और ये चिलम सुलगता रहे
इसके लिए तो आग चाहिए
होश पूरी तरह से खोना है
तो भी एक जाग चाहिए
ये न जन्नत में मिलती है
न ही जलूम जहन्नुम में
न ही मदहोश महफ़िल के
तराशा हुआ किसी तरन्नुम में
गर तरस कोई खाये भी तो
कर्ज़ बतौर दे नहीं सकता
कमबख़्त चीज ही ऐसी है कि
कसम दे कोई ले नहीं सकता
ये एक तल्ख़ तलब है हुजूर
जो तबियत लगाने से मिटती है
जब तबियत कहीं लग जाए
तो ये खुद-ब-खुद जलती है
फिर तो ये जली हुई आग
किसी को क्या बुझाएगी
खुद धुआँ को जज्ब कर
बस रोशनी ही सुझाएगी
ये चिलम बस सुलगता रहे
उसके लिए तो आग चाहिए
होश पूरी तरह से खो जाए
तो भी एक जाग चाहिए.
इसके लिए तो आग चाहिए
होश पूरी तरह से खोना है
तो भी एक जाग चाहिए
ये न जन्नत में मिलती है
न ही जलूम जहन्नुम में
न ही मदहोश महफ़िल के
तराशा हुआ किसी तरन्नुम में
गर तरस कोई खाये भी तो
कर्ज़ बतौर दे नहीं सकता
कमबख़्त चीज ही ऐसी है कि
कसम दे कोई ले नहीं सकता
ये एक तल्ख़ तलब है हुजूर
जो तबियत लगाने से मिटती है
जब तबियत कहीं लग जाए
तो ये खुद-ब-खुद जलती है
फिर तो ये जली हुई आग
किसी को क्या बुझाएगी
खुद धुआँ को जज्ब कर
बस रोशनी ही सुझाएगी
ये चिलम बस सुलगता रहे
उसके लिए तो आग चाहिए
होश पूरी तरह से खो जाए
तो भी एक जाग चाहिए.
वाह !
ReplyDeleteबहुत गहरी गहराई है
बस चिलम सुलगाने
के लिये आग लाई है
फलसफा इतने तक
बहुत अच्छा होता है
कोयला ये ना कह बैठे
सारी हो गई सफाई है । बहुत उम्दा ।
ये एक तल्ख़ तलब है हुजूर
ReplyDeleteजो तबियत लगाने से मिटती है
जब तबियत कहीं लग जाए
तो ये खुद-ब-खुद जलती है
बहुत खूब..जो खुद बखुद जले वही टिकती है..
ये आग बस अपने अन्दर ही होती है ... इसे जलाना भी खुद ही होता है ... और ये सच है की उसके लिए जागना पढता है ... लड़ना होता है ...
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteये तल्ख़ तलब लगने में सदियों लग जाते हैं... बस जागने भर की देर है .....................
ReplyDeleteहो श पूरी तरह से खोना है
ReplyDeleteतो भी एक जाग चाहिए
................. क्या बात है बहुत सही कहा आपने
ये एक तल्ख़ तलब है हुजूर
ReplyDeleteजो तबियत लगाने से मिटती है
जब तबियत कहीं लग जाए
तो ये खुद-ब-खुद जलती है
और वो सुलगती है तंबाकू की तरह
ठूंस कर दबाई गई तल्खियां
जिनका नशा ही दर्द से निजात दिलाता है
नीम बेहोशी में लगता है कोई बुलाता है
बेहतर अभिव्यक्ति
बेहद उम्दा...
ReplyDeleteफिर तो ये जली हुई आग
ReplyDeleteकिसी को क्या बुझाएगी
खुद धुआँ को जज्ब कर
बस रोशनी ही सुझाएगी
बहुत खूब ....दमदार अभिव्यक्ति
इस चिलम की सुलगन उस आग की देन ही तो है - धुआँ जज़्ब कीजिए , जगाए रहिए बराबर !
ReplyDeleteविशेष सूचना टिप्पणी
ReplyDeleteहिन्दी ब्लॉग जगत की आवश्यकताओं के अनुरूप ब्लॉगसेतु टीम द्वारा ब्लॉगसेतु नाम से एक नए ब्लॉग एग्रीगेटर का निर्माण आपके विचारों को ज्यादा से ज्यादा व्यक्तियों तक पहुंचाने के लिए किया गया है. अतः आपसे विनम्र प्रार्थना है कि आप अपने ब्लॉग को इस ब्लॉग एग्रीगेटर से जोड़ कर हमें कृतार्थ करें.
http://blogsetu.com/
उद्वेलित करते भाव.......
ReplyDeleteचिलम के शौक़ीन तो बस यही कहेंगे कि आग जलती भी रहे, धुआँ भी उठता रहे..बस एक ‘साफी’ का इंतज़ाम हो जाये.
ReplyDeleteमिचमिचाये आँख कि बन्द हो मुठ्ठियाँ , आग जलती रहनी चाहिए !
ReplyDeleteप्रेरक !
जब तबियत कहीं लग जाए
ReplyDeleteतो ये खुद-ब-खुद जलती है
बहुत खूब.....!!
http://bulletinofblog.blogspot.in/2014/05/blog-post_7.html
ReplyDeleteआग लगी है चिलम को खींचा जा रहा है पर जागरण में कमी दिखती है।
ReplyDeleteवाह-वाह क्या बात है। उम्दा रचना।
ReplyDeleteवाह बहुत लाजवाब रचना.
ReplyDeleteरामराम.
बहुत खूब.....लाजवाब रचना.
ReplyDeleteवाह ! क्या बात है ! यह आग हर सीने में जलनी चाहिये जो हर दिमाग को रोशन कर सके ! एक बहुत ही सशक्त रचना !
ReplyDeleteये एक तल्ख़ तलब है हुजूर
ReplyDeleteजो तबियत लगाने से मिटती है
जब तबियत कहीं लग जाए
तो ये खुद-ब-खुद जलती है
बहुत खूब। ये आग ही है जो कुछ कर गुजरने का जज्बा देती है।
वाह रे चिलम की आग !!
ReplyDeleteसुंदर !! बेहतरीन !!
Waah waah kya nshe ki aalam hai mubarak
ReplyDelete.........
आग न हो तो शायद दुनिया के किसी भी शिखर को हासिल नहीं किया जा सकता..आपकी इस कविता को पढ़ दुष्यंत कुमार की कविता की पंक्तियां भी बरबस याद आ रही हैं- मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही..हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिये।। सुंदर प्रस्तुति।
ReplyDeleteतबियत से भी तल्ख तलब लगती है जिसका रूपक आपकी कविता में है.
ReplyDeleteआग तो है पर शायद उसे भड़काने के लिए हवा की कमी सी लगती है।
ReplyDeleteअच्छी रचना।
ReplyDelete