कहा जाए तो समाज और उसके मूल्य बोध के स्वीकार के बिना सृजन-कर्म को ''स्वान्त: सुखाय'' ही माना गया है | परन्तु एक सामाजिक प्राणी होने के कारण सामाजिक मूल्य बोध को अस्वीकार भी तो नहीं किया जा सकता है | उसे उदारता से स्वीकार कर ''सुरसरि समसब कर हित होई'' को सार्थक करना ही सृजन-कर्म है | साथ ही ये मानना पड़ता है कि साहित्य का सारा मानसिक व्यापार सामाजिक परिवेश के अनुरूप चलता रहता है | जिसकी अभिव्यक्ति का सशक्त और सार्थक माध्यम भाषा है |
इन हाथों ने कलम थामकर स्वयं को तब अभिव्यक्त करना शुरू किया जब न भाषा की उतनी समझ थी न ही सामाजिक परिवेश की | स्वान्त: सुखाय से भी कोई विशेष परिचय नहीं था तो किसी और के हित की बात ही नहीं उठती है | उन दिनों बस भावों का बहाव होता था और शब्दों की पहेली | उन्हें आपस में जोड़ना एक खेल ही था चाहे अर्थ जो भी निकले | जिसे पढ़कर और पढ़ाकर बस हँसना ही होता था | ऐसे ही शब्द निकलते रहे और कागज़ पर मिटते रहे | इन हाथों ने कभी उनसे न कोई शिकायत की न ही शब्दों ने कोई ऐतराज जताया | दोनों का एक खूबसूरत साथ निभता रहा | पर आज भी उन जोड़े हुए शब्दों को देखकर हँसी आ जाती है | शायद शब्द भी हँसते होंगे कि उन्हें कैसे जोड़ा गया |
यदि सूफियाना अंदाज में कहा जाए तो शब्दों से कोई संगीत फूटना चाहता था और है | जो अबतक फूटा नहीं है पर एक जिद है जो अपने तबला पर हथौड़े की चोट दिए जा रही है निकलती आवाज की परवाह किये बगैर | यदि बौद्धिक अंदाज में कहा जाए तो अब ऐसी-वैसी धुन का इंतजाम करने की थोड़ी-बहुत समझ तो आ गयी है पर वो साज है कि बैठता ही नहीं है | फिर भी हथौड़े की चोट जारी रहेगी और कानों को रूई डालकर ही सही उस आवाज को सुनना पड़ेगा |
जो भी हो इस कलम की यायावरी यात्रा ने ईमानदारी से समझाया कि शब्द और अर्थ के भाषिक सहभाव को ही साहित्य कहा जाता है | जो सर्जक और पाठक का एक अनूठा संगम है | इसमें भाव और संवेदनाएं ऐसे मिल जाते हैं जैसे दो पात्र का पानी एक पात्र में मिल जाए | जहाँ सर्जक का जन्म व्यक्तिगत रूप से रस की अनुभूति से होता है तो पाठक का जन्म सामाजिक रूप से उसी रस में अपनी अनुभूति को एकमेक करने से होता है | तब कहीं साहित्य अपने उद्देश्य को प्राप्त करता है |
खुद को मैं देखती हूँ तो कुछ समय के लिए ही मैं सर्जक होती हूँ और बाकी समय के लिए बस एक सजग पाठक | जो अपनी आत्मक्षुधा को शांत करने के लिए ज्यादा से ज्यादा पढ़ने की कोशिश में रहता है | जब ये पाठक अपनी अनुभूति को कहीं एकमेक होते पाता है तो कुछ समय के लिए वहीँ ठहर कर उस सर्जक को ह्रदय से आभार व्यक्त करता है | भले ही सर्जक तक पहुंचाया गया भाव खुद को शब्दों के साथ प्रमाणित करे या न करे | एक सजग पाठक होने के नाते स्वयं में गर्व का अनुभव होता है और प्रभावित होकर कुछ अच्छा लिखने की इच्छा भी होती है | पर अच्छा लिखा हुआ पढ़कर ये पाठक ऐसे अभिभूत होता है कि इच्छा सरक कर खुद ही समर्पण कर देती है |
इतनी भूमिकाओं के साथ ये सर्जक-पाठक ये कहना चाहता है कि आज पहली बार ये आलेख क्यों लिख रहा है जबकि वह एक चिट्ठा कवि है | इसे लिखते हुए उसे हैरानी तो हो ही रही है और परेशानी भी हो रही है | सच्चाई तो ये है कि किन्हीं भावुक क्षणों में कुछ पाठकों ने एक आलेख लिखने का वचन ले लिया था जिसे लम्बे समय से बस टाला जा रहा था | कारण शब्दों और भावो की पहेली को तथाकथित कविता के रूप में उलझाता-सुलझाता ये चिट्ठा कवि स्वयं से संतुष्ट था और है | पर कोई भी सर्जक अपना पहला पाठक होता है और दोनों के आंतरिक सम्बन्ध को शब्दों में नहीं ढाला जा सकता है | साथ ही सर्जक का धर्म है कि वह पाठकों का सम्मान करे | इसलिए ये चिट्ठा कवि अपनी ही खींची हुई सीमा से आज बाहर निकल रहा है |
अंत में सम्मानीय पाठकों से हार्दिक अनुरोध है कि इस चिट्ठा कवि को किसी भी कसौटी पर कसा नहीं जाना चाहिए और न ही उसपर अबतक जो ठप्पा लगाया गया है उसे ही छीना जाना चाहिए | नहीं तो इस चिट्ठा कवि को ये कहते हुए तनिक भी संकोच नहीं हो रहा है कि वह विशुद्ध मूषक है और शेर होने के भ्रम से बिल्कुल अनजान है | साथ ही वह अपने बिल में सुरक्षित भी है |
जो भी हो इस कलम की यायावरी यात्रा ने ईमानदारी से समझाया कि शब्द और अर्थ के भाषिक सहभाव को ही साहित्य कहा जाता है | जो सर्जक और पाठक का एक अनूठा संगम है | इसमें भाव और संवेदनाएं ऐसे मिल जाते हैं जैसे दो पात्र का पानी एक पात्र में मिल जाए |
ReplyDelete....बहुत सार्थक और सटीक चिंतन...
आपकी रचनाओं की तो हमेशा से कायल रही हूँ पर आज इस आलेख में २ बातें बहोत अच्छी लगीं ...."शब्द और अर्थ के भाषिक सहभाव को ही साहित्य कहा जाता है | जो सर्जक और पाठक का एक अनूठा संगम है | इसमें भाव और संवेदनाएं ऐसे मिल जाते हैं जैसे दो पात्र का पानी एक पात्र में मिल जाए | जहाँ सर्जक का जन्म व्यक्तिगत रूप से रस की अनुभूति से होता है तो पाठक का जन्म सामाजिक रूप से उसी रस में अपनी अनुभूति को एकमेक करने से होता है | तब कहीं साहित्य अपने उद्देश्य को प्राप्त करता है | "
ReplyDeleteऔर
"एक सजग पाठक | जो अपनी आत्मक्षुधा को शांत करने के लिए ज्यादा से ज्यादा पढ़ने की कोशिश में रहता है | जब ये पाठक अपनी अनुभूति को कहीं एकमेक होते पाता है तो कुछ समय के लिए वहीँ ठहर कर उस सर्जक को ह्रदय से आभार व्यक्त करता है |......अच्छा लिखा हुआ पढ़कर ये पाठक ऐसे अभिभूत होता है कि इच्छा सरक कर खुद ही समर्पण कर देती है | "
वाह अमृतजी .....एक बहोत सुन्दर रचना फिर गढ़ दी आपने ....अनजाने ही.......
संगीत होता है निकलता भी है संगत जरूरी है पाठक और लेखक की
ReplyDeleteगीत गाना हमेशा जरूरी नहीं कभी पढ़ भी दिया जाता है अर्थ अपने अपने होते हैं समझ में कुछ जरूर आता है । बहुत सुंदर ।
shundar aalekh ...
ReplyDeleteलगा जैसे खुद को पढ़ रहा हूँ।
ReplyDeleteसर्जक, साहित्य, पाठक और अभिप्रेत सब पर विचार डाला - बहुत आसानी से कह डाला सब-कुछ ,वाह !
ReplyDeleteआपकी अभिव्यक्ति का अंदाज निराला होता है.
ReplyDeleteआपके नाम के अनुरूप अमृतमय तन्मय करता हुआ.
आभार
"शब्द और अर्थ के भाषिक सहभाव को ही साहित्य कहा जाता है | जो सर्जक और पाठक का एक अनूठा संगम है ।" हम सबके मन की बात कह आपने। चिट्ठा कवि का आलेख भी उतना ही असरदार रहा जितनी कविताएँ होती हैं...शुभकामनाएं
ReplyDeleteशब्द और अर्थ की परिभाषा बहुत सुन्दर और सलीके से समझायी व्यक्त की है
ReplyDeleteजीवन का सारा सृजन इन्हीं के साथ तो घूमता रहता है
शब्द हैं तो अर्थ है, अर्थ हैँ तो शब्द हैं
जीवन के मनोहारी संगीत की धुरी हैँ शब्द ओर अर्थ
बेहद जरुरी और सार्थक आलेख
उत्कृष्ट प्रस्तुति
सादर
आग्रह है----
और एक दिन
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन उस्ताद अल्ला रक्खा ख़ाँ और ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteयह यात्रा सतत जारी रहे ....शुभकामनायें
ReplyDeleteजिस रचना को पढ़कर पाठक महसूस करे कि मेरे मन के उद्गार हैं वह रचना दिल पर गहरा असर छोड़ती है... बहुत प्रभावशाली लेख .. ब्लॉगबुलेटिन का आभार...
ReplyDeleteजहाँ सर्जक का जन्म व्यक्तिगत रूप से रस की अनुभूति से होता है तो पाठक का जन्म सामाजिक रूप से उसी रस में अपनी अनुभूति को एकमेक करने से होता है | तब कहीं साहित्य अपने उद्देश्य को प्राप्त करता है | अमृता जी, आपके पद्य की तरह गद्य में भी बहुत धार है..बधाई इस प्रभावी आलेख के लिए..
ReplyDeleteसरलता और सहजता से भरा हुआ आत्मिक स्वीकारोक्ति... शब्द दर शब्द की यायावरी यात्रा बस कायम रहे.....
ReplyDeleteसर्जकों तक पहुंचाए गए आपके टिप्पणीरूप भाव निश्चय ही प्रमाणित होते हैं। और ये संज्ञान अवश्य ले लें कि भावुक क्षणों का प्रभाव दिग्दिगन्त तक होता है। समस्त सर्जक और पाठक अौर मित्रगण आपकी नवसृजनात्मकता को देखकर अवश्य ही तृप्त हुए होंगे। आशा है आपका नया सृजन पथ सफलताओं से श्रृंगारित होता रहेगा।
ReplyDeleteकहा जाए तो समाज और उसके मूल्य बोध के स्वीकार के बिना सृजन-कर्म को ''स्वान्त: सुखाय'' ही माना गया है | परन्तु एक सामाजिक प्राणी होने के कारण सामाजिक मूल्य बोध को अस्वीकार भी तो नहीं किया जा सकता है |..............................आज आपका गद्य सृजन दोबारा पढ़ा। इसमें बहुत सी ऐसी बातें आईं, जिनसे आप और हम पर स्वान्त सुखाय का ठप्पा लगाने वालों से लड़ने की शक्ति मिली। मेरी तो ये समझ नहीं आ रहा है कि स्वान्त सुखाय क्या होता है। ये क्या कम बड़ी बात है कि साक्षर व्यक्ति भावनात्मक अक्षर अंकित कर रहा है। क्योंकि विगत दशकों में पूरे विश्व में साक्षरता अभियान को जोर-शोर से शुरु किया गया था। और जब अधिकांश जन साक्षर होकर भावनाएं प्रकट कर रहा है तो उसे स्वान्त सुखाय कहा जा रहा है। लिखे गए को भाषिक, समझ के स्तर पर मूल्यांकित किया जाना चाहिए ना कि भावनात्मक स्तर पर। क्योंकि भावनाओं का अन्तर्जाल इतना व्यापक होता है कि उसमें समाज के मूल्यांकनकर्ताओं और समाज के लोगों का एकीकरण कभी नहीं हो सकता।
Deleteबहुत सुन्दर विश्लेषणात्मक अभिव्यक्ति !
ReplyDeleteसर्जनात्मक अभिव्यक्ति यूँ ही जारी रहे.
ReplyDeleteसर्जक/पाठक ने अपने मन ही चाह, कहा
ReplyDeleteऔर उसे जानकर हमने बस वाह! कहा
अच्छा किया किन्ही पाठकों ने आपसे आलेख लिखने का वचन ले लिया। ये आलेख बड़े इत्मिनान से पढ़ा मैंने। लिखने और पढ़ने के क्रम में (सर्जक-पाठक के दोहरे रोल में) प्रायः कुछ भ्रम सा प्रतीत होने लगता मुझे, कि आखिर उद्देश्य और लक्ष्य क्या हैं. इस आलेख में इसका पुष्ट विश्लेषण मिला। बेहद ज़रूरी था ये आलेख- पाठकगणों के लिए भी, और सर्जकजनों के लिए भी.
ReplyDeleteसादर
मधुरेश
ब्लॉग में ऐसे एक boundry खींच देना नहीं चाहिए न !! मुझे देखिये पता नहीं कैसी कैसे अजीबोगरीब पोस्ट लिख देता हूँ :) कवितायें नहीं आती फिर भी कुछ से कुछ देखिये लिख ही देता हूँ....all i want to say is that ऐसा कोई बंधन नहीं होना चाहिए...आप कविताओं में अपनी बात एक्सप्रेस करती हैं...लेकिन ऐसे पोस्ट भी लिखना चाहिए आपको....हमने भी तो कहा ही था आपसे बहुत पहले...आपको याद है क्या?
ReplyDeleteएक दो पोस्ट और लगा डालिए यहाँ :)
by the way, loved this post !!
शब्दों को हम भी कुतरते रहते हैं, चूहों की तरह, हमें तो कोई भी भ्रम नहीं।
ReplyDeleteकवी अपने लेखन की सीमाओं से बाहर निकला ऐसा नहीई ... वो बस अपनी शैली से आगे निकला है जो की सुखद है ...
ReplyDeleteब्लोगिंग तो अभिव्यक्ति का एक माध्यम मात्र है, कविता हो आलेख हो या कोई एकदम नई अपरिभाषित विधा। इसकी विशेषता तो किसी बाह्य संपादक से स्वतंत्रत रहकर सृजन करने में है। शुभकामनायें!
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ReplyDeleteसाहित्य-सृजन में संवेदनाएं शब्दों में रूपांतरित हो जाती हैं.....गद्य हो या पद्य, समाज के लिए दोनों अभीष्ट हैं।
ReplyDeleteएक चिट्ठा कवि की संवेदनाएँ उसकी अपनी सृजन प्रक्रिया को कहने के लिए इस चिट्ठे में उतर आई हैं. इसमें सबसे खूबसूरत अभिव्यक्ति उसी सृजन प्रक्रिया के यथार्थ की है जिसे व्यक्त करना आसान नहीं होता लेकिन अमृता ने उसे तन्मयता से ऐसा लिखा है कि जो लगभग असंभव होता है वह पूरी तरह अभिव्यक्त हो गया. लेकिन अभिव्यक्ति कभी पूर्ण नहीं होती इसका संकेत आपने कर ही दिया है. बहुत अच्छा लगा. प्रतीक्षा रहेगी.
ReplyDeleteशब्द और अर्थ की परिभाषा को ही साहित्य कहा जाता है
ReplyDeleteआपको पढ़कर ऐसा लगा मानो किसी विश्वविद्याल. के प्रोफ़ेसर की थीसिस के कुछ पन्नों का सारांश पढ़ने को मिल रहा है. काबिल-ए-तारीफ़ शब्द आपकी इस पोस्ट के लिए बिल्कुल सटीक हो सकता है, लेकिन अगर इससे सुंदर और कोई शब्द है तो वह है कि आपने तो हैरान कर दिया. आपका अपनी ही खींची हुई सीमा को तोड़ने का बहुत-बहुत स्वागत है.
ReplyDeleteआपके पद्य की तरह गद्य में भी बहुत धार है..बधाई इस प्रभावी आलेख के लिए....यह नयी यात्रा भी जारी रहे....शुभकामनायें।
ReplyDeleteये भी बेमिसाल 👌👌👌👌🙏❤🌹❤🤗😄
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