तुमने कहा -
जिस आवृति से
विभिन्न तरंगदैर्ध पर
उठता गिरता है
तुम्हारा विचार
जिससे आवेशित होती हो
कम्पित होती हो
यथावत ईमानदारी से
रख दो उन विचारों को
कविता का सृजन होगा
पर क्यूँ दिखता है
सबकुछ धुंँधला धुंँधला
मेरे विचार ओढ़े हैं
मेरी कड़वाहट को
या मेरी आँखों पर
है काली पट्टी
या आईना पर
चढ़ गया है कलई दोतरफा
कैसे दिखेगी कविता
अपनी प्राकृतिक सुन्दरता में
निश्छल निष्कलंक .
आदरणीया अमृता तन्मय जी
ReplyDeleteसस्नेहाभिवादन !
~*~आपके ब्लॉग का एक वर्ष पूर्ण होने पर बधाई !~*~
नवरात्रि की शुभकामनाएं !
साथ ही…
*नव संवत्सर की हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं !*
नव संवत् का रवि नवल, दे स्नेहिल संस्पर्श !
पल प्रतिपल हो हर्षमय, पथ पथ पर उत्कर्ष !!
चैत्र शुक्ल शुभ प्रतिपदा, लाए शुभ संदेश !
संवत् मंगलमय ! रहे नित नव सुख उन्मेष !!
- राजेन्द्र स्वर्णकार
मन परा असर करती रचना
ReplyDeleteअमृता जी आपके ह्रदय की अमृत वर्षा ..और वर्षा दोनों का आनंद ले रहें हैं .....
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना ...आप जो लिखेंगी वही अमृतमयी कविता है ........
बहुत ही अच्छी प्रस्तुति ।
ReplyDeleteबेहतरीन कविता.
ReplyDeleteसादर
मन की तह तक जाती पंक्तियाँ.बहुत सुन्दर.
ReplyDeleteamrataaji amrit barsaatihui sunder bhavbeeni rachanaa.badhaai aapko.
ReplyDeleteplease visit my blog.thanks,
निश्छल निष्कलंक .... और निर्विकार आत्मा ने जो भी कहा ....अनहद ..अनहद
ReplyDeleteकैसे दिखेगी कविता
ReplyDeleteअपनी प्राकृतिक सुन्दरता में
निश्छल निष्कलंक
बस लिख दो
हम उसी को पढ़ने
आपके ब्लॉग पर आये हैं