प्रगति या पतन के
तय मानको के बीच
याद रखना
जरूरी तो नहीं है
उन सूखी पत्तियों को
जिन्हें कभी हवा
अपनी
जरा सी फूंक से
उड़ा देती है
इधर से उधर
या खेल-खेल में
लहका कर
लगा देती है
जमीन पर
राख का ढेर....
भूलना ही सही है
उन सूखी पत्तियों की
खड़खड़ाहट को
जो एकांत के अकेलेपन में
घोलती रहती है
और भी उदासीनता
ओर-छोर तक
फैलता-गहराता धुंधलापन
नहीं चाल पाता है
अपनी चलनी से
जीवन के अंतर्विरोधों में
भागते-दौड़ते हुए
मूल्याँकन की
विसंगतियों को..
याद रखना
जरूरी तो नहीं है
उन हरे पत्तों को भी
जो श्रमशोषण , संघर्ष
या अन्याय के
विघटनकारी
ताकतों के बीच भी
जीवन में मौजूद
उस अंध व्यवस्थाओं के
केंद्र से हरसंभव
समझौता करने में
नाकाम रहते हैं....
भूलना ही सही है
एक-दूसरे को
दोस्त-दुश्मन बनाते हुए
धक्का-मुक्की करते हुए
उन हरे पत्तों को
जो काफी हद तक
टहनियों को
मजबूती से
पकड़ने के बाद भी
डाहवश
झाड़ दिए जाते हैं
सर्वहारा की तरह
और समय ठूंठ सा
अपनी गर्दन
हिलाने के सिवा
कुछ भी नहीं
कह पाता है .
तय मानको के बीच
याद रखना
जरूरी तो नहीं है
उन सूखी पत्तियों को
जिन्हें कभी हवा
अपनी
जरा सी फूंक से
उड़ा देती है
इधर से उधर
या खेल-खेल में
लहका कर
लगा देती है
जमीन पर
राख का ढेर....
भूलना ही सही है
उन सूखी पत्तियों की
खड़खड़ाहट को
जो एकांत के अकेलेपन में
घोलती रहती है
और भी उदासीनता
ओर-छोर तक
फैलता-गहराता धुंधलापन
नहीं चाल पाता है
अपनी चलनी से
जीवन के अंतर्विरोधों में
भागते-दौड़ते हुए
मूल्याँकन की
विसंगतियों को..
याद रखना
जरूरी तो नहीं है
उन हरे पत्तों को भी
जो श्रमशोषण , संघर्ष
या अन्याय के
विघटनकारी
ताकतों के बीच भी
जीवन में मौजूद
उस अंध व्यवस्थाओं के
केंद्र से हरसंभव
समझौता करने में
नाकाम रहते हैं....
भूलना ही सही है
एक-दूसरे को
दोस्त-दुश्मन बनाते हुए
धक्का-मुक्की करते हुए
उन हरे पत्तों को
जो काफी हद तक
टहनियों को
मजबूती से
पकड़ने के बाद भी
डाहवश
झाड़ दिए जाते हैं
सर्वहारा की तरह
और समय ठूंठ सा
अपनी गर्दन
हिलाने के सिवा
कुछ भी नहीं
कह पाता है .
कभी हरीभरी रही ऐसी सूखी पत्तियों को कौन याद रखेगा, जब उनकी उत्तरवर्ती हरी पत्तियां भी किसी की याद में आने के लिए बहुत संघर्ष कर रही हों। लेकिन संवेदना के गले से तो हरी और सूखी दोनों पत्तियां हमेशा लिपटी रहती हैं। संवेदना दोनों को समुचित सम्मान भी देती है।
ReplyDeleteआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 05-06-2014 को चर्चा मंच पर चर्चा - 1634 में दिया गया है
ReplyDeleteआभार
प्रकृति में ऐसा कुछ भी नहीं जो किसी के अधीन न हो, जो किसी परिस्थिति में परवश न दिखे - समय भी - जैसा कि आपने लिखा है गर्दन हिला कर खामोशी ओढ़ लेता है. मुझे तो इस कविता में यह दर्शन दिखा.
ReplyDeleteप्रकृति में हर चीज़ का महत्व है उसका समय ,भूमिका निश्चित है ,उसके बाद दूसरे की बारी !
ReplyDeleteवर्तमान ही सत्य है उसी के आनन्द को सर्वोपरि माना जाता है लेकिन हम सभी संघर्ष (चाहे वास्तव में औरों के मुकाबले हमें कुछ खास करना न पड़े तब भी ) का रोना लिए अतीत और भविष्य जिसे अतीत हो जाना है से लिपटे रहते हैं समय जैसी निर्लिप्तता आ ही नहीं पाती
ReplyDeleteकिस और जा रहे हैं हमें समझना ही होगा ...
ReplyDeleteझाड़ दिए जाते हैं
ReplyDeleteसर्वहारा की तरह
और समय ठूंठ सा
अपनी गर्दन
हिलाने के सिवा
कुछ भी नहीं
कह पाता है
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
कभी लिखा था मैंने यही टिप्पणी सही !
ReplyDeleteवसंत में जब गिर रही हों घनी शाखें टपाटप , वृक्ष क्या सूखी पत्तियों का सोग मनाता होगा !
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDeleteशायद सही ये भी है कि हम कुछ भी न सहेजें, मगर व्यवहार के स्तर पर प्रकृति हमसे कुछ और करवा लेती है.... ये भी कि हम अपने मानकों को तोड़ते रहते हैं न चाहते हुए भी.......
ReplyDeleteऔर समय ठूंठ सा
ReplyDeleteअपनी गर्दन
हिलाने के सिवा
कुछ भी नहीं
कह पाता है ...बहुत खूब..
bahut sundar.............gahre bhav vaali sundar rachna............
ReplyDeleteबहुत ही सार्थक प्रस्तुति...
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति-
ReplyDeleteबहुत बहुत शुभकामनायें आदरणीया-
कसक की तरल अभिव्यक्ति
ReplyDeleteसमय की अंधी दौड़ में भागनेवाले बहुत आसानी से इन सूखे ज़र्द पत्तों को विस्मृति की राह पर आगे बढ़ा के चल देते हैं. पर समय को आत्मसात करने वाले भी तो हैं जो यह कविता जन्म लेती है.
ReplyDeleteबढ़िया... अच्छा लगा पढ़कर
ReplyDeleteबहुत ही सशक्त रचना.
ReplyDeleteरामराम.
समय शायद जो सब कुछ करवाता है ... और प्राकृति समेटने में लगी रहती है समयानुसार कर चीज को सार्थक करती ...
ReplyDeleteऔर समय ठूंठ सा
ReplyDeleteअपनी गर्दन
हिलाने के सिवा
कुछ भी नहीं
कह पाता है .
सार्थकता लिये सशक्त भाव समेटे अनुपम उत्कृष्ट प्रस्तुति
बहुत गहरे भाव, सुंदर रचना. प्रकृति में हर चीज़ का अपना महत्व है, उसका भी जिसका नामों निशान मिट गया है. कुछ को लोग याद रखते हैं और कुछ को भूल जाना बेहतर समझते है. पत्ते सूखे हों या हरे. जब शाख से टूटे होंगे तो अपने पीछे जख्म के निशान अवश्य छोड़ गए होंगे.
ReplyDeleteकुछ जज़्बातों को भूलकर ही चैन आता है..सुंदर रचना।।।
ReplyDeleteजीवन का सफर ही ऐसा है जो बिछड़ गया वो बिछड़ गया किसी के बिछड़ जाने से ज़िंदगी नहीं रुकती न इंसान कि और ना ही पेड़ों की...हाँ मगर जाता हुआ जीवन वक्त को मुंह तंक्ता रह जाता है और वक्त उस जीवन पर ठूंठ सा
ReplyDeleteअपनी गर्दन
हिलाने के सिवा
कुछ भी नहीं
कह पाता है .
अमृता जी आप निशब्द कर देती हैं कई बार | कोई शब्द नहीं हैं मेरे पास जीवन का तमाम फलसफा है इन पंक्तियों में आपकी इजाज़त लिए बिना ही इसे Facebook पर शेयर कर रहा हूँ |
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