जबसे सोने के पिंजरे से मोह लगा है
अपना ही ये घर खंखड़ खोह लगा है
सपना टूटे , अब अपना ही सच दिखे
दिन- रात एक यही ऊहापोह लगा है
इस घर में अब उदासी-सी छाई रहती है
मेरे सुख-चैन को ही दूर भगाई रहती है
मन तो बस , बंद हो गया उसी पिंजरे में
उसे पाने की इच्छा , फनफनाई रहती है
स्तब्ध हूँ कि कैसे मैं अबतक हूँ यहाँ
जो दिखता था जीवन , यहाँ है कहाँ
छल करता हर एक सुख है , पर अब
आँखों को दिखता साक्षात स्वर्ग वहाँ
अब वही , सोने का स्वर्ग मुझे चाहिए
मदाया हुआ , उन्मत्त गर्व मुझे चाहिए
दुख में ही तो बीता हीरा जनम , अब
क्षण-क्षण छंदित मेरा पर्व मुझे चाहिए
अपना होना भी मिटाना पड़े मिटा दूंगी
सबकुछ लुटाना पड़े तो , सब लुटा दूंगी
हँसते-हँसते उस सोने के पिंजरे के लिए
पर कटाना पड़े तो , खुशी से कटा लूंगी
अभी तो उस झलकी का संयोग लगा है
जीर्ण- जगत गरल सम प्रतियोग लगा है
असमंजस में प्राण है बीते न बिताए पल
जबसे उस सोने के पिंजरे से मोह लगा है .