हाँ ! पंख लगे मेरे सपनों को
सिर पर ही पैर लिए दौड़ी मैं
ऐसी झलक दिखी है उसकी
कि सदियाँ जी ली क्षण में मैं
क्षण में ही जीकर सदियों को
जीवन के अर्थ को जान लिया
अक्षय-प्रेम का आभास पाकर
गर्त के शीर्ष को पहचान लिया
मैं चौंकी , मेरी कुंठा जो टूटी
अमृता से ही सब कुछ खो गया
चित्त- चंदन को घिस- घिसकर
एक सौरभ भर गया नया- नया
धन्य हुई , आभार फिर आभार
भाव में भासित उस चिन्मय को
डुबकी मारी जो तो डूब ही गयी
बचा न पाई , मैं इस तन्मय को
अर्द्धोच्चारित से शब्द हैं सारे
उच्चार में भी वो न समाता है
पर इतना प्रीतिकर है वह कि
बिन उच्चारे रहा न जाता है
सांस में भीतर,सांस में बाहर
वही तो आता है औ' जाता है
पर जब मैं उसे बुलाती हूँ तो
अमृता में तन्मय हो जाता है .
सिर पर ही पैर लिए दौड़ी मैं
ऐसी झलक दिखी है उसकी
कि सदियाँ जी ली क्षण में मैं
क्षण में ही जीकर सदियों को
जीवन के अर्थ को जान लिया
अक्षय-प्रेम का आभास पाकर
गर्त के शीर्ष को पहचान लिया
मैं चौंकी , मेरी कुंठा जो टूटी
अमृता से ही सब कुछ खो गया
चित्त- चंदन को घिस- घिसकर
एक सौरभ भर गया नया- नया
धन्य हुई , आभार फिर आभार
भाव में भासित उस चिन्मय को
डुबकी मारी जो तो डूब ही गयी
बचा न पाई , मैं इस तन्मय को
अर्द्धोच्चारित से शब्द हैं सारे
उच्चार में भी वो न समाता है
पर इतना प्रीतिकर है वह कि
बिन उच्चारे रहा न जाता है
सांस में भीतर,सांस में बाहर
वही तो आता है औ' जाता है
पर जब मैं उसे बुलाती हूँ तो
अमृता में तन्मय हो जाता है .
वाह बहुत सुंदर ।
ReplyDeleteअद्भुत, प्रवाहमयी काव्य रचना
ReplyDeleteनाम को सार्थक कर दिया आपने तो !
ReplyDeleteऔर बस अमृताजी और सिर्फ अमृताजी.....
ReplyDelete.......भंवें ऊपर उठ गईं।
ReplyDeleteब्रह्मा ने जो शक्ति महापुरूषों, सन्तों , वीर, बलिदानियों को दी है, वही हम सबको भी दी हुई है, उसे समझने, अनुभव करने, से हममें भी वही स्फूर्ति शक्ति जागृत हो ही जाती है।
ReplyDeleteसांस में भीतर,सांस में बाहर
ReplyDeleteवही तो आता है औ' जाता है
पर जब मैं उसे बुलाती हूँ तो
अमृता में तन्मय हो जाता है .
..वाह...बहुत सार्थक और प्रवाहमयी अभिव्यक्ति...
पर जब मैं उसे बुलाती हूँ तो
ReplyDeleteअमृता में तन्मय हो जाता है
इससे अधिक सुरीला आत्मपरिचय और क्या हो सकता है. दर्शन की सीमा में गई सुंदर रचना.
धन्य हुई , आभार फिर आभार
ReplyDeleteभाव में भासित उस चिन्मय को
डुबकी मारी जो तो डूब ही गयी
बचा न पाई , मैं इस तन्मय को
ये परिचय नहीं प्रवाह है ... सृजन का ... निर्माण का ... उस अमृत से एकाकार होने का ... उसमें तन्मय हो जाने का ...
सुन्दर अतिसुन्दर शोभनम्
ReplyDeleteसुंदर
ReplyDeleteअमृता में तन्मय हो जाना...
ReplyDeleteसार्थक नाम, सार्थक चिंतन...!
अमृता में तन्मय हो जाती हूँ और अपना होना सार्थक करती हूँ .
ReplyDeleteसुन्दर रचना !
वाह...कितना खूबसूरत ! :)
ReplyDeleteमंगलकामनाएं आपको !
ReplyDeleteआपके कविता के इस सृजन संसार में आपकी प्रतीक्षा है.
ReplyDeleteस्वयं की सार्थकता की अनूभूति में ही जीवन की सर्वोपरि सार्थकता है! ईश्वर आपकी इस अनूभूति को चिर काल तक प्रतिष्ठित रखे! ढेरो बधाईयाँ व शुभकामनायें!
ReplyDeleteवाह, उत्कृष्ट रचना के लिये बधाई।
ReplyDeletekhubsurat rachna ...badhaai
ReplyDeleteNo posts since long -Trust everything is fine!
ReplyDeleteहाँ ! पंख लगे मेरे सपनों को
ReplyDeleteसिर पर ही पैर लिए दौड़ी मैं
ऐसी झलक दिखी है
बहुत ही रहिस्य से भरी पँक्तिया
आपका ब्लॉगसफर आपका ब्लॉग ऍग्रीगेटरपर लगाया गया हैँ । यहाँ पधारै
http://hindihainhumsab.blogspot.in/2014/10/blog-post_10.html
ReplyDeleteआपकी लेखन शैली को हम मिस कर रहे हैं आजकल.
ReplyDeleteवाह क्या कहने !!!
ReplyDeleteअर्द्धोच्चारित से शब्द हैं सारे
ReplyDeleteउच्चार में भी वो न समाता है
पर इतना प्रीतिकर है वह कि
बिन उच्चारे रहा न जाता है
उस अमृत से प्रीति लग जाए तो यही होता है
बहुत सुन्दर !
सच कहा आपने
ReplyDeleteतन्मय होने के लिए उसे बुलाना ही होता है.
अमृता की तन्मय प्रस्तुति के लिए हार्दिक आभार.