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Friday, April 18, 2014

खरी दोटूक .....

                जिनको दिन में भी नहीं सूझता
                  ऐसे- ऐसे भी महान उलूक हैं
                  मुक्तकंठ से जो करते रहते
                   हरदम बात खरी दोटूक हैं

                  इतराकर तो वे ऐसे चलते
               जैसे मानसरोवर के हों राजहंस
                   उनके रुकने से ही मानो
                रुक जाता हो ज्ञान का वंश

               मुक्तावलियों सी ही उनकी बातें
               कौवों-बगुलों को मुक्त कराती है
                चीलों-गिद्धों को भी दीक्षित कर
                 राजहंस की उपाधि दिलाती है

                  उनके राह-प्रदर्शन में कभी
              कोई रास्ता भटक नहीं पाता है
                 नालों- डबरों से भी बह कर
               उनके सागर में मिल जाता है

                उनके ही जयजयकार में सब
               राजी-ख़ुशी शामिल हो जाते हैं
               झाड़-फूंक, दवा-दारु या ताबीज
                जो भी मिल जाए उसे पाते हैं .

17 comments:

  1. जी हैं ना :)
    एक मैं भी तो हूँ 'उलूक' ।
    उम्दा रचना ।

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  2. खूबसूरत प्रस्तुति...

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  3. बहुत सटीक कटाक्ष...बहुत सुन्दर

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  4. दिन को इन्‍हें सूझता नहीं है और रात को ये खुद सूज जाते हैं।

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  5. कुछ लोगों का आनंद बस उसी में है. हर जगह हैं ऐसे लोग.

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  6. एक ढूँढो हज़ार मिल जाते हैं !

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  7. वाह! है दुनिया उन्हीं की ज़माना उन्हीं का ...

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  8. किस्म-किस्म के उलूक तो आजकल व्यास पीठ पर बैठकर सनातन ज्ञान बाँट रहे हैं, जैसे सब कुछ उन्हीं के पास गिरवी रखा हुआ हो…

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  9. बहुत बढ़िया बात खरी दोटूक … शानदार रचना

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  10. बढ़िया व्यंग्य .... आदरणीया अमृता जी

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  11. करार व्यंग .. आज तो भरमार है ऐसे लोगों की ... और सच कहो तो ऐसों का ही समय है आज .. उनकी ही चलती है ..

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  12. वाह!! सही...बहुत सही कविता !!

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  13. बढ़िया व्यंग्य ....अमृता जी

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  14. सही चिडचिडा रही हो , मंगलकामनाएं !!

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  15. बढ़िया व्यंग. कई जगह चोट करता है.

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  16. ऐसे लोग एक ढूंढो हज़ार मिलते हैं......वैसे विकेश जी की बात से भी सहमत हूँ...:)

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