प को चैन
                                     तनिक न आया

                                      ना दो आराम
                                     पर लो प्रणाम
                                     तुझे ही जपना
                                     मेरा एक काम .

Thursday, October 31, 2013

कवित्व-दीप ....

सत्य को सत्यता की सत्ता से भी
उपलक्षित करने के लिए
श्रेष्ठ को श्रेष्ठता की श्रेणी से भी
उपदर्शित करने के लिए
और सुन्दर को सुंदरता की समृद्धि से भी
उपपादित करने के लिए
विभिन्न रूपों और विभिन्न स्तरों पर
शब्दों एवं अर्थों के सहभावों व समभावों की
अभिनव अभिव्यक्ति अनवरत होते रहना चाहिए
और चिर प्रतिद्वंद्वी अन्धकार मिटता रहे
इसलिए कवित्व-दीप सतत जलते रहना चाहिए....

आदि काल से ही कवि को
कालज्ञ , सर्वज्ञ , द्रष्टा अथवा ऋषि
अमम आत्मनिष्ठा से कहा जाता है
प्रमाणत: उसकी रचनात्मक कल्पनाशीलता में
आकाश की व्याप्ति भी वाङ्मुख होकर
निर्बाध बहा जाता है
इसलिए तो भिन्न-भिन्न आयामों से
सम्पूर्ण मानवीय ज्ञान को
कवित्व के आलोक में पढ़ा जाता है
इस स्वयं प्रकाशित एवं आप्त उद्घाटित
सहजानुभूति के लिए
हर ह्रदय में प्रेमानुराग प्रज्वलित होते रहना चाहिए
और ये चिर प्रतिद्वंद्वी अन्धकार मिटता रहे
इसलिए कवित्व-दीप सतत जलते रहना चाहिए....

मन उद्दाम भाव-भूमि से लेकर
उद्दिष्ट अनुभव-आकाश तक कुलांचे भरता है
अपने ही चाल की विशिष्टता से विस्तार पा
चमकृत होता रहता है
और अकथ आनंद-आस्वाद को
पल-प्रतिपल पुन: पुन: पाता रहता है
इस प्रेय उद्गार एवं गेय मल्हार की
अभिव्यक्ति के लिए
अप्रतिम तथा अमान्य संवेग
सदैव प्रस्फुटित होते रहना चाहिए
और चिर प्रतिद्वंद्वी अन्धकार मिटता रहे
इसलिए कवित्व-दीप सतत जलते रहना चाहिए....

अत: अतिशयोक्ति नहीं है कि
कवित्व ही
समस्त वस्तुओं का मूल है
अमृत-सा ये अमर फूल है
ये चेतना का चिंतन है
तो अस्तित्व का ये कीर्तन है
प्रेम का ये समर्पण है
तो विरह में भी मिलन है
ये समृद्धि का प्रहसन है
तो दरिद्रों का भी धन है
दुःख में ये धैर्य है
तो सुख का शौर्य है
हर पाश का ये प्रतिपाश है
तो अन्धकार में प्रकाश है.....

दीपों के त्योहार से हमें और क्या चाहिए ?
बस ये चिर प्रतिद्वंद्वी अन्धकार मिटता रहे
इसलिए कवित्व-दीप सतत जलते रहना चाहिए .



( उपलक्षित---संकेतित , उपदर्शित---व्याख्या करना
उपपादित---सिद्ध करना , वाङ्मुख---ग्रंथ की  भूमिका
 उद्दाम---स्वतंत्र , उद्दिष्ट---चाहा हुआ )
 

Sunday, October 13, 2013

हे परमेशानि !

मेरे रोम-रोम से
तेरा आरव रँभित
रंच मात्र न
कोई रव दूजा हो
हे परमेशानि !
ऐसे तू मुझसे
प्रकट हो कि
मेरा हर कृत्य ही
तेरी पूजा हो !

मेरे आकुल ताप में
तेरी मधुर कल्पना हो
व उद्वेलित मन में
बस प्रिय भावना हो
और विह्वल तिक्तता में भी
तेरी आलंबित धारणा हो ......

कोई क्षुद्रोल्लास ही
जीवन-ध्येय नहीं हो
व कभी उग्राह्लाद
प्राप्य विधेय नहीं हो
और क्षणिक हर्षोल्लाद में
कुछ भी हेय नहीं हो ........

तेरे दुर्लभ योग की
प्रबल अभिलाषा हो
व गरिमान्वित गर्जन से
बँधती हर आशा हो
और तेरे रहस्यों को बस
पीने की उत्कट पिपासा हो .......

हर रुधिर में रंजित
तेरा आलोड़न हो
व श्वास-श्वास में
एक ही आन्दोलन हो
और विभोर तन-मन में
तुझसे दृढ आलिंगन हो .......

तेरी गति-कंपन से
प्राणों में कलरव
कल-कल कर
सुप्तराग सा गूँजा हो
हे परमेशानि !
ऐसे तू मुझसे
प्रकट हो कि
मेरा हर कृत्य ही
तेरी पूजा हो !


Saturday, June 22, 2013

हे महाकाल !

ताण्डवमत्त हे महाकाल !
प्रत्येक शिरा को
चकित-कम्पित करता हुआ
तेरा ये कैसा अट्टहास है?
कि शत-शत योजनों तक
हिम पिघल कर तेरे चरणों पर ही
ऐसे लोट रहा है
देखो तो ! विध्वंस का उद्दाम लीला
हर व्याकुल-व्यथित ह्रदय को
स्मरण मात्र से ही कैसे कचोट रहा है....
तुम्हारा दिया ये घोर दु:ख
तुम्हारे ही प्रसन्न मुख को
इसतरह से क्लांत कर रहा है
कि प्रत्यक्ष महाविनाश
तेरे अप्रत्यक्ष महासृजन को ही
रौंदता- सा दिख रहा है
और समस्त अग-जग को
बड़ी वेदना में भरकर
तुमसे ही पूछने के लिए
विवश भी कर रहा है कि
तेरा ये कैसा उद्दत पौरुषबल है ?
जो अपने ही आश्रितों से ऐसा
अवांछनीय व्यवहार करता है....
क्यों निर्मम , निर्मोही-सा
क्षण भर में ही सबको
जिसतरह से नष्ट कर देता है कि
ठठरी कांपती रह जाती है
त्राहि-त्राहि करती रह जाती है....
एक तरफ तुम्हार कठोर चित्त
दूसरी तरफ सम्पूर्ण चराचर सृष्टि का
केवल उद्भव और विनाश के लिए ही
विवशता और बाध्यता....
ओ!अँधेरी गुफा में भी पथ दिखाने वाले
फिर तू ही ऐसा अन्धेरा क्यों करता है ?
रुको महाकाल !
क्षण भर के लिए ही रुको!
कातर भाव की पुकार सुनो!
अपने उन्मत्त शक्ति को सहज गति दो!
उस गति के अनुरूप ही सबको मति दो!
रक्षा करो! रक्षा करो!
हे महाकाल !
तुम्हारा जो प्रसन्न मुख है
उसी के अनुग्रह द्वारा
सबकी रक्षा करो !