अभी तो और भी है सोपान
जिसपर अपना पाँव रखना है
रोको न मुझे ! मुझे तो अब
चाँद-सूरज को भी चखना है
बेठौर बादलों को फुसलाकर
कांच का सुंदर-सा एक घर दूँ
ख़रमस्ती में खर-भर करके
बिजलियों को मुट्ठी में भर लूँ
चकचौंहाँ तारों पर यूँ जाकर
तनिक देर तक सुस्ता आऊँ
रोशनी को नर्म रूई बनाकर
मैं आहिस्ता-आहिस्ता उड़ाऊँ
समय को यूँ सटका दिखाकर
कहूँ, उठक-बैठक करते रहो
हवाओं को डाँट कर कहूँ कि
कान पकड़ कर बस बैठे रहो
मौसम से सब शैतानी छीनके
पल में नींद- चैन को उड़ा दूँ
सावन को भी बुद्धू-सुद्धू बनाकर
झट से सारा पानी मैं चुरा लूँ
सब दिशाओं को समेट कर
एक छोर से मैं ऐसे टाँक दूँ
क्षितिज को भी खींच-खींचकर
मैं आकाश को जैसे ढाँक दूँ
शायद मेरे ऐसा-वैसा करने से
कुछ गाँठ ही सही खुल जाए
और ये गीत सुरीला बन कर
सबके ओंठों में ही घुल जाए
जिसपर अपना पाँव रखना है
रोको न मुझे ! मुझे तो अब
चाँद-सूरज को भी चखना है
बेठौर बादलों को फुसलाकर
कांच का सुंदर-सा एक घर दूँ
ख़रमस्ती में खर-भर करके
बिजलियों को मुट्ठी में भर लूँ
चकचौंहाँ तारों पर यूँ जाकर
तनिक देर तक सुस्ता आऊँ
रोशनी को नर्म रूई बनाकर
मैं आहिस्ता-आहिस्ता उड़ाऊँ
समय को यूँ सटका दिखाकर
कहूँ, उठक-बैठक करते रहो
हवाओं को डाँट कर कहूँ कि
कान पकड़ कर बस बैठे रहो
मौसम से सब शैतानी छीनके
पल में नींद- चैन को उड़ा दूँ
सावन को भी बुद्धू-सुद्धू बनाकर
झट से सारा पानी मैं चुरा लूँ
सब दिशाओं को समेट कर
एक छोर से मैं ऐसे टाँक दूँ
क्षितिज को भी खींच-खींचकर
मैं आकाश को जैसे ढाँक दूँ
शायद मेरे ऐसा-वैसा करने से
कुछ गाँठ ही सही खुल जाए
और ये गीत सुरीला बन कर
सबके ओंठों में ही घुल जाए
संगीत, लय और अनुठी कल्पना का मिलन यह आपकी कविता। पाठक भी आपकी कविता पर संवार होकर एक नई दुनिया में पहुंच जाता है।
ReplyDeleteसुंदर रचना ।
ReplyDeleteसब दिशाओं को समेट कर
ReplyDeleteएक छोर से मैं ऐसे टाँक दूँ
क्षितिज को भी खींच-खींचकर
मैं आकाश को जैसे ढाँक दूँ
शायद मेरे ऐसा-वैसा करने से
कुछ गाँठ ही सही खुल जाए
और ये गीत सुरीला बन कर
सबके ओंठों में ही घुल जाए
#Poetry of Amritaji encompasses in itself girlish fickleness, romanticism, romantic philosophy, newage aspirations and all physical and metaphysical elements... when you read one poem, heart says one more, once more!
बहुत ही सुन्दर और अनूठी कल्पना लिए ्सार्थक रचना..
ReplyDeleteअद्भुत कल्पना...सुन्दर शब्द विन्यास...आनंद आ गया...
ReplyDeleteआपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (27.06.2014) को "प्यार के रूप " (चर्चा अंक-1656)" पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें और अपने विचारों से अवगत करायें, वहाँ पर आपका स्वागत है, धन्यबाद।
ReplyDeleteबेहतरीन प्रस्तुति
ReplyDeleteवाह ! इस बार तो आपकी कल्पना को ऐसे पंख लग गये हैं कि अन्तरिक्ष भी छोटा पड़ गया है ..सुंदर रचना !
ReplyDeleteआहा एक अल्हड से बच्चे की शरारत जितनी सुन्दर ये कविता | बहुत ही बढ़िया |
ReplyDeleteAmazing Amrita ji emotions and respect clearly reflect in the poem.
ReplyDeletevaah..............bahut hi pyari kalpana hai aapki rachna me ..........
ReplyDeleteसार्थक चाहत और सराहनीय कल्पना ..... बेहतरीन प्रस्तुति...
ReplyDeleteरुनझुन-सी करती कविता।
ReplyDelete‘बुद्धू-सुद्धू‘ का सुंदर प्रयोग अच्छा लगा।
एक भोले से प्यारे बच्चे जैसी कुछ शरारतें और इच्छाएं हैं, लगता है जैसे सावन भी बुद्धू-सुद्धू बनकर
ReplyDeleteझट से सारा पानी चुरा लेने देगा और आँखें मींचकर बैठा मुस्कुराता रहेगा .... बहुत ही प्यारी कल्पना अमृता जी
चंचल मन की कुलाँचे भरी कल्पनाएँ समेटे कविता पढ़ कर चित्त प्रसन्न हो गया - लगा किशोरावस्था की उद्दाम ऊर्जा बिखरी पड़ रही है .
ReplyDeleteचंचल मन की ऊँची उड़न की खुबसूरत तस्वीर खींचा आपने अमृता जी !मेरा मन भी उड़ता रहा कविता के साथ साथ !बहुत सुन्दर !
ReplyDeleteउम्मीदों की डोली !
बहुत ही सुन्दर
ReplyDeleteसुंदर रचना..
ReplyDeleteबेठौर बादलों को फुसलाकर
ReplyDeleteकांच का सुंदर-सा एक घर दूँ
ख़रमस्ती में खर-भर करके
बिजलियों को मुट्ठी में भर लूँ
सब दिशाओं को समेट कर
एक छोर से मैं ऐसे टाँक दूँ
क्षितिज को भी खींच-खींचकर
मैं आकाश को जैसे ढाँक दूँ
बहुत सुन्दर अंदाज़ हैं ज़िंदगी के एक साथ सब साज़ हैं।
सब दिशाओं को समेट कर
ReplyDeleteएक छोर से मैं ऐसे टाँक दूँ
क्षितिज को भी खींच-खींचकर
मैं आकाश को जैसे ढाँक दूँ
शायद मेरे ऐसा-वैसा करने से
कुछ गाँठ ही सही खुल जाए
और ये गीत सुरीला बन कर
सबके ओंठों में ही घुल जाए
आमीन !
मन की इच्छाओं का पार कहाँ ... पर इनका होना भी तो जरूरी है ...
ReplyDeleteइनको खुला छोड़ने पर ही मंजिल मिलेगी ..
Waaaaah mazaa aa gaya aaj to...
ReplyDeleteSaawan ko buddhu suddhu bana kar :)
काश यह सब हो पाता ......सुंदर एवं कोमल भाव लिए प्यारी सी मदमस्त रचना।
ReplyDeleteसुन्दर शब्द विन्यास |
ReplyDeleteप्यारी सी रचना |
कविता के साँचे में खड़ी विराट और उदात्त कल्पना आपके मन से निस्सृत हुई है. इसे पढ़ कर मुस्कान भरी हैरानगी का भाव तो पैदा होता है.
ReplyDeleteखूबसूरत कल्पना, सुंदर शब्द. बधाई....
ReplyDeleteबहुत प्यारी कल्पना, खूबसूरत अंदाज़ ! :)
ReplyDeleteशब्दों का खूबसूरत तालमेल
ReplyDeleteभावनाओं की सरसराहट पता नहीं कहां-कहां तक पहुंची है.....इस कविता के माध्यम से।
ReplyDeleteWaaaaaaaaaaah
ReplyDeleteबेठौर बादलों को फुसलाकर
ReplyDeleteकांच का सुंदर-सा एक घर दूँ
ख़रमस्ती में खर-भर करके
बिजलियों को मुट्ठी में भर लूँ..
बहुत ही भावपूर्ण लाइनें। आभार।
अब हवाओं को तो आप डांट ही दीजिये, ताकि जल्दी से कान पकड़ कर बैठ जाए। .....
ReplyDeleteहमेशा आपकी कलम पर नाज रहा है.....................
khubsurat kalpna ....sunder shabd sanyojan.... bahut umda
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