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Sunday, July 18, 2021

मोह लगा है ........

जबसे सोने के पिंजरे से मोह लगा है

अपना ही ये घर खंखड़ खोह लगा है

सपना टूटे , अब अपना ही सच दिखे

दिन- रात एक यही ऊहापोह लगा है


इस घर में अब उदासी-सी छाई रहती है

मेरे सुख-चैन को ही दूर भगाई रहती है

मन तो बस , बंद हो गया उसी पिंजरे में

उसे पाने की इच्छा , फनफनाई रहती है


स्तब्ध हूँ कि कैसे मैं अबतक हूँ यहाँ

जो दिखता था जीवन , यहाँ है कहाँ

छल करता हर एक सुख है , पर अब

आँखों को दिखता साक्षात स्वर्ग वहाँ


अब वही , सोने का स्वर्ग मुझे चाहिए

मदाया हुआ , उन्मत्त गर्व मुझे चाहिए

दुख में ही तो बीता हीरा जनम , अब

क्षण-क्षण छंदित मेरा पर्व मुझे चाहिए


अपना होना भी मिटाना पड़े मिटा दूंगी

सबकुछ लुटाना पड़े तो , सब लुटा दूंगी

हँसते-हँसते उस सोने के पिंजरे के लिए

पर कटाना पड़े तो , खुशी से कटा लूंगी


अभी तो उस झलकी का संयोग लगा है

जीर्ण- जगत गरल सम प्रतियोग लगा है

असमंजस में प्राण है बीते न बिताए पल

जबसे उस सोने के पिंजरे से मोह लगा है .

27 comments:

  1. सांसारिकता से विरक्ति और आध्यात्म के प्रति गहन अनुरक्ति के भाव लिए अत्यंत सुन्दर सृजन ।

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  2. आपकी लिखी रचना गुरुवार 19 जुलाई 2021 को साझा की गई है ,
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

    संगीता स्वरूप

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  3. नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (19-07-2021 ) को 'हैप्पी एंडिंग' (चर्चा अंक- 4130) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। रात्रि 12:01 AM के बाद प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।

    चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।

    यदि हमारे द्वारा किए गए इस प्रयास से आपको कोई आपत्ति है तो कृपया संबंधित प्रस्तुति के अंक में अपनी टिप्पणी के ज़रिये या हमारे ब्लॉग पर प्रदर्शित संपर्क फ़ॉर्म के माध्यम से हमें सूचित कीजिएगा ताकि आपकी रचना का लिंक प्रस्तुति से विलोपित किया जा सके।

    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।

    #रवीन्द्र_सिंह_यादव

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  4. चिंतनपूर्ण सुंदर कविता।

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  5. स्तब्ध हूँ कि कैसे मैं अबतक हूँ यहाँ

    जो दिखता था जीवन , यहाँ है कहाँ

    छल करता हर एक सुख है , पर अब

    आँखों को दिखता साक्षात स्वर्ग वहाँ
    Really Amazing 👍👍👍

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  6. अब वही , सोने का स्वर्ग मुझे चाहिए

    मदाया हुआ , उन्मत्त गर्व मुझे चाहिए

    दुख में ही तो बीता हीरा जनम , अब

    क्षण-क्षण छंदित मेरा पर्व मुझे चाहिए

    गहरी और प्रभावशाली पंक्तियाँ

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  7. बहुत ख़ूब अमृता तन्मय !
    पिंजरा तो पिंजरा होता है. अब चाहे वो सांसारिक हो चाहे आध्यात्मिक हो !

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  8. यहाँ वहाँ का इस उस का मिट्टी सोने का जब तक भेद समाया मन में तब तक ही यह दूरी दूरी है

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  9. अति सारगर्भित,गहन चिंतन और मंथन की अनूठी अभिव्यक्ति।
    ---//---
    न करो कामना पिंजरे की
    न मोह पड़ो किसी पिंजरे की
    देह मानुष यूँ भी बंधन है
    मन मुक्त रहे हर पिंजरें से
    -----
    सादर।

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  10. अभी तो उस झलकी का संयोग लगा है

    जीर्ण- जगत गरल सम प्रतियोग लगा है

    असमंजस में प्राण है बीते न बिताए पल

    जबसे उस सोने के पिंजरे से मोह लगा है .
    वाह…और क्या चाहे कोई इसके आगे👏👏👏

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  11. वाह, बहुत ही सुन्दर रचना!

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  12. वाह! अध्यात्म का अद्भुत उछाह!

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  13. अपना होना भी मिटाना पड़े मिटा दूंगी
    सबकुछ लुटाना पड़े तो , सब लुटा दूंगी
    हँसते-हँसते उस सोने के पिंजरे के लिए
    पर कटाना पड़े तो , खुशी से कटा लूंगी
    सांसारिक पिंजरे में रहते रहते उन्मुक्तता की आदत ही खत्म हो गयी...अब आध्यात्मिक उन्मुक्तता नहीं स्वर्गिक पिंजड़ा चाहिए
    मोह जो लगा है।

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  14. वाह बेहतरीन रचना।

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  15. जबसे सोने के पिंजरे से मोह लगा है
    अपना ही ये घर खंखड़ खोह लगा है
    सपना टूटे , अब अपना ही सच दिखे
    दिन- रात एक यही ऊहापोह लगा है//
    बहुत बढ़िया अमृता जी , एक समय एसा जरुर आता है जब मन की प्राथमिकताएं बदल जाती हैं और उसके संकल्प रास्ता बदल लेते हैं | आध्यात्मिकता का पथ मन की लालसा विशेष रहा है | रोचक और सार्थक रचना के लिए हार्दिक शुभकामनाएं |

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  16. अध्यात्म और दर्शन जिसे स्वर्ण माने उसी का बंदी होकर रहे.
    सुंदर भाव!

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  17. बहुत सुन्दर आध्यात्मिक गीत

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  18. सुंदर अध्यात्मिक सृजन

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  19. स्तब्ध हूँ कि कैसे मैं अबतक हूँ यहाँ

    जो दिखता था जीवन , यहाँ है कहाँ

    छल करता हर एक सुख है , पर अब

    आँखों को दिखता साक्षात स्वर्ग वहाँ
    सांसारिक प्रपंच से उकताए हुए मन के सार्थक उद्गार।

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  20. बहुत सुंदर सृजन।
    आध्यात्मिकता को मूड़ता मन !
    पर एक प्रश्न है स्नेही बंधु पिंजरे को छोड़ फिर पिंजरे की ही चाह क्यों सोने का भी पिंजरा तो पिंजरा ही है ।
    हे देवानुप्रिय इच्छा ही करनी है तो स्वर्ग की नहीं मुक्ति की करें न पिंजरा न आवागमन।
    क्षमा के साथ,
    बस अपने भाव लिख दिए।

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  21. बहुत ही सुंदर सृजन बार-बार पढ़ने को मन करता है।
    न जाने कितनी ही बार पढ़ी मैंने।
    आध्यात्मिकता जो अंतस में उतरता गया।
    बेहतरीन 👌

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  22. सुंदर और सार्थक आध्यत्मिक सृजन के लिए आपको बहुत-बहुत बधाई और शुभकामनाएँ!

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