जबसे सोने के पिंजरे से मोह लगा है
अपना ही ये घर खंखड़ खोह लगा है
सपना टूटे , अब अपना ही सच दिखे
दिन- रात एक यही ऊहापोह लगा है
इस घर में अब उदासी-सी छाई रहती है
मेरे सुख-चैन को ही दूर भगाई रहती है
मन तो बस , बंद हो गया उसी पिंजरे में
उसे पाने की इच्छा , फनफनाई रहती है
स्तब्ध हूँ कि कैसे मैं अबतक हूँ यहाँ
जो दिखता था जीवन , यहाँ है कहाँ
छल करता हर एक सुख है , पर अब
आँखों को दिखता साक्षात स्वर्ग वहाँ
अब वही , सोने का स्वर्ग मुझे चाहिए
मदाया हुआ , उन्मत्त गर्व मुझे चाहिए
दुख में ही तो बीता हीरा जनम , अब
क्षण-क्षण छंदित मेरा पर्व मुझे चाहिए
अपना होना भी मिटाना पड़े मिटा दूंगी
सबकुछ लुटाना पड़े तो , सब लुटा दूंगी
हँसते-हँसते उस सोने के पिंजरे के लिए
पर कटाना पड़े तो , खुशी से कटा लूंगी
अभी तो उस झलकी का संयोग लगा है
जीर्ण- जगत गरल सम प्रतियोग लगा है
असमंजस में प्राण है बीते न बिताए पल
जबसे उस सोने के पिंजरे से मोह लगा है .
अद्भुत
ReplyDeleteसांसारिकता से विरक्ति और आध्यात्म के प्रति गहन अनुरक्ति के भाव लिए अत्यंत सुन्दर सृजन ।
ReplyDeleteवाह। बेहतरीन🌼♥️
ReplyDeleteचिंतनपूर्ण सुंदर कविता।
ReplyDeleteस्तब्ध हूँ कि कैसे मैं अबतक हूँ यहाँ
ReplyDeleteजो दिखता था जीवन , यहाँ है कहाँ
छल करता हर एक सुख है , पर अब
आँखों को दिखता साक्षात स्वर्ग वहाँ
Really Amazing 👍👍👍
अब वही , सोने का स्वर्ग मुझे चाहिए
ReplyDeleteमदाया हुआ , उन्मत्त गर्व मुझे चाहिए
दुख में ही तो बीता हीरा जनम , अब
क्षण-क्षण छंदित मेरा पर्व मुझे चाहिए
गहरी और प्रभावशाली पंक्तियाँ
बहुत ख़ूब अमृता तन्मय !
ReplyDeleteपिंजरा तो पिंजरा होता है. अब चाहे वो सांसारिक हो चाहे आध्यात्मिक हो !
यहाँ वहाँ का इस उस का मिट्टी सोने का जब तक भेद समाया मन में तब तक ही यह दूरी दूरी है
ReplyDeleteअति सारगर्भित,गहन चिंतन और मंथन की अनूठी अभिव्यक्ति।
ReplyDelete---//---
न करो कामना पिंजरे की
न मोह पड़ो किसी पिंजरे की
देह मानुष यूँ भी बंधन है
मन मुक्त रहे हर पिंजरें से
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सादर।
सुन्दर भाव
ReplyDeleteअभी तो उस झलकी का संयोग लगा है
ReplyDeleteजीर्ण- जगत गरल सम प्रतियोग लगा है
असमंजस में प्राण है बीते न बिताए पल
जबसे उस सोने के पिंजरे से मोह लगा है .
वाह…और क्या चाहे कोई इसके आगे👏👏👏
वाह, बहुत ही सुन्दर रचना!
ReplyDeleteवाह! अध्यात्म का अद्भुत उछाह!
ReplyDeleteअपना होना भी मिटाना पड़े मिटा दूंगी
ReplyDeleteसबकुछ लुटाना पड़े तो , सब लुटा दूंगी
हँसते-हँसते उस सोने के पिंजरे के लिए
पर कटाना पड़े तो , खुशी से कटा लूंगी
सांसारिक पिंजरे में रहते रहते उन्मुक्तता की आदत ही खत्म हो गयी...अब आध्यात्मिक उन्मुक्तता नहीं स्वर्गिक पिंजड़ा चाहिए
मोह जो लगा है।
वाह बेहतरीन रचना।
ReplyDeleteजबसे सोने के पिंजरे से मोह लगा है
ReplyDeleteअपना ही ये घर खंखड़ खोह लगा है
सपना टूटे , अब अपना ही सच दिखे
दिन- रात एक यही ऊहापोह लगा है//
बहुत बढ़िया अमृता जी , एक समय एसा जरुर आता है जब मन की प्राथमिकताएं बदल जाती हैं और उसके संकल्प रास्ता बदल लेते हैं | आध्यात्मिकता का पथ मन की लालसा विशेष रहा है | रोचक और सार्थक रचना के लिए हार्दिक शुभकामनाएं |
सुंदर सृजन...
ReplyDeleteअध्यात्म और दर्शन जिसे स्वर्ण माने उसी का बंदी होकर रहे.
ReplyDeleteसुंदर भाव!
बहुत सुन्दर आध्यात्मिक गीत
ReplyDeleteसुंदर अध्यात्मिक सृजन
ReplyDeleteस्तब्ध हूँ कि कैसे मैं अबतक हूँ यहाँ
ReplyDeleteजो दिखता था जीवन , यहाँ है कहाँ
छल करता हर एक सुख है , पर अब
आँखों को दिखता साक्षात स्वर्ग वहाँ
सांसारिक प्रपंच से उकताए हुए मन के सार्थक उद्गार।
बहुत सुंदर सृजन।
ReplyDeleteआध्यात्मिकता को मूड़ता मन !
पर एक प्रश्न है स्नेही बंधु पिंजरे को छोड़ फिर पिंजरे की ही चाह क्यों सोने का भी पिंजरा तो पिंजरा ही है ।
हे देवानुप्रिय इच्छा ही करनी है तो स्वर्ग की नहीं मुक्ति की करें न पिंजरा न आवागमन।
क्षमा के साथ,
बस अपने भाव लिख दिए।
बहुत ही सुंदर सृजन बार-बार पढ़ने को मन करता है।
ReplyDeleteन जाने कितनी ही बार पढ़ी मैंने।
आध्यात्मिकता जो अंतस में उतरता गया।
बेहतरीन 👌
सुंदर और सार्थक आध्यत्मिक सृजन के लिए आपको बहुत-बहुत बधाई और शुभकामनाएँ!
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