क्यों ?
सबसे कमजोर क्षणों में तुम्हारी ही
सबसे अधिक आवश्यकता होती है
और आलिंगी सी तू फलवती होकर
चूकी कामनाओं में भी सरसता बोती है.....
क्यों ?
जब मैं व्यर्थ ही बँट-बँट कर
भरे संसार में अकेली पड़ जाती हूँ
और संकोच छोड़कर तुमसे मिलते ही
क्षण में ही उत्सुक हो सबसे जुड़ जाती हूँ....
क्यों ?
लगातार लुटी-पिटी सी होकर भी
मुझसे तेरी वो शक्ति नहीं खोती है
और चैन से तुम्हारी गोद में आकर भी
ये जो चेतना है वो कभी नहीं सोती है.....
क्यों ?
इन सजल भार से बुझी-बुझी आँखों में
रह-रहकर सौ-सौ दीये जल जाते हैं
और तेरे तप्त भावों से पिघलना सीख कर
मेरे मित्ति-पाश टूट-टूटकर गल जाते हैं.....
क्यों ?
तेरे मशाल की लौ ऐसे लहका कर भी
केवल अपनी शीतलता में ही भिंगोती है
और इस अंतर की विकल घुमड़न को
अपने अमृत-कण की मालाओं में पिरोती है.....
क्यों ?
अपने ऊपर लम्बी बहसों की श्रृंखला चलाकर
सही अर्थों में सबको संस्कारित करना चाहती हो
और खुद परिधि से बाहर हो घृत-अगन में
प्राणपण से सबको परिष्कृत करना चाहती हो.....
क्यों ?
तुम नितान्त निष्प्रयोज्य सी होकर भी
सबकी सोयी संवेदनाओं को जगा देती हो
और अपनी जादूभरी चमत्कारी छुअन से
हिलकोर कर सबको ऐसे उमगा देती हो.....
फिर क्यों न तेरा मान हो ?
फिर क्यों न तुझपर अभिमान हो ?
फिर क्यों न तेरा गुणगान हो ?
मेरे हर क्यों से निकलती कविता !
मेरे हर क्यों से बहती कविता !
मेरे हर क्यों से सिमटती कविता !
सच है इस ब्रम्हांड की तुम्ही तो धड़कन हो
इसलिए तुमसे बँधकर मैं भी धड़कना चाहती हूँ
साथ ही तुमसे अपने हर क्यों से क्यों तक
निज प्रियता की मांग करते रहना चाहती हूँ .
सबसे कमजोर क्षणों में तुम्हारी ही
सबसे अधिक आवश्यकता होती है
और आलिंगी सी तू फलवती होकर
चूकी कामनाओं में भी सरसता बोती है.....
क्यों ?
जब मैं व्यर्थ ही बँट-बँट कर
भरे संसार में अकेली पड़ जाती हूँ
और संकोच छोड़कर तुमसे मिलते ही
क्षण में ही उत्सुक हो सबसे जुड़ जाती हूँ....
क्यों ?
लगातार लुटी-पिटी सी होकर भी
मुझसे तेरी वो शक्ति नहीं खोती है
और चैन से तुम्हारी गोद में आकर भी
ये जो चेतना है वो कभी नहीं सोती है.....
क्यों ?
इन सजल भार से बुझी-बुझी आँखों में
रह-रहकर सौ-सौ दीये जल जाते हैं
और तेरे तप्त भावों से पिघलना सीख कर
मेरे मित्ति-पाश टूट-टूटकर गल जाते हैं.....
क्यों ?
तेरे मशाल की लौ ऐसे लहका कर भी
केवल अपनी शीतलता में ही भिंगोती है
और इस अंतर की विकल घुमड़न को
अपने अमृत-कण की मालाओं में पिरोती है.....
क्यों ?
अपने ऊपर लम्बी बहसों की श्रृंखला चलाकर
सही अर्थों में सबको संस्कारित करना चाहती हो
और खुद परिधि से बाहर हो घृत-अगन में
प्राणपण से सबको परिष्कृत करना चाहती हो.....
क्यों ?
तुम नितान्त निष्प्रयोज्य सी होकर भी
सबकी सोयी संवेदनाओं को जगा देती हो
और अपनी जादूभरी चमत्कारी छुअन से
हिलकोर कर सबको ऐसे उमगा देती हो.....
फिर क्यों न तेरा मान हो ?
फिर क्यों न तुझपर अभिमान हो ?
फिर क्यों न तेरा गुणगान हो ?
मेरे हर क्यों से निकलती कविता !
मेरे हर क्यों से बहती कविता !
मेरे हर क्यों से सिमटती कविता !
सच है इस ब्रम्हांड की तुम्ही तो धड़कन हो
इसलिए तुमसे बँधकर मैं भी धड़कना चाहती हूँ
साथ ही तुमसे अपने हर क्यों से क्यों तक
निज प्रियता की मांग करते रहना चाहती हूँ .
बहुत सुंदर भाव ।
ReplyDeleteक्यों से शुरु होकर
क्यों पर पूरा कर दिया
आधा भी लगा कहीं
कहीं पूरा का पूरा
यूँ ही पूरा कर दिया :)
http://bulletinofblog.blogspot.in/2014/05/blog-post_28.html
ReplyDeleteसुन्दर भावाभिव्यक्ति...
ReplyDeleteसच है इस ब्रम्हांड की तुम्ही तो धड़कन हो
ReplyDeleteइसलिए तुमसे बँधकर मैं भी धड़कना चाहती हूँ
साथ ही तुमसे अपने हर क्यों से क्यों तक
निज प्रियता की मांग करते रहना चाहती हूँ .
..............हमेशा की तरह लाजवाब
खुबसूरत अभिवयक्ति.....
ReplyDeleteजबरदस्त...बहुत खूब...
ReplyDeleteबहुत सुंदर अमृता जी...कविता से मुलाकात होने पर नये नये भाव उमड़ते ही चले आते हैं..
ReplyDeleteबहुत सुन्दर भावाभिव्यक्ति...अमृता जी...
ReplyDeleteसच। .... इस क्यों से क्यों तक की यात्रा में क्या नहीं है.. यही क्यों जब हमारे एकाकी ह्रदय में मजबूती से खड़ा होता है तो सारे सवालों का जवाब मिल जाता है। .... इस क्यों से कोई कविता सिमटती नहीं है, बल्कि अनंत आकाशगंगाओं को पार कर जाती है। .... ये भी ठीक वैसा ही है…
ReplyDeletekya soch hai aap nice
ReplyDeleteकितने ही प्रश्नों के उत्तर की चाह..... बेजोड़ रचना
ReplyDeleteमैं अमृता तन्मय को कठिन भावों की सहज अभिव्यक्ति वाली कवयित्री के रूप में पहचानता हूँ. यह कविता मेरी धारणा को पुनः स्थापित करती है. इन पंक्तियों को मैंने बखूबी रिसीव किया है-
ReplyDeleteलगातार लुटी-पिटी सी होकर भी
मुझसे तेरी वो शक्ति नहीं खोती है
और चैन से तुम्हारी गोद में आकर भी
ये जो चेतना है वो कभी नहीं सोती है.....
इस क्यों का उत्तर गूढ़ है और एक तरीके से निजी भी. जब अनुभव मन में ज्या-वक्रीय प्रभाव उत्पन्न करते तो हैं तो फिर यही है जो श्रृंगों और गर्तों के बीच दो बिन्दुओं को निरंतर बांधे रखती है. सुन्दर कविता.
ReplyDeleteसबसे कमजोर क्षणों में तुम्हारी ही
ReplyDeleteसबसे अधिक आवश्यकता होती है
:)
लगातार लुटी-पिटी सी होकर भी
मुझसे तेरी वो शक्ति नहीं खोती है
और चैन से तुम्हारी गोद में आकर भी
ये जो चेतना है वो कभी नहीं सोती है.....
:)
sundar..as usual !! :)
काफी दिनों बाद आना हुआ इसके लिए माफ़ी चाहूँगा । बहुत बढ़िया लगी पोस्ट |
ReplyDeleteपहली बात, इतने एकल अन्दरूनी विचार घूर्णन को कविता में बांधने की बधाई। दूसरी बात यह कविता बड़े प्रेम से और सम्मान से पढ़ी जानी चाहिए, ये इसलिए कहा क्योंकि ज्यादातर टिप्पणियां देखकर लगा कि उन्होंने कविता कम पढ़ी या ढंग से पढ़ी ही नहीं अौर टिप्पणी देने की जल्दी में बहुत सुन्दर, लाजवाब कहकर चलते बने। तीसरी बात, इस कविता के प्रत्येक अन्तरे में व्यक्तिवाद के अन्दर संसार का गूढ़ दर्शन समाया हुआ है, जिसकी मीमांसा करने के लिए कई बार, कई सन्दर्भों में लेखिका के मनस्थल पर खड़े होकर इस कविता का आत्मपाठ करना पढ़ेगा। मैं इस कविता के यहां प्रकाशन के चार दिन बाद इसलिए टिप्पणी कर पाया हूं क्योंकि आज मैंने इसे दोबारा उस एकान्तिक भाव से पढ़ा जिस एकान्तिक भाव में इसे कवयित्री ने रचा है। विविध श्रेष्ठ भावजगत का सृजन करते हुए सृजित प्रेम अनुभव की पराकाष्ठा कराती कविता। कहने को बहुत कुछ है। मैं प्रारम्भ में इसे आत्मसात कर अपनी टिप्पणी में केवल (नि:शब्द) कहना चाहता था।
ReplyDeleteVery nice
ReplyDeleteप्रेम बाह्य हो कर भी अन्तरंग है ... एकाकी है और मुखर भी ...
ReplyDeleteक्योंकि ये परें है इसलिए इसकी अभिव्यक्ति भी है और चाहत भी ...
यही वह अभिव्यक्ति है जो व्यक्ति को सबसे जोड़ कर भी अपने आप में अक्षुण्ण रहती है .
ReplyDeleteबहुत सुन्दर भाव अमृता जी
ReplyDeleteकई बार पढ़ी यह कविता कुछ-कुछ समझ में भी आया। उसके आधार पर यह कह सकती हूँ कि शायद इस क्यूँ का कोई जवाब नहीं या शायद यह कहना ज्यादा ठीक होगा कि जवाब होकर भी नहीं है क्यूंकि यह एक निजी अनुभव है जो कहीं न कहीं एक सा होकर भी अलग होता है। या ऐसा भी कह सकते है कि यही वो अभिव्यक्ति है को अपने आप में हर पल सब कुछ बिखेर कर भी अपने आप को समेटती है। पता नहीं मैं जो कहना चाहती वो आप समझ भी पा रही है या नहीं :) वैसे यह भी होसकता है कि मुझे ही आपकी लिखी बात ठीक-ठीक समझ में ना आयी हो। :)
ReplyDeleteमेरी चिर संगिनी है कविता
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