जिनको दिन में भी नहीं सूझता
ऐसे- ऐसे भी महान उलूक हैं
मुक्तकंठ से जो करते रहते
हरदम बात खरी दोटूक हैं
इतराकर तो वे ऐसे चलते
जैसे मानसरोवर के हों राजहंस
उनके रुकने से ही मानो
रुक जाता हो ज्ञान का वंश
मुक्तावलियों सी ही उनकी बातें
कौवों-बगुलों को मुक्त कराती है
चीलों-गिद्धों को भी दीक्षित कर
राजहंस की उपाधि दिलाती है
उनके राह-प्रदर्शन में कभी
कोई रास्ता भटक नहीं पाता है
नालों- डबरों से भी बह कर
उनके सागर में मिल जाता है
उनके ही जयजयकार में सब
राजी-ख़ुशी शामिल हो जाते हैं
झाड़-फूंक, दवा-दारु या ताबीज
जो भी मिल जाए उसे पाते हैं .
ऐसे- ऐसे भी महान उलूक हैं
मुक्तकंठ से जो करते रहते
हरदम बात खरी दोटूक हैं
इतराकर तो वे ऐसे चलते
जैसे मानसरोवर के हों राजहंस
उनके रुकने से ही मानो
रुक जाता हो ज्ञान का वंश
मुक्तावलियों सी ही उनकी बातें
कौवों-बगुलों को मुक्त कराती है
चीलों-गिद्धों को भी दीक्षित कर
राजहंस की उपाधि दिलाती है
उनके राह-प्रदर्शन में कभी
कोई रास्ता भटक नहीं पाता है
नालों- डबरों से भी बह कर
उनके सागर में मिल जाता है
उनके ही जयजयकार में सब
राजी-ख़ुशी शामिल हो जाते हैं
झाड़-फूंक, दवा-दारु या ताबीज
जो भी मिल जाए उसे पाते हैं .
जी हैं ना :)
ReplyDeleteएक मैं भी तो हूँ 'उलूक' ।
उम्दा रचना ।
खूबसूरत प्रस्तुति...
ReplyDeleteबहुत सटीक कटाक्ष...बहुत सुन्दर
ReplyDeleteदिन को इन्हें सूझता नहीं है और रात को ये खुद सूज जाते हैं।
ReplyDeleteVery nice
ReplyDeleteकुछ लोगों का आनंद बस उसी में है. हर जगह हैं ऐसे लोग.
ReplyDeleteएक ढूँढो हज़ार मिल जाते हैं !
ReplyDeleteवाह! है दुनिया उन्हीं की ज़माना उन्हीं का ...
ReplyDeleteकिस्म-किस्म के उलूक तो आजकल व्यास पीठ पर बैठकर सनातन ज्ञान बाँट रहे हैं, जैसे सब कुछ उन्हीं के पास गिरवी रखा हुआ हो…
ReplyDeleteबहुत बढ़िया बात खरी दोटूक … शानदार रचना
ReplyDeleteबढ़िया व्यंग्य .... आदरणीया अमृता जी
ReplyDeleteकरार व्यंग .. आज तो भरमार है ऐसे लोगों की ... और सच कहो तो ऐसों का ही समय है आज .. उनकी ही चलती है ..
ReplyDeleteवाह!! सही...बहुत सही कविता !!
ReplyDeleteबढ़िया व्यंग्य ....अमृता जी
ReplyDeleteसही चिडचिडा रही हो , मंगलकामनाएं !!
ReplyDeleteबढ़िया व्यंग. कई जगह चोट करता है.
ReplyDeleteऐसे लोग एक ढूंढो हज़ार मिलते हैं......वैसे विकेश जी की बात से भी सहमत हूँ...:)
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