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Wednesday, May 21, 2014

फूल बिछाती शैया पर ....

                   एक मैं हूँ कि फूल बिछाती शैया पर
                    तब भी नींद नहीं आती है रात भर
                     जैसे -जैसे सब फूल कुम्हलाते हैं
                     तन-मन में काँटों-सा गड़ जाते हैं

                   भावों में बस खुसुर-फुसुर सी होती है
                    प्राण की कोकिल सिहर कर रोती है
                     इस नत नयन का है नीर भी वही
                  पल-पल की पीड़क पीड़ा भी अनकही

                    तिल-तिल कर मेरा उपल गलता है
                   मंदिम-मंदिम जब ये दीप जलता है
                   लौ मचल कर और भी अकुलाती है
                   विरव वेदना पर ही लवण लगाती है

                जिसकी छरछराहट से फीकी ज्वाला है
               उस जलन को असहन तक मैंने पाला है
               पाला तो निज कोमल कल्पनाओं को भी
               और पाला सुन्दर सुखकर सपनों को भी

                  पर कल्पनाओं को मैं आस दूँ कहाँ से ?
                 और सपनों को मैं मधुमास दूँ कहाँ से ?
                  हर रात मेरा ये रनिवास ही उजड़ता है
                 पर पूजित पाषाण को अंतर न पड़ता है

                ऊपर से पूजित पाषाण मुझपर हँसता है
                 मेरे समर्पण को ही पागलपन कहता है
                क्या पूजन-आराधन की यही नियति है
                 या मारी हुई मेरी ही अपनी ये मति है ?

                  ये मारी हुई मति भी तो बड़ी न्यारी है
                  उसको तो ये चरम वेदना ही प्यारी है
                तब तो मैं नित फूल बिछाती हूँ शैया पर
                 और अपनी नींद भी गँवाती हूँ रात भर .

24 comments:

  1. यही तो मन की पीड़ा है...
    बहुत कोमल अभिव्यक्ति....

    अनु

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  2. वाह बहुत सुन्दर
    मन को छूती हुई
    संवेदनाओं को व्यक्त करती कविता---
    उत्कृष्ट प्रस्तुति
    बधाई ----

    आग्रह है---
    नीम कड़वी ही भली-----

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  3. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 22-05-2014 को चर्चा मंच पर अच्छे दिन { चर्चा - 1620 } में दिया गया है
    आभार

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  4. मति-मति की माया, मति-मति का फेर...............

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  5. डासत ही गई बीति निसा सब ,कबहुँ न नाथ नींद भरि सोयो !

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  6. गहन भाव ..... पीड़ा की अनुभूति ऐसे प्रश्न ही उठाती है ....

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  7. अंतर्मन को छूती हुई रचना

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  8. इस कविता की केंद्रीय जिज्ञासा से स्वयं भी गुजरता हूँ और उससे उपजे कई विचार समवेत स्वर से धृतलक्ष्य हो चलते रहने को कहते हैं.

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  9. ऊपर से पूजित पाषाण मुझपर हँसता है
    मेरे समर्पण को ही पागलपन कहता है
    क्या पूजन-आराधन की यही नियति है
    या मारी हुई मेरी ही अपनी ये मति है ?

    हर कोमल शुद्ध ह्रदय की चाहना तो यही होती है ... पर जो कवल पाषाण रह जाता है वाही हँसता है ... पर जहां पाषाण पसीजने के हालात में आ जाता है वहां परमात्मा हो जाता है ...

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  10. ये मारी हुई मति भी तो बड़ी न्यारी है
    उसको तो ये चरम वेदना ही प्यारी है

    जिस दिन यह मारी हुई मति नजर भी नहीं आयेगी उसी दिन सारी वेदना मिट जाएगी..

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  11. ये मारी हुई मति भी तो बड़ी न्यारी है
    उसको तो ये चरम वेदना ही प्यारी है
    तब तो मैं नित फूल बिछाती हूँ शैया पर
    और अपनी नींद भी गँवाती हूँ रात भर .

    आह।

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  12. पाषाण कहां कुछ है, जो है मानव मानस है। उसी से हरा-भरा निकलता है, वहीं से दुखभाव बरसता है। लेकिन आप दुखभाव से सन्‍तप्‍त होकर भी शैया को पुष्‍पों से सजा रहे हैं, यह आपकी जिजीविषा को प्रकट करता है।

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  13. ऊँचे स्वर में कहा गया मौन जैसा आत्मकथन अपना छंद साथ लेकर आया है.
    तब तो मैं नित फूल बिछाती हूँ शैया पर
    और अपनी नींद भी गँवाती हूँ रात भर
    बहुत अच्छा लगा.

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  14. गहन भाव ...मन को छूती हुई रचना...

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  15. सुन्दर कथ्य...

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  16. सुख दुःख दोनों मेरे अपने, मैं ही फूल बिछाती, मैं ही अपनी नींद गँवाती …सचमुच अद्भुत

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  17. फूल बिछाती , नींद गंवाती , जानकर ही क्योंकि इसकी वेदना प्रिय जो है !
    विरह की सुन्दर कविता !

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  18. Kuchh logo ko vedna main bhi ras milta hai.

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  19. वाह विरह -वेदना की बहुत सुन्दर कविता .....

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  20. मन को छू जाती पंक्तियाँ.... बड़ी खूबसूरती से विरह वेदना को प्रस्तुत किया गया है.

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  21. बहुत सुंदर अभिव्यक्ति सुंदर रचना ।

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  22. ओह..! कितनी सुन्दर कविता है दीदी !

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  23. परिस्थितियाँ चाहे जैसे हो जीना तो पड़ता ही है फिर चाहे शैया पर फूल बने कांटे या पथ बन जाए अग्नि पथ चलना तो पड़ता ही है...

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