मैंने पत्थरों को भी
ऐसे छुआ है जैसे
वह मेरा ही परमात्मा हो
उसके नीचे कोई दबा झरना
जैसे मेरी ही आत्मा हो
इस आंतरिकता में
मेरी चेतना का तल
सहज ही बदल जाता है
सौभाग्यशाली हूँ मैं
कि मुझे
उस पल का पता चल जाता है...
इस निर्मल बोध को
मुझमें प्रकटाने वाले
बिना धुंआ के ही
अपनी शिखा को जलाने वाले
और मेरे आधार पर ही
ऐसी ऊंचाइयां दिलाने वाले
अनन्य सहयोगी मेरे !
सौभागयशाली हूँ मैं
कि अब मेरी
तैरकर ऊपर आती आकांक्षा
अचेतन में डूबती जा रही है
सपनों की सजावट भी
मुझसे छूटती जा रही है
और कल्पना की निखार
जीवन-दृष्टि बन रही है...
सौभाग्यशाली हूँ मैं
कि मुझे
पत्थरों ने भी ऐसे छुआ है
जैसे मैं ही उनका परमात्मा हूँ
और मेरे नीचे मेरा दबा झरना
जैसे उनकी ही आत्मा हो
इस आंतरिकता में
चेतना के तल को
ऐसे बदलना ही था
और संवेदनशीलता के
सौंदर्य का पता चलना ही था...
अनन्य सहयोगी मेरे !
सौभाग्यशाली हूँ मैं
कि मुझे
चेतना का ऐसा तरल तल दे
अपने को छिपा लेते हो
और संकेतो में ही
सब कुछ कहलवा लेते हो
या तुम अपना पता
ऐसे ही बता देते हो....
अनन्य सहयोगी मेरे !
सौभाग्यशाली हूँ मैं...
ऐसे छुआ है जैसे
वह मेरा ही परमात्मा हो
उसके नीचे कोई दबा झरना
जैसे मेरी ही आत्मा हो
इस आंतरिकता में
मेरी चेतना का तल
सहज ही बदल जाता है
सौभाग्यशाली हूँ मैं
कि मुझे
उस पल का पता चल जाता है...
इस निर्मल बोध को
मुझमें प्रकटाने वाले
बिना धुंआ के ही
अपनी शिखा को जलाने वाले
और मेरे आधार पर ही
ऐसी ऊंचाइयां दिलाने वाले
अनन्य सहयोगी मेरे !
सौभागयशाली हूँ मैं
कि अब मेरी
तैरकर ऊपर आती आकांक्षा
अचेतन में डूबती जा रही है
सपनों की सजावट भी
मुझसे छूटती जा रही है
और कल्पना की निखार
जीवन-दृष्टि बन रही है...
सौभाग्यशाली हूँ मैं
कि मुझे
पत्थरों ने भी ऐसे छुआ है
जैसे मैं ही उनका परमात्मा हूँ
और मेरे नीचे मेरा दबा झरना
जैसे उनकी ही आत्मा हो
इस आंतरिकता में
चेतना के तल को
ऐसे बदलना ही था
और संवेदनशीलता के
सौंदर्य का पता चलना ही था...
अनन्य सहयोगी मेरे !
सौभाग्यशाली हूँ मैं
कि मुझे
चेतना का ऐसा तरल तल दे
अपने को छिपा लेते हो
और संकेतो में ही
सब कुछ कहलवा लेते हो
या तुम अपना पता
ऐसे ही बता देते हो....
अनन्य सहयोगी मेरे !
सौभाग्यशाली हूँ मैं...
जब कण कण में इश्वास का वास है तो हम भी तो उसी कण से उपजे हैं ... कौन किसके सहारे कहाँ तक आया ये तो माया है इश्वर की ...
ReplyDeleteविश्व से एकात्म होती चेतना।
ReplyDeleteमुझे तो खुद पता न था मैं इतनी खुशनसीब हूँ ....
ReplyDeleteविश्व के कण कण से तादात्म्य स्थापित कर लेना निश्चय ही सौभाग्य है...
ReplyDeleteसौभाग्यशाली हैं :)
ReplyDeleteविश्व के कण कण में ईश्वर है हम भी उसी का एक हिस्सा हैं..निश्चय ही हम सब भाग्यशाली हैं..
ReplyDeleteनिर्मल मन संवेदनाओं से भरा होता है...बहुत सुंदर...
ReplyDeleteओह. कितना सौन्दर्य, कितनी इच्छाएं, कैसा आत्मसंघर्ष, कितने भटकाव, कितनी व्यथायें, कितनी बंदिशें और क़दम-क़दम पर टूटे-बिखरे ख्वाब ! और इन सबके बीच एक चैतन्य निर्मल बोध.…
ReplyDeleteआनंदम आनंदम ...... अति सुन्दर
ReplyDeletewaaaaaaaaaaaah
ReplyDeleteचेतना को ऊपर की ओर खिंचती कविता ।
ReplyDelete....
ReplyDeleteऔर संवेदनशीलता के
सौंदर्य का पता चलना ही था... साधो
अतिरेक की सुन्दर अवस्था जहाँ आत्मा और शरीर का एकीकरण हो जाता है, दोनों अविभाज्य हो जाते हैं । अति सुन्दर .सौभाग्यशाली हैं हम:)
ReplyDeleteसुन्दर भावाभिव्यक्ति । सुन्दर शब्द-विन्यास । प्रशंसनीय प्रस्तुति ।
ReplyDeleteshaakuntalam.blogspot.in
कण-कण में चेतना की व्याप्ति का अनुभव ,उस महाचिति से जुड़ जाना ही तो है .
ReplyDeleteचेतना का द्वार, संवेदना का बड़ा एक उस पार संसार।
ReplyDeleteयूँ ही सातत्य बना रहे सौभाग्य का .
ReplyDelete"सौभाग्यशाली हूँ मैं
ReplyDeleteकि मुझे
पत्थरों ने भी ऐसे छुआ है
जैसे मैं ही उनका परमात्मा हूँ
और मेरे नीचे मेरा दबा झरना
जैसे उनकी ही आत्मा हो
इस आंतरिकता में
चेतना के तल को
ऐसे बदलना ही था
और संवेदनशीलता के
सौंदर्य का पता चलना ही था..."
सृष्टिक्रम का यह दर्शनगीत कई अर्थ छटाएँ देता है. ऐसी कविता कहना सबके बस की बात नहीं.
गहन और सुन्दर!
ReplyDeleteसबकुछ तू है, सब विच तू, तेनू सब तो पाक पहचाना,
मैं भी तू है, तू भी तू है, बुल्ला कौन न माना!
मौका मिले तो बुल्लेहशाह का ये कलाम सुनियेगा, आपको पसंद आएगी।
कण कण में चेतना की व्याप्ति का भाव लिए अदबुद्ध रचना...
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteसादर नमस्कार ! लिखी रचना आज "पांच लिंकों का आनन्द में" आज 25 दिसम्बर 2017 को साझा की गई है..................
http://halchalwith5links.blogspot.in/ पर आप भी आइएगा....धन्यवाद! देर से सूचना देने हेतु क्षमा चाहती हूँ ।
ReplyDeleteसौभाग्यशाली हूँ मैं
कि मुझे
पत्थरों ने भी ऐसे छुआ है
जैसे मैं ही उनका परमात्मा हूँ
और मेरे नीचे मेरा दबा झरना
जैसे उनकी ही आत्मा हो-- अति सुंदर निर्मल भाव !!!!!!आदरणीय अमृता जी जीवन अपनी चाल से चलता है पर कोई मसीहा आकर कलुषित अंतस का मेल दो देता है तो हर चीज साफ साफ नजर आने लगती है | बहुत अच्छी रचना है आपकी |यूँ ही आदरणीय मीना जी ने इसे अपनी सर्वाधिक पसंदीदा रचनाओं में शामिल नहीं किया |सचमुच कई लोग मसीहा बनकर जीवन में नया सृजन रोप देते हैं | बधाई और शुभकामना --