तुमसे एक नहीं , दो नहीं , तीन नहीं
हजार-हजार झूठ मैं बोलूँगी
और तीते-कड़वे बोलों के बीच
तेरे कानों में अपनी
तानों की मिठास मैं घोलूँगी
तुम बस मेरे ठोड़ी को मत उठाना
मैं तुमसे इन अँखियों को न मिलाऊँगी
गलती से भी मिला बैठी तो
रँगेहाथ मैं ही पकड़ी जाऊँगी....
मैं थोड़ा लटक-झटक कर
इधर-उधर चटक-मटक कर
अपनी उलाहनाओं-पुलाहनाओं की
एक ऐसी लड़ी लगाउँगी
तुम बस मेरे गालों को न सहलाना
कहीं छनककर मैं फुलझड़ी न बन जाऊँगी....
जब मैं तुमसे उलट-पुलट कर
थोड़ा-सा पलट-पलट कर
इरछी-तिरछी अँखियों से
बतिया पर बतिया बनाऊँगी
तुम बस पीछे से गर्दन को न चूमना
नहीं तो सिहर कर मैं वहीँ सिकुड़ जाऊँगी...
फिर जब अपनी आना-कानी से
कभी खुद ही मैं लटपटाऊँगी
और उसे सरियाने के लिए
इन चूड़ियों को जोर-जोर से बजाउँगी
तुम बस हाथों को न थामना
नहीं तो तेरी बाँहों में मैं ही छुप जाऊँगी...
फिर कभी जब कमर पर
बार-बार हाथ टिकाकर
अपनी अटपट बोलों से
अपनी करधनी का थोड़ा ताल मिलाऊँगी
तो तुम बस मेरे करधनी मत बन जाना
नहीं तो न चाहते हुए भी
तुमसे मैं खुद को छुड़ाऊँगी...
फिर मैं तुमसे छिटक-छिटक कर
पाँव को तनिक पटक-पटक कर
अपनी पायलिया से भी
हाँ में पूरा हाँ मिलवाऊँगी
तो तुम बस इन पाँव को मत छूना
नहीं तो उल्टे तेरे पाँव पर ही
कहीं मैं न गिर जाऊँगी.....
जब मैं चुप होने का नाम न लूँगी
तेरे कानों को तनिक आराम न दूँगी
तब मेरे ध्यान को भटका कर
अपनी मुस्की को भी छुपाकर
दबे पाँव से एक झटके में ही
तुम बस अपनी गोद में न उठा लेना
सच है! मैं चकरा कर इन होंठों को
तेरे होंठों पर ऐसे धर जाऊँगी
फिर तो तुम्ही बोलो कि कैसे ?
मैं तुमसे कोई भी झूठ बोल पाऊँगी .
हजार-हजार झूठ मैं बोलूँगी
और तीते-कड़वे बोलों के बीच
तेरे कानों में अपनी
तानों की मिठास मैं घोलूँगी
तुम बस मेरे ठोड़ी को मत उठाना
मैं तुमसे इन अँखियों को न मिलाऊँगी
गलती से भी मिला बैठी तो
रँगेहाथ मैं ही पकड़ी जाऊँगी....
मैं थोड़ा लटक-झटक कर
इधर-उधर चटक-मटक कर
अपनी उलाहनाओं-पुलाहनाओं की
एक ऐसी लड़ी लगाउँगी
तुम बस मेरे गालों को न सहलाना
कहीं छनककर मैं फुलझड़ी न बन जाऊँगी....
जब मैं तुमसे उलट-पुलट कर
थोड़ा-सा पलट-पलट कर
इरछी-तिरछी अँखियों से
बतिया पर बतिया बनाऊँगी
तुम बस पीछे से गर्दन को न चूमना
नहीं तो सिहर कर मैं वहीँ सिकुड़ जाऊँगी...
फिर जब अपनी आना-कानी से
कभी खुद ही मैं लटपटाऊँगी
और उसे सरियाने के लिए
इन चूड़ियों को जोर-जोर से बजाउँगी
तुम बस हाथों को न थामना
नहीं तो तेरी बाँहों में मैं ही छुप जाऊँगी...
फिर कभी जब कमर पर
बार-बार हाथ टिकाकर
अपनी अटपट बोलों से
अपनी करधनी का थोड़ा ताल मिलाऊँगी
तो तुम बस मेरे करधनी मत बन जाना
नहीं तो न चाहते हुए भी
तुमसे मैं खुद को छुड़ाऊँगी...
फिर मैं तुमसे छिटक-छिटक कर
पाँव को तनिक पटक-पटक कर
अपनी पायलिया से भी
हाँ में पूरा हाँ मिलवाऊँगी
तो तुम बस इन पाँव को मत छूना
नहीं तो उल्टे तेरे पाँव पर ही
कहीं मैं न गिर जाऊँगी.....
जब मैं चुप होने का नाम न लूँगी
तेरे कानों को तनिक आराम न दूँगी
तब मेरे ध्यान को भटका कर
अपनी मुस्की को भी छुपाकर
दबे पाँव से एक झटके में ही
तुम बस अपनी गोद में न उठा लेना
सच है! मैं चकरा कर इन होंठों को
तेरे होंठों पर ऐसे धर जाऊँगी
फिर तो तुम्ही बोलो कि कैसे ?
मैं तुमसे कोई भी झूठ बोल पाऊँगी .
ReplyDeleteमनमोहक मधुर मीठी सी ......
बहुत सुन्दर...
ReplyDeleteअहा...सुन्दर...बहुत सुन्दर...
ReplyDeleteइतने दिन बाद ब्लॉग पर आने पर ऐसी सुन्दर कवितायेँ मिलती हैं क्या पढ़ने को दीदी? :)
अब कान न पकड़ियेगा मेरा....इतने दिन ब्लॉग पर ना आया हूँ तो... :)
अच्छी रचना !
ReplyDeleteबहुत खूब...खूबसूरत प्रस्तुति...
ReplyDeleteवाह, बहुत खूब !! मंगलकामनाएं . . . .
ReplyDeleteसमझ में आ गया - ना, ना का मतलब है हाँ,हाँ - क्यों है न !
ReplyDeleteबहुत प्यारी रचना...कितना मुश्किल है अहसासों को छुपाना...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर अभिव्यक्ति ....
ReplyDeleteजबरिया प्रेम, बहुत ही प्यारा चित्रण।
ReplyDeleteवाह ... शब्द शब्द और छंद छंद जैसे प्रेम का झरना बह रहा हो ...
ReplyDeleteगहन ...
वाह, बड़े कोमल अल्हड से भाव
ReplyDelete.............हं ये प्रेम अठखेली।
ReplyDeleteओहो ये सजीली और छबीली सी बिहारी की नायिका मन को मो लेने वाली है |
ReplyDeleteमान- मनुहार के कितने रंग समेटे है शब्दों की ये अटखेलियाँ. अति सुन्दर.
ReplyDeleteutam-**
ReplyDeletegood bless you
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति . प्यारी रचना..
ReplyDeleteथोड़ी मदमस्त-सी...मनमोहक कविता...बधाई...|
ReplyDeleteझूठ बोलने से लेकर झूठ न बोल पाने की स्थिति तक का मधुर सफर बहुत सुंदर बन पड़ा है. बहुत ही मन भावन.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर! मधुर मुस्कान बिखेर गयी ये रचना, बहुत ही सुन्दर!
ReplyDeleteप्रेम रस से लबरेज़ बहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति....
ReplyDelete