जीवन को कुछ अलग हटकर देखने से यही लगता है कि यह आजीवन केवल सहन करने का ही काम है । जैसे बोझ ढोने वाले जानवरों पर उनसे पूछे बिना किसी भी तरह का और कितना भी वजन का बोझ डाल दिया जाता है । फिर पीछे से हुड़का कर, डरा कर या डंडा मार-मारकर बिना रूके हुए चलाया जाता है, ठीक ऐसा ही जीवन है । यदि वह जानवर रूकना चाहे या बोझ उतारना चाहे या कुछ और करना चाहे, तो भी कर नहीं सकता है या कर नहीं पाता है । कारण उसे लगता है कि उसपर डाला गया बोझ और वह एक ही है और यही उसका जीवन भी है । कभी-कभार उस जानवर को ये बात समझ में आ भी जाती है तो भी वह उस बोझ को हटा नहीं पाता है क्योंकि उसे उसकी आदत हो गई होती है । वह स्वयं भी खाली होने की कल्पना मात्र से ही डर जाता है । उसे लगता है कि उसका जीवन भी खो जायेगा और वह मर जाएगा ।
फिर से देखा जाए तो जीवन, जीवन पर्यन्त सब कुछ हमारे विपरीत होने का ही नाम है । हम पल-प्रतिपल अपनी सहनशीलता को अपनी ही कसौटी पर कसते रहते हैं । साथ ही उसके अनुरूप हो रहे सारे अनुकूल-प्रतिकूल बदलावों के अनुसार अपने-आपको ढालने के उबाऊ और थकाऊ प्रयासों के चक्रव्यूह में फँसते रहते हैं । पर उन विपरीतों में अचानक से कुछ ऐसा भी होता रहता है कि हम सहज भरोसा नहीं कर पाते हैं कि हमारे अनुकूल भी कुछ होता है । जो कि केवल संयोगावशात ही होता है । पर हम अति प्रसन्न होकर अपनी ही पीठ थपथपा लेते हैं । हम स्वयं को समझा लेते हैं कि हमारे करने से ही हुआ है पर उन असफलताओं को उस क्षण कैसे भूल जाते हैं जिसके लिए हमने कभी स्वयं को भी दांव पर लगा दिया था । लेकिन हमारा मन इतना चालाक होता है कि वो हमसे पहले ही अपने तर्कों को तैयार कर लेता है और अपने अनुसार हमसे मनवा भी लेता है ।
हालांकि हमारे अनुरूप कुछ भी होने की मात्राओं में बड़ा अंतर हमें आशा-निराशा के द्वंद में उलझाता रहता है और हम स्वयं से ही प्रश्न पूछने पर विवश होते रहते हैं कि आखिर हमारा होना क्या है ? तब हमें थोड़ा-थोड़ा पता चलता है कि सच में हम मात्र एक कठपुतली ही हैं और हमारे हाथ में कुछ भी नहीं है, स्वयं को सहन करने के अतिरिक्त । पर हमारा अहंकार यह मानना नहीं चाहता है जबकि हम देखते रहते हैं कि हम जीवन में जो करना चाहते हैं वो कर नहीं पाते हैं । यदि कर भी पाते हैं तो वो आंशिक रूप में ही होता है । परन्तु जो हम कभी करना नहीं चाहते थे, वही सबकुछ हमें न चाहते हुए भी करते रहना पड़ता है । उन अनचाहे कर्मों को करते हुए हम इतने विवश होते हैं कि आत्म-विरोध के अतिरिक्त कुछ नहीं कर पाते हैं । कारण हमें उन जानवरों की तरह ही सिखा-पढ़ाकर इतना अभ्यास करा दिया गया होता है कि हम अपने ही कोल्हू पर घुमते रहने के आदी हो जाते हैं ।
फिर जीवन क्या है ? संभवतः अपने ही हवन-कुंड में अपनी ही समिधा को सुलगाना । या किसी ऐसे आत्म-संकल्प को अपने विचार-यज्ञ में स्वयं होता बनकर सतत आहुत करते रहना जिसको हम ही कभी नहीं जान पाते हैं । या अपनी ही बलि-वेदी पर अपने श्वास-श्वास को चढ़ाकर जीवन का प्रसाद पाना । या सुनी-सुनाई हुई, तथाकथित कर्म और मुक्ति के सिद्धांतों के जलेबी जैसी बातों से थोड़ा-थोड़ा रस चाट-चाटकर कर आत्म-संतोष के झूठे आश्वासन में तबतक श्वास लेते रहना जबतक वह स्वयं ही रूक नहीं जाए ।
इस वर्तमान में प्रश्नों के अंबार हैं पर उत्तर की कोई भी चाह या आवश्यकता नहीं है । जो दिख रहा है वही इतना अधिक है कि बहुत सारी बातें अपने-आप इस मूढ़ बुद्धि को बहुत-कुछ समझा रही है । चला-चली के इस बेला में अपनों से बिछुड़ते हुए आत्म-सांत्वना के शब्द या जीवन से पुनः जुड़ाव का कोई प्रयास करना, छलावा मात्र लग रहा है । जो हो रहा है सो हो रहा है । जिसे देखता हुआ मूकदर्शक बहुत कुछ कहना चाहता है पर कहने मात्र से ही कुछ हो जाता तो वह अवश्य कहता रहता । वह अपने कठपुतली होने की विवशता को अच्छी तरह से जानता है । हाँ! वह भीतर-ही-भीतर दुखी हो सकता है, वह दहाड़े मारकर रो सकता है, वह छाती भी पीट सकता है, किसी को जी भर कर कोस भी सकता है और जीवन से विमुख भी हो सकता है ।
पर वह सामूहिक कल्याण के लिए अनवरत आर्त्त प्रार्थना ही करता रहता है । बाह्य रूप से वह इतना तो कर ही सकता है कि आशा का दीपक जलाकर औरौं को भी प्रदीप्त करता रहे , बिखर गए धीरज की पूंजी को दोनों हाथों से समेट कर लुटाता रहे । किसी को संबल का दृढ़ और स्नेह भरा हाथ बढ़ा सके । किसी को सिर रखने के लिए वह अपना मजबूत कंधा दे सके । वह दुःख के गीत को कम गाए और सुख के गीतों से कण-कण को गूंजा दे । वह सबके ओंठो पर उम्मीदों की हँसी न सही मुस्कान ही खिला दे । वह मानव जीजिविषा के हठ को पुनर्जीवित कर सके । करने को बहुत-कुछ है जिसे वह कर सकता है । पर यह कैसे कह सकता है कि ये समय भी बीत जाएगा और सबकुछ ठीक हो जाएगा । जबकि वह देख रहा है कि बहुत-कुछ ऐसा हो गया है कि वह कभी पूर्व गति को प्राप्त नहीं हो सकता है साथ ही वह भी स्वयं को उस बीत जाने वाली पंक्ति में ही पाता है ।
मानव जीवन के उद्देश्य को बहुत ही सरलता से व्यक्त किया है आपने,अमृता दी।
ReplyDeleteसार्थक प्रस्तुति
ReplyDeleteबहुत बढ़िया लेख।
ReplyDeleteवर्तमान इसीलिये है कि हर जगह उत्तर हो गये थे। इन्सान को अपने खुद का उत्तर हो लेने का भ्रम सबसे बडा कारण मैं से शुरु होकर मैं में समाहित। काश आपका लिखा अन्तिम पैरा ही एक सत्य बने।
ReplyDeleteसदा सुरक्षित व स्वस्थ रहें
ReplyDeleteजीवन को बोझ मानना अपने आप को न जानने से ही सम्भव है. वास्तव में जीवन तो फूल सा हल्का है. जब हमारे विपरीत कुछ होता है तो हम उसे सहन करके स्वयं को शक्तिशाली ही बनाते हैं. जब हमारे अनुकूल कुछ होता है तो उसे कृपा का प्रसाद मानकर हम कृतज्ञता की भावना से भर जाते हैं. जब जीवन में सन्तुष्टि का अनुभव होता है तो हमारे लिए राग-द्वेष अर्थात पसन्द नापसन्द जैसी कोई वस्तु नहीं रह जाती. हम प्रेय मार्ग के नहीं श्रेय मार्ग के राही बन जाते हैं. हमारे कर्म इस बात पर निर्भर नहीं होते कि क्या हमें अच्छा लगता है बल्कि इस बात पर कि वे सही हैं या गलत. कर्म का सिद्धांत उतना ही सत्य है जितना पूर्व दिशा से सूर्य का उगना, मनसा, वाचा, कर्मणा हमारे हर कृत्य का फल हमें प्राप्त होता है. और जीवन्मुक्त जीवों के उदाहरण इतिहास में व वर्तमान में भरे पड़े हैं. आत्मसन्तोष का अनुभव तभी होता है जब भीतर मन से परे आत्मा की अनुभूति हो जाये. आज जो हो रहा है, वह न जाने कितनी बार पहले भी हुआ है, जब अमेरिका में ऐसे हालात थे या यूरोप में ऐसे हालात थे तब हम इतने परेशान कहाँ हुए. जीवन से विमुख होना या अति शोक मनाना दोनों ही हमें कहीं नहीं ले जा सकते, हमें रुक कर देखना है कि इस कठिन परिस्थिति में भी कैसे मार्ग बनाया जा सकता है. प्रकृति से सीखकर आगे बढ़ा जा सकता है. मोह और ममता की जो जंजीरें हमने बाँध ली हैं. उन्हें तोड़ा जा सकता है. आपने अंतिम भाग में स्वयं ही इतनी सारी बातें लिखी हैं जो की जा सकती हैं. जो चले गए उन्हें वापस नहीं लाया जा सकता, सही है पर जीवन हर पल नया है, यहां एक द्वार बन्द होता है तो अनेक नए द्वार खुल जाते हैं. जिनके ऊपर बीत रही है, वही इस दुःख को समझ सकते हैं. जो चले गए उनका एक स्वप्न टूट गया जो पीछे रह गए उन्हें अभी और स्वप्न देखने हैं, जो दुखद भी हो सकते है और सुखद भी, पर स्वप्न तो स्वप्न ही हैं.
ReplyDeleteसार्थक लेख।
ReplyDeleteसुंदर सराहनीय आलेख
ReplyDeleteसराहनीय आलेख।
ReplyDeleteमोह जाता है आपका लेखन।
ReplyDeleteसांसों की एक एक घूँट का जीवंत चित्रण।
वाह! मुग्ध करता सृजन।
सादर
कई परिदृष्यों को उल्लिखित करता,समसामयिक लेख । अच्छे सारगर्भित लेख के लिए हार्दिक शुभकामनाएं अमृता जी
ReplyDeleteजहाँ तक जीवन-दर्शन की बात है, जीवन के सतत प्रवाह को अनुभव करते चलना ही जीवन है और तो कुछ है भी नही।
ReplyDeleteबहुत ही सारगर्भित आलेख।सादर प्रणाम
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ReplyDeleteआपके द्वारा अभिव्यक्त अधिकांश विचार मेरे अपने विचारों का प्रतिबिम्ब प्रतीत होते हैं, अतः उन्हें नकारना संभव नहीं। आपने द्वितीय परिच्छेद में ठीक कहा है - 'जीवन, जीवन-पर्यन्त सब कुछ हमारे विपरीत होने का ही नाम है। हम पल-प्रतिपल अपनी सहनशीलता को अपनी ही कसौटी पर कसते रहते हैं। साथ ही उसके अनुरूप हो रहे सारे अनुकूल-प्रतिकूल बदलावों के अनुसार अपने-आपको ढालने के उबाऊ और थकाऊ प्रयासों के चक्रव्यूह में फँसते रहते हैं। पर उन विपरीतों में अचानक से कुछ ऐसा भी होता रहता है कि हम सहज भरोसा नहीं कर पाते हैं कि हमारे अनुकूल भी कुछ होता है। जो कि केवल संयोगवश ही होता है।' मरना तो तय ही है अमृता जी। कहाँ तक बचेंगे मौत से। इस कठिन समय में तो (अगर हम ख़ुद को एक अच्छा और विवेकशील मनुष्य मानते हैं) इस शेर पर अमल करने का प्रयास करना ही मैं उचित मानता हूँ -
ReplyDeleteबुझा है दिल भरी महफ़िल को रोशनी देकर
मरूंगा भी तो हज़ारों को ज़िन्दगी देकर
मन ऐसा हो होता है ... नए तर्क खोज ही लेता है समय के साथ ... या कहें तो बदलते समय के साथ ... जो बदल भी जाता है ...
ReplyDeleteइस समय की विवशता को बखूबी उकेरा है आपने | सच में सिर्फ रास्ता हमारे हाथ है ,मंज़िल ईश्वर के हाथ | सार्थक आलेख है !!
ReplyDeleteअपनी विवशताओं के बाद भी करने को बहुत कुछ है जो हमारे हाथ है ... सार्थक विचार ... सहमत हूँ
ReplyDeleteInn Bhawnaon aur Vicharon Ke Saath Mere Jaise Hamesha Khade Hain Aur Rahenge.....Sundar
ReplyDeleteपढ़कर मन में इतना उथल पुथल मचने लगा है कि डरता हूँ टिप्पणी मूल लेख से लंबी न हो जाय। फिलहाल इतना ही कहकर शमन का प्रयास करता हूँ कि दूसरा-अंतिम अनुच्छेद आज के समाज के मनोविज्ञान का दर्पण-सा उभर कर आया है जिसमें हम सबकी भावनाओं का प्रतिबिंब पूरी प्रखरता से झलमला रहा है।
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