गुणियों ! गुरु - गुण गा - गा कर मैं तो गुण - गान हो गई हूँ
सुधियों ! सुध खो - खो कर अधिक ही सावधान हो गई हूँ
मुनियों ! मन - मधु पीते - पीते मैं भी मधुर मुस्कान हो गई हूँ
अरे ! अतिश्योक्ति की दिशा में अब तो गतिमान हो गई हूँ
मुस्कान में है तन्मय , तन्मय में है अमृतायन
अमृतायन में है नर्त्तन , नर्त्तन में है गायन
गायन में है वादन , वादन है बड़ा पावन
पावन सा है रमण , रमण से है जीवन
मधु - मन में जब न यह मेरा है , न वह मेरा है
तब ठहराव कहाँ ? जो है बस गति का फेरा है
अलियों- कलियों की गलियों में रास का डेरा है
गुरु में हुई मैं अब तन्मय जो अमृत का घेरा है
परिधि में है प्राण , प्राण में है उड़ान
उड़ान से है आकाश , आकाश है वरदान
वरदान से है अवधुपन , अवधुपन में है ध्यान
ध्यान में है दर्शन , दर्शन में अभिराम
संगम पर समेट रही मैं मद की मधुर उफान
गुरु- रस से भीगी- भागी है हिय- कोकिल की तान
मैंने खोला है बाँहों को , आलिंगन में है प्राण
तब तो सहस्त्र सिंगार रच- रच के मुस्काये मुस्कान
गुणियों ! गुरु - गुण गा - गा कर मैं तो गुण - गान हो गई हूँ
सुधियों ! सुध खो - खो कर अधिक ही सावधान हो गई हूँ .
अद्भुत .... हर पंक्ति जीवन दर्शन सी |
ReplyDeleteख़ुद की परिधि से बाहर और परिधि के भीतर आती-जाती यह कविता औघड़पने की सीमा में चली गई है.
ReplyDeleteपरिधि में है प्राण, प्राण में है उड़ान
उड़ान से है आकाश, आकाश है वरदान
वरदान से है अवधुपन, अवधुपन में है ध्यान
ध्यान में है दर्शन, दर्शन में अभिराम
दर्शन का समुद्र ठाठें मार रहा है.
आपकी कविता को समझने के लिए मां सरस्वती का आशीर्वाद चाहिए।जो कि है नही।सिर्फ चकित हूँ।अबूझ पहेली जैसा पढ़ता ही जा रहा हूँ।हज़ारों कविताएं पड़ीं हैं पर इस कविता ने तो मुझे समझा दिया है कि फिर से जन्म लेना पड़ेगा।कृपा होती कि थोड़ा भावार्थ का संकेत देती।वैसे भी नारी हृदय महासागर की तरह होता है और यह कविता तो। अदम्य गहराई में चलता ही जा रहा है।
ReplyDeleteबहुत सुंदर भाव.
ReplyDeleteसुंदरतम, बहुत शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम
#हिन्दी_ब्लॉगिंग
गुरु - गुण गा - गा कर मैं तो गुण - गान हो गई हूँ, गुण -गान अथवा गुण- वान...हमें तो लगता है आप गुणवान हो गयी हैं..बधाई !
ReplyDeleteअद्भुत...बहुत गहन अभिव्यक्ति...
ReplyDeleteना मेरा, ना तेरा - सिर्फ गति का फेरा
ReplyDeleteसच है
अदबुध शब्द संयोजन ... शब्द से शब्द और कल्पना से नयी कल्पना फिर अंतस का द्वार ... प्रवाह बद्ध दार्शिनिक रचना ...
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (13-07-2017) को "झूल रही हैं ममता-माया" (चर्चा अंक-2666) (चर्चा अंक-2664) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
क्या कहूं नि:शब्द हूँ। अत्यंत प्रभावशाली।
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