एक मैं हूँ कि फूल बिछाती शैया पर
तब भी नींद नहीं आती है रात भर
जैसे -जैसे सब फूल कुम्हलाते हैं
तन-मन में काँटों-सा गड़ जाते हैं
भावों में बस खुसुर-फुसुर सी होती है
प्राण की कोकिल सिहर कर रोती है
इस नत नयन का है नीर भी वही
पल-पल की पीड़क पीड़ा भी अनकही
तिल-तिल कर मेरा उपल गलता है
मंदिम-मंदिम जब ये दीप जलता है
लौ मचल कर और भी अकुलाती है
विरव वेदना पर ही लवण लगाती है
जिसकी छरछराहट से फीकी ज्वाला है
उस जलन को असहन तक मैंने पाला है
पाला तो निज कोमल कल्पनाओं को भी
और पाला सुन्दर सुखकर सपनों को भी
पर कल्पनाओं को मैं आस दूँ कहाँ से ?
और सपनों को मैं मधुमास दूँ कहाँ से ?
हर रात मेरा ये रनिवास ही उजड़ता है
पर पूजित पाषाण को अंतर न पड़ता है
ऊपर से पूजित पाषाण मुझपर हँसता है
मेरे समर्पण को ही पागलपन कहता है
क्या पूजन-आराधन की यही नियति है
या मारी हुई मेरी ही अपनी ये मति है ?
ये मारी हुई मति भी तो बड़ी न्यारी है
उसको तो ये चरम वेदना ही प्यारी है
तब तो मैं नित फूल बिछाती हूँ शैया पर
और अपनी नींद भी गँवाती हूँ रात भर .
तब भी नींद नहीं आती है रात भर
जैसे -जैसे सब फूल कुम्हलाते हैं
तन-मन में काँटों-सा गड़ जाते हैं
भावों में बस खुसुर-फुसुर सी होती है
प्राण की कोकिल सिहर कर रोती है
इस नत नयन का है नीर भी वही
पल-पल की पीड़क पीड़ा भी अनकही
तिल-तिल कर मेरा उपल गलता है
मंदिम-मंदिम जब ये दीप जलता है
लौ मचल कर और भी अकुलाती है
विरव वेदना पर ही लवण लगाती है
जिसकी छरछराहट से फीकी ज्वाला है
उस जलन को असहन तक मैंने पाला है
पाला तो निज कोमल कल्पनाओं को भी
और पाला सुन्दर सुखकर सपनों को भी
पर कल्पनाओं को मैं आस दूँ कहाँ से ?
और सपनों को मैं मधुमास दूँ कहाँ से ?
हर रात मेरा ये रनिवास ही उजड़ता है
पर पूजित पाषाण को अंतर न पड़ता है
ऊपर से पूजित पाषाण मुझपर हँसता है
मेरे समर्पण को ही पागलपन कहता है
क्या पूजन-आराधन की यही नियति है
या मारी हुई मेरी ही अपनी ये मति है ?
ये मारी हुई मति भी तो बड़ी न्यारी है
उसको तो ये चरम वेदना ही प्यारी है
तब तो मैं नित फूल बिछाती हूँ शैया पर
और अपनी नींद भी गँवाती हूँ रात भर .
यही तो मन की पीड़ा है...
ReplyDeleteबहुत कोमल अभिव्यक्ति....
अनु
वाह बहुत सुन्दर
ReplyDeleteमन को छूती हुई
संवेदनाओं को व्यक्त करती कविता---
उत्कृष्ट प्रस्तुति
बधाई ----
आग्रह है---
नीम कड़वी ही भली-----
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 22-05-2014 को चर्चा मंच पर अच्छे दिन { चर्चा - 1620 } में दिया गया है
ReplyDeleteआभार
मति-मति की माया, मति-मति का फेर...............
ReplyDeleteडासत ही गई बीति निसा सब ,कबहुँ न नाथ नींद भरि सोयो !
ReplyDeleteगहन भाव ..... पीड़ा की अनुभूति ऐसे प्रश्न ही उठाती है ....
ReplyDeleteअंतर्मन को छूती हुई रचना
ReplyDeleteइस कविता की केंद्रीय जिज्ञासा से स्वयं भी गुजरता हूँ और उससे उपजे कई विचार समवेत स्वर से धृतलक्ष्य हो चलते रहने को कहते हैं.
ReplyDeleteऊपर से पूजित पाषाण मुझपर हँसता है
ReplyDeleteमेरे समर्पण को ही पागलपन कहता है
क्या पूजन-आराधन की यही नियति है
या मारी हुई मेरी ही अपनी ये मति है ?
हर कोमल शुद्ध ह्रदय की चाहना तो यही होती है ... पर जो कवल पाषाण रह जाता है वाही हँसता है ... पर जहां पाषाण पसीजने के हालात में आ जाता है वहां परमात्मा हो जाता है ...
ये मारी हुई मति भी तो बड़ी न्यारी है
ReplyDeleteउसको तो ये चरम वेदना ही प्यारी है
जिस दिन यह मारी हुई मति नजर भी नहीं आयेगी उसी दिन सारी वेदना मिट जाएगी..
bhavpurn rachna ..........
ReplyDeleteये मारी हुई मति भी तो बड़ी न्यारी है
ReplyDeleteउसको तो ये चरम वेदना ही प्यारी है
तब तो मैं नित फूल बिछाती हूँ शैया पर
और अपनी नींद भी गँवाती हूँ रात भर .
आह।
पाषाण कहां कुछ है, जो है मानव मानस है। उसी से हरा-भरा निकलता है, वहीं से दुखभाव बरसता है। लेकिन आप दुखभाव से सन्तप्त होकर भी शैया को पुष्पों से सजा रहे हैं, यह आपकी जिजीविषा को प्रकट करता है।
ReplyDeleteऊँचे स्वर में कहा गया मौन जैसा आत्मकथन अपना छंद साथ लेकर आया है.
ReplyDeleteतब तो मैं नित फूल बिछाती हूँ शैया पर
और अपनी नींद भी गँवाती हूँ रात भर
बहुत अच्छा लगा.
गहन भाव ...मन को छूती हुई रचना...
ReplyDeleteसुन्दर कथ्य...
ReplyDeleteसुख दुःख दोनों मेरे अपने, मैं ही फूल बिछाती, मैं ही अपनी नींद गँवाती …सचमुच अद्भुत
ReplyDeleteफूल बिछाती , नींद गंवाती , जानकर ही क्योंकि इसकी वेदना प्रिय जो है !
ReplyDeleteविरह की सुन्दर कविता !
Kuchh logo ko vedna main bhi ras milta hai.
ReplyDeleteवाह विरह -वेदना की बहुत सुन्दर कविता .....
ReplyDeleteमन को छू जाती पंक्तियाँ.... बड़ी खूबसूरती से विरह वेदना को प्रस्तुत किया गया है.
ReplyDeleteबहुत सुंदर अभिव्यक्ति सुंदर रचना ।
ReplyDeleteओह..! कितनी सुन्दर कविता है दीदी !
ReplyDeleteपरिस्थितियाँ चाहे जैसे हो जीना तो पड़ता ही है फिर चाहे शैया पर फूल बने कांटे या पथ बन जाए अग्नि पथ चलना तो पड़ता ही है...
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