सुनती आई हूँ कि शास्त्र-पाठ की महिमा अनंत है | जिसे यंत्रवत दोहरा-दोहरा कर कंठस्थ किया जा सकता है भले ही वह हृदयस्थ हो या न हो | अपना जो स्मृति-विज्ञान है न , उसके सहारे उत्तम तोता होकर ज्ञानी भी बना जा सकता है | मुझपर भी मेहनत करने वालों ने जी-जान लगाकर बहुत मेहनत किया और बची-खुची मेहनत मैं खुद भी किये जा रही हूँ | पर अबतक मैं न ही तोता बन पायी हूँ और न ज्ञानी ही | फिर भी कोमल-सी रसरी का जो विज्ञान है उसके अनुसार इस सिल पर थोड़ा-बहुत निशान तो पड़ा ही है | जो अक्सर मेरे लिए उलझन बन कर खड़ा हो जाता है | तब बाजार का विज्ञान अपने कई-कई बातों से बताता है कि निशान अच्छे हैं , पल में निशान गायब या कोई निशान नहीं पड़ेगा वगैरह-वगैरह | शायद सबका मतलब एक ही होता हैं कि हर निशान के साथ हमेशा अवसरवादी रुख ही अपनाना चाहिए |
सबों की तरह मुझे भी नैतिक-शास्त्र से दूर का ढोल सुहावना जैसा ही लगाव रहा हैं | जो अपनी पीड़ित मानवता को सुख , शांति , अहिंसा , प्रेम और आपसी भाई-चारे का इतना पाठ पढ़ाता हैं कि उसकी प्रत्यक्ष प्रताड़ना से शायद ही कोई बचा हो | लगता हैं इस धरती पर सबके अवतरण के साथ ही पहली घुट्टी में नैतिकता ही पिलाई जाती है | मुझे भी अपने परिजनों से पूछने की हिम्मत तो नहीं है पर मन-ही-मन अब इसपर सोचने में कोई डर भी तो नहीं है | पर उस डर को याद करके आज भी मैं सहम जाती हूँ जब पहली पाठशाला में उस नैतिकता को डाँट-मार के साथ जीवन में उतारने को कहा जाता था | फिर उसी पाठ के लिए प्रतिदिन दूसरी पाठशाला में भी यंत्रणा-यातना से गुजरना पड़ता था | पर उस भोले-भाले मन को बस इतना ही पता होता था कि उस विषय में किसी भी तरह पास कर जाना है | जब कोई ये कहता था कि तपो , निखरो और सोना बन जाओ तो बरबस हँसी फूट पड़ती थी | सोचती थी कि ये कौन सा पाठ है जो आदमी बनाने के बजाय सोना बना रहा है | ये पाठ पढ़-पढ़ कर कौन कितना सोना बन पाता है वही जाने पर मैं तो अभी तक अपने ऊपर सोने का पानी चढ़ा हुआ ही पाती हूँ | वैसे भी जीवन के बाजार में सबकुछ चल जाता है इसलिए मैं भी अपना सर उठा कर ही चलती जा रही हूँ |
हाँ! तो नैतिक शास्त्रों के सूत्रों को लगातार रटते-रटते बेचारे मष्तिष्क को भी मुझपर दया आ गई | उसने अपनी उदारता दिखा कर कुछ सूत्रों को थोड़ा-बहुत जगह दे दिया और कुछ सूत्रों को सीधे अपने कचरा-कक्ष में फेंक दिया | अब कभी उन सूत्रों की जरुरत पड़ती है तो अपने कचरा-कक्ष में जाने से बेहतर फिर से शास्त्र को पलटना ही समझती हूँ | उन सूत्रों में से कुछ सूत्र तो ऐसे हैं कि मैं उनपर बुरी तरह से अटक जाती हूँ | जैसे पाप से घृणा करो पापी से नहीं | तो कोई समझाए कि पाप से दूर रहने वाला पाप करता हुआ पापी से पवित्र प्रेम कैसे करे ? जानती हूँ कि प्रेम करने का सूत्र भी अति गुप्त होता है पर उसे इतना भी गुप्त नहीं रखा जाना चाहिए कि साधारण जनमानस उससे वंचित रह जाए | अपने महाजनों को कम-से-कम सरल-सुबोध भाषा में सबको समझा कर जाना चाहिए था कि पाप के बीच रहते हुए भी खुद से या दूसरों से एकदम से खुल्लम-खुल्ला प्रेम करने के लिए नैतिकता के रबड़ को कैसे खींचा जाना चाहिए |
मुझे लगता है कि उसी नैतिकता के परिप्रेक्ष्य में कुछ पुण्यात्माओं की उच्च भावनाएं उन पापात्माओं के लिए स्वयं प्रकट होती रहती है | उसे बस सुनने और समझने की जरुरत है | जैसे कि हे! पाप पर पाप करने वाले पापी , आप बेफिक्र होकर अपना पाप करते रहे और हमें बस अपना प्रेमी समझें | प्रेमी समझ कर हमपर बस इतनी कृपा करे कि अपने पाप को हमारा पाप या बाप न बनाये | साथ ही खुल्ल्म-खुल्ला ये साफ़ न करे कि हमें आपके पाप से पवित्र प्रेम है | न ही आप अपने पाप में हमें अपना साझीदार बनाये न ही भागीदार बनाये और न ही हमें पहरेदार बनाये | जिसप्रकार प्रेम का पवित्र सूत्र गुप्त है उसीप्रकार आप गुप्त रूप से अपने पाप-कार्य में पवित्रता से लगे रहे और हमसे बिलकुल निश्चिंत रहे | आप जितना अधिक पाप करते हैं हम आपको उससे अधिक प्रेम करते हैं क्योंकि प्रेम तो सदा से अँधा है | आपके पाप के विरोध में अहिंसात्मक रूप से हम यही कर सकते हैं कि कभी-कभी प्रभात-फेरी लगा आएंगे | या कभी मौन-व्रत धारण कर लेंगे | या कभी-कभी सब मिलकर गंगा के किनारे मोमबत्तियां जला आएंगे | यदि आप कहेंगे तो शांतिपूर्वक सामूहिक उपवास भी रख लेंगे | यदि इससे भी आपके कलेजे को ठंडक नहीं मिलेगी तो खुश-ख़ुशी सामूहिक स्वर्गवास भी कर लेंगे | पर आखिरी सांस तक ये कहना नहीं भूलेंगे कि हे! पापीधिराज , हमारे सरताज , हमारे मुमताज शाहजहाँ की तरह हम आपको प्रेम करते हैं और उस जहाँ में भी करते रहेंगे | बस आप रहम करके हमारे मजार पर अपने पाप का कोई ताजमहल नहीं बनाएंगे | नहीं तो जलन के मारे काला होकर वो ताजमहल कहीं उस पवित्रतम प्रेम से खुद ही इस्तीफा न दे दे |
सबों की तरह मुझे भी नैतिक-शास्त्र से दूर का ढोल सुहावना जैसा ही लगाव रहा हैं | जो अपनी पीड़ित मानवता को सुख , शांति , अहिंसा , प्रेम और आपसी भाई-चारे का इतना पाठ पढ़ाता हैं कि उसकी प्रत्यक्ष प्रताड़ना से शायद ही कोई बचा हो | लगता हैं इस धरती पर सबके अवतरण के साथ ही पहली घुट्टी में नैतिकता ही पिलाई जाती है | मुझे भी अपने परिजनों से पूछने की हिम्मत तो नहीं है पर मन-ही-मन अब इसपर सोचने में कोई डर भी तो नहीं है | पर उस डर को याद करके आज भी मैं सहम जाती हूँ जब पहली पाठशाला में उस नैतिकता को डाँट-मार के साथ जीवन में उतारने को कहा जाता था | फिर उसी पाठ के लिए प्रतिदिन दूसरी पाठशाला में भी यंत्रणा-यातना से गुजरना पड़ता था | पर उस भोले-भाले मन को बस इतना ही पता होता था कि उस विषय में किसी भी तरह पास कर जाना है | जब कोई ये कहता था कि तपो , निखरो और सोना बन जाओ तो बरबस हँसी फूट पड़ती थी | सोचती थी कि ये कौन सा पाठ है जो आदमी बनाने के बजाय सोना बना रहा है | ये पाठ पढ़-पढ़ कर कौन कितना सोना बन पाता है वही जाने पर मैं तो अभी तक अपने ऊपर सोने का पानी चढ़ा हुआ ही पाती हूँ | वैसे भी जीवन के बाजार में सबकुछ चल जाता है इसलिए मैं भी अपना सर उठा कर ही चलती जा रही हूँ |
हाँ! तो नैतिक शास्त्रों के सूत्रों को लगातार रटते-रटते बेचारे मष्तिष्क को भी मुझपर दया आ गई | उसने अपनी उदारता दिखा कर कुछ सूत्रों को थोड़ा-बहुत जगह दे दिया और कुछ सूत्रों को सीधे अपने कचरा-कक्ष में फेंक दिया | अब कभी उन सूत्रों की जरुरत पड़ती है तो अपने कचरा-कक्ष में जाने से बेहतर फिर से शास्त्र को पलटना ही समझती हूँ | उन सूत्रों में से कुछ सूत्र तो ऐसे हैं कि मैं उनपर बुरी तरह से अटक जाती हूँ | जैसे पाप से घृणा करो पापी से नहीं | तो कोई समझाए कि पाप से दूर रहने वाला पाप करता हुआ पापी से पवित्र प्रेम कैसे करे ? जानती हूँ कि प्रेम करने का सूत्र भी अति गुप्त होता है पर उसे इतना भी गुप्त नहीं रखा जाना चाहिए कि साधारण जनमानस उससे वंचित रह जाए | अपने महाजनों को कम-से-कम सरल-सुबोध भाषा में सबको समझा कर जाना चाहिए था कि पाप के बीच रहते हुए भी खुद से या दूसरों से एकदम से खुल्लम-खुल्ला प्रेम करने के लिए नैतिकता के रबड़ को कैसे खींचा जाना चाहिए |
मुझे लगता है कि उसी नैतिकता के परिप्रेक्ष्य में कुछ पुण्यात्माओं की उच्च भावनाएं उन पापात्माओं के लिए स्वयं प्रकट होती रहती है | उसे बस सुनने और समझने की जरुरत है | जैसे कि हे! पाप पर पाप करने वाले पापी , आप बेफिक्र होकर अपना पाप करते रहे और हमें बस अपना प्रेमी समझें | प्रेमी समझ कर हमपर बस इतनी कृपा करे कि अपने पाप को हमारा पाप या बाप न बनाये | साथ ही खुल्ल्म-खुल्ला ये साफ़ न करे कि हमें आपके पाप से पवित्र प्रेम है | न ही आप अपने पाप में हमें अपना साझीदार बनाये न ही भागीदार बनाये और न ही हमें पहरेदार बनाये | जिसप्रकार प्रेम का पवित्र सूत्र गुप्त है उसीप्रकार आप गुप्त रूप से अपने पाप-कार्य में पवित्रता से लगे रहे और हमसे बिलकुल निश्चिंत रहे | आप जितना अधिक पाप करते हैं हम आपको उससे अधिक प्रेम करते हैं क्योंकि प्रेम तो सदा से अँधा है | आपके पाप के विरोध में अहिंसात्मक रूप से हम यही कर सकते हैं कि कभी-कभी प्रभात-फेरी लगा आएंगे | या कभी मौन-व्रत धारण कर लेंगे | या कभी-कभी सब मिलकर गंगा के किनारे मोमबत्तियां जला आएंगे | यदि आप कहेंगे तो शांतिपूर्वक सामूहिक उपवास भी रख लेंगे | यदि इससे भी आपके कलेजे को ठंडक नहीं मिलेगी तो खुश-ख़ुशी सामूहिक स्वर्गवास भी कर लेंगे | पर आखिरी सांस तक ये कहना नहीं भूलेंगे कि हे! पापीधिराज , हमारे सरताज , हमारे मुमताज शाहजहाँ की तरह हम आपको प्रेम करते हैं और उस जहाँ में भी करते रहेंगे | बस आप रहम करके हमारे मजार पर अपने पाप का कोई ताजमहल नहीं बनाएंगे | नहीं तो जलन के मारे काला होकर वो ताजमहल कहीं उस पवित्रतम प्रेम से खुद ही इस्तीफा न दे दे |
जब कोई ये कहता था कि तपो , निखरो और सोना बन जाओ,
ReplyDeleteअर्थात : -- तुम अपनी कुटिलता एवं कदाचरण रूपी मलिनता को परित्याग करते हुवे अपने शील-सदाचरण को परिष्कृत करते जाओ.....
कि पाप से दूर रहने वाला पाप करता हुआ पापी से पवित्र प्रेम कैसे करे ?
>>जैसे ईश्वर करता है.....
>>स्वयं के पाप स्मरण करो तो ये मन पापी के प्रति स्नेहिल हो जाता है.....
इस सब को समझने के लिये समय बहुत महत्वपूर्ण माना गया है । पहले पाप को समझना वर्षों का काम फिर पापी को समजझना फिर उतने ही साल शायद समझ में उस समय जरूर आ जाता होगा जब सामने खड़ा होता होगा काल । आपने तो बहुत समझ चुकी हैं पापी तक पहुँच चुकी हैं हम अभी पाप समझने की कोशिश कर रहे हैं बहुत ही पीछे खड़े हैं :)
ReplyDeleteबढ़िया मुद्दा उठाया है ।
नैतिकता के परिप्रेक्ष्य में कुछ पुण्यात्माओं की उच्च भावनाएं उन पापात्माओं के लिए स्वयं प्रकट होती रहती है | उसे बस सुनने और समझने की जरुरत है |
ReplyDeleteसुंदर प्रस्तुति ...!
RECENT POST आम बस तुम आम हो
स्थितियां वाकई ऐसे बन रही हैं कि आम आदमी को सामूहिक स्वर्गवास ही करना पड़ेगा। ये पापाचारी तब ही सुधर पाएंगे। और हमारे नहीं रहने पर सुधरे या मरें हमें क्या। अच्छा चिन्तन।
ReplyDeleteसार्थक चिंतन,मनन.
ReplyDeleteसार्थक लेख
ReplyDeleteबहुत सुन्दर सार्थक अभिव्यक्ति
ReplyDeleteआभार
राकेश कुमार ( मनसा वाचा कर्मणा)
वैचारिक भाव...... ये हालात पूरे समाज और परिवेश को प्रभावित करते हैं
ReplyDeleteनीति की सारी बातें समय के साथ सार्थक नहीं रह पाती. कुछ तो बेशक ऐसी हैं जिसके बारे में अपने मस्तिष्क पर बस प्रहार करते रहिये और हासिल वही होता है जो आपको हुआ है. कुछ बातें उस समय के धर्मान्धों को भेड़चाल सिखाने के लिए लिखी गयी थी, ऐसा प्रतीत होता है. आखिर में बात अपनी बुद्धि से उचित विवेचना पर ही टिक कर रह जाती है.
ReplyDeleteअति सर्वत्र वर्जयेत् - प्राकृति का नियम है पाप का शमन करना ,पापी को ताड़ना दिये बिना कैसे संभव है. थोथा आदर्शवाद एक बोझा है जिसे ढोना किस काम का !
ReplyDeleteman ko aandolit karti ye pap puny ki gathri bojh banti ja rahi hai aur ham bas ulajh kar rah gaye hai....................
ReplyDeleteजब कोई ये कहता था कि तपो , निखरो और सोना बन जाओ तो बरबस हँसी फूट पड़ती थी | सोचती थी कि ये कौन सा पाठ है जो आदमी बनाने के बजाय सोना बना रहा है | ये पाठ पढ़-पढ़ कर कौन कितना सोना बन पाता है वही जाने पर मैं तो अभी तक अपने ऊपर सोने का पानी चढ़ा हुआ ही पाती हूँ | वैसे भी जीवन के बाजार में सबकुछ चल जाता है इसलिए मैं भी अपना सर उठा कर ही चलती जा रही हूँ |
ReplyDeleteअमृता जी अभिनंदन!
कया अंदाज है अभिव्यक्ति का।
किसी किसी मामले में मुझे लगता है विचारों और अभिव्यक्ति की एक वैश्विक पाठशाला होती है जहा के विद्यार्थी हमशक्ल होते हैं।
हमशक्ल यानी एक विचार यानी हमख्याल..
इसीलिए ऐसा लगता है कि आपको पहले भी कहीं देखा है.. कहते हैं विचार ही सूरत को शक्ल देते हैं..
अच्छा लगा यहां आकर
पाप, पापी नैतिकता की दुहाई ही क्यों ... पाप या पापी को समक्जना किस लिए ... उसको सुधारने के लिए .. जो होना नहीं है ... खुद उसके स्तर पर गिरने के लिए ... पापी का अपना कर्म .. खुस का अपना कर्म .. सामूहिक स्वर्गवास नहीं बल्कि सामूहिक कत्लेआम करना होगा ...
ReplyDeleteवर्तमान परिप्रेक्ष्य में नैतिकता, मानवता, उदारता जैसी बातों पर अवसरवादिता ने कब्ज़ा कर रखा है, सीख़ बेचारी रखीं रह जाती है, मतलब की दुनिया … सार्थक चिन्तन
ReplyDeleteयह कहना भले अच्छा लगता हो कि पापी से नहीं पाप से घृणा करनी चाहिए लेकिन व्यवहार में यह न तो संभव है और न ही सही है। पाप तभी बुरा है जब उसे अंजाम दिया जाए। पाप सिर्फ पापी के जरिए ही अंजाम पाता है। इसलिए अगर आप सिर्फ पाप से घृणा करेंगे और पापी से प्रेम तो पाप की जड़ें कभी खत्म नहीं होगी।
ReplyDeleteहम जिस देश और उसके सामाजिक परिवेश में रहते हैं, वहां वैचारिक और व्यवहारिक रूप से ढ़ेर सारी विविधतायें व असमानताएं हैं. हमें भी बचपन में सिखाया गया कि सीधे बनो, सच्चे बनो, सरल बनो, एक बनो, नेक बनो.…… पर आज हम जिस जंगल मे रहते हैं, वहाँ सीधे पेड़ों को जड़ सटा कर छांटा जा रहा है, सच बोलने वालोँ को झूठ की तलवार से काटा जा रहा है। .......... इसमें कोई शक नहीं कि इस सांसारिक जगत का चाल-चलन नीतिगत आदर्शों से कभी मेल नहीं खाएगा. हर युग में यही होता रहा है और आगे भी होगा …की
ReplyDeleteनिजी तौर पर मेरा कहना है कि इस पोस्ट की पहली टिप्पणी में सब कुछ समाहित है। …
सटीक बात कही आपने, शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम.
आपने जो लिखा है वह शास्त्र सम्मत नैतिकता की उपनिषदीय व्याख्या की तरह से है. नैतिकता का रूपरंग कभी एक सा नहीं रहता. यह भी देश और काल के सापेक्ष है. इसका कारण मैं समझता हूँ यह है कि मनुष्य की बनावट में पैदाइशी दोष है. वह प्रकृति की सबसे अ(ति)प्राकृतिक रचना है जिसे नियमों में बँधना पसंद नहीं. मजबूरी में ही वह बँधता है. सबसे बढ़ कर अनुभव अपना-अपना और वास्तव अपना-अपना.
ReplyDeleteसुंदर लेखन.
सामूहिक स्वर्गवास ही क्या समस्याओं का हल होगा ? हम तो मर कर चले जायेंगे मगर आने वाली पीढ़ी का क्या होगा ???
ReplyDeleteबहुत अच्छा लगा पढ़कर..सुंदर
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