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Wednesday, April 23, 2014

तो जवाब आएगा....

गैर जरुरी लोगों का
यह फलता-फूलता धंधा है
जिनके लिए
नैतिकता या आदर्श
लंगड़ा , लूला और अंधा है
जो जात-जात चिल्लाते हैं
और खुलेआम घात लगाते हैं
पर उनके जात का ही
कोई ठिकाना नहीं
फिर तो उनकी बात का
क्या होगा ठिकाना सही ?
जिंदगी में जिसे कुछ और
करने लायक नहीं लगता
वही जनता की छाती पर चढ़
उसका नायक है बनता....
तब तो
तमाशा पर तमाशा चलता रहता है
और जनता के लिए
नमक का बताशा बनता रहता है....
उनसे जरा पूछो कि--
आप लेफ्ट जायेंगे या राइट ?
तो जवाब आएगा--
हम तो भाई स्ट्रेट चलेंगे
और जो सामने होगा उसे गले लगा
किसी को स्ट्रेस न देंगे
फिर उनसे पूछो कि--
आप किस पार्टी में रहेंगे ?
तो जवाब आएगा--
अरे! किसी भी पार्टी में रहेंगे
पर पॉलटीशियन ही कहलायेंगे
और जब हमने ही तो आपके लिए
ये सारा रुल-रेगुलेशन बनाया है
इसलिए आप बस
हमें कोस-कोस कर ही सही
हमपर ही बटन दबाएंगे .

25 comments:

  1. आपकी भावनाओं को व्यक्त करने की प्रतिभा कविता पढने से ही पता चलती है,सबसे बड़ी बात है की आप उसका सदुपयोग करती हैं और ये भी एक सच्चे कवि या कवियत्री की पहचान है,

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  2. भेंड़-बकरी से कम नहीं आँकते हमारे नेता जनता को...और जनता भी जात-पात-बिरादरी से ऊपर नहीं निकल पा रही है...सामयिक कविता...बधाई...

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  3. जनता की कमजोरी का फायदा उठाना आज के नेता बहुत अच्छी तरह जानते हैं...बहुत सार्थक और सटीक प्रस्तुति...

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  4. बहुत सुंदर एवं समसामयिक प्रस्तुति.

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  5. बिल्‍कुल सच कहा आपने ...... सार्थक व सशक्‍त प्रस्‍तुति

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  6. बहुत खूब ... एक नेता ने कहा हम हमेशा एक ही दल में रहे हैं और रहेंगे ताउम्र ... पत्कार ने प्रभावित हो के पूछा अच्छा ... कौन से दल में हैं आप ... नेता जी बोले सत्तारुड़ दल में ...
    सामयिक और सार्थक रचना ...

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  7. समसामयिक और सटीक है ...... हालात ही ऐसे बना दिए हैं .....

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  8. राजनीति का दुरूह पथ हुआ विचित्र पथ। नमक का बताशा ध्‍यानाकर्षण प्रयोग रहा।

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  9. सच.....जाने क्या मजबूरी है !!
    नमक के बताशे का स्वाद मुँह को कड़वा कर गया...

    अनु

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  10. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 24-04-2014 को चर्चा मंच पर दिया गया है
    आभार

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  11. बहुत खूब! सुन्दर और प्रासंगिक।

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  12. सामयिक एवं सार्थक रचना ! कभी-कभी सोचती हूँ नेता पैदाइशी ही ऐसे शातिर होते हैं या पोलीटीशियन का चोगा पहनने के बाद उनमें यह बदलाव आ जाता है ! बहुत सुंदर प्रस्तुति !

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  13. नमक का बताशा … जानलेवा भी और मीठा-मीठा भ्रम भी …

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  14. राजनीति इसी को तो कहते हैं..अमृता जी, जो राजनीति का खेल खेलता है उसे ये गुर आ ही जाते हैं..

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  15. लाद ली है लोई तो क्या करेगा कोई.!
    खारापन भर गये मुँह में !

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  16. सही कहा सभी एक थाली के चट्ठे-बट्ठे ... किसीको भी चुनलो भाई, यहाँ कुआं तो वहां है खाई ...

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  17. वर्तमान परिस्थितियों और आज के चुनावी माहौल पर सार्थक व सटीक अभिव्यक्ति...

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  18. बहुत सार्थक और सटीक प्रस्तुति...

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  19. अरे गज़ब का वार करती हैं आप शब्दों से...
    आपकी ऐसी बातों को खूब एन्जॉय करता हूँ ! :)

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  20. "और जनता के लिए
    नमक का बताशा बनता रहता है...."

    यही सच्ची बात है. हमारे सामाजिक तानेबाने में जो ऊँचनीच है वही हमारे चुनावी सिस्टम के मूल में बैठ कर विषबेल बोती है. बढ़िया कविता.

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  21. चुनाव आते ही मतलबपरस्ती कैसे इनके 'अंतरात्मा' को आवाज़ दे जाती है कि झट से बहती गंगा में हाथ धो लेते हैं. और पार्टियां भी वैसी ही....'दरियादिली' दिखाते हुए झट से गला लगाए जाते हैं विरोधियों को.

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  22. नमक का बतासा
    कहाँ से लातीं आप आप नए नए शब्द चुन चुन कर
    क्या सभी पालिटिशियन खराब ही होते हैं.?.

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  23. आपकी टिप्पणी ने यहाँ पहुँचा दिया और बहुत कुछ जानदार शानदार पढ़ने को मिला... जब तक आदर्श और नैतिकता अपाहिज रहेंगे तब तक जनता पर भी उसका बुरा असर रहेगा..

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