वह प्रकृति के
ज्यादा करीब है
थोड़ी प्राकृतिक है...
शास्त्रों/सिद्धांतों से
थोड़ी दूर है
कम शिक्षित है...
बुद्धि की भाषा
पढ़ना नहीं चाहती
कम बौद्धिक है...
तर्को/झंझटों से
भागती रहती है
कम सभ्य है...
इसलिए उसे
रोना होता है
तो रो लेती है
हॅंसना होता है
तो हँस लेती है
थोड़ी जंगली है...
बोलना होता है
तो बोल देती है
चुप रहना होता है
तो चुप रहती है
थोड़ी मूर्ख है...
सामाजिकता के हर
कठोर नियम को
बार-बार तोड़कर
वह मुक्त होती है
व अप्राकृतिक सभ्यता को
बार-बार अंगूठा दिखा
सबको मुक्त करती है
क्योंकि वह मुक्त है ...
जो बँधे हैं
बाँधते रहे उसे
अपने किसी भी
सही-गलत उपाय से
पर उसकी मुक्ति तो...
ज्यादा करीब है
थोड़ी प्राकृतिक है...
शास्त्रों/सिद्धांतों से
थोड़ी दूर है
कम शिक्षित है...
बुद्धि की भाषा
पढ़ना नहीं चाहती
कम बौद्धिक है...
तर्को/झंझटों से
भागती रहती है
कम सभ्य है...
इसलिए उसे
रोना होता है
तो रो लेती है
हॅंसना होता है
तो हँस लेती है
थोड़ी जंगली है...
बोलना होता है
तो बोल देती है
चुप रहना होता है
तो चुप रहती है
थोड़ी मूर्ख है...
सामाजिकता के हर
कठोर नियम को
बार-बार तोड़कर
वह मुक्त होती है
व अप्राकृतिक सभ्यता को
बार-बार अंगूठा दिखा
सबको मुक्त करती है
क्योंकि वह मुक्त है ...
जो बँधे हैं
बाँधते रहे उसे
अपने किसी भी
सही-गलत उपाय से
पर उसकी मुक्ति तो...
.......सम्भव नहीं लग रही।
ReplyDeleteप्रकृति अन्ततः स्वयं को स्थापित कर लेती है।
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ReplyDeleteब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन तीसरी पुण्यतिथि पर विशेष - अंकल पई 'अमर' है - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
क्या आज के हालात में यह संभव दिखायी देता है? सार्थक प्रश्न उठाती बहुत प्रभावी रचना...
ReplyDeleteसुंदर !
ReplyDeleteसामाजिकता की चादर वास्तविक भावनाओं को ढक जो देती है !
ReplyDeleteउसकी मुक्ति .... उसका चक्रव्यूह है
ReplyDeleteजहाँ वह मासूमियत के साथ
बंधनों को खोल रही है
Uski mukti to tai hai ....jo man se mukt ho use koi nahi baandh sakta .....
ReplyDeleteउसकी मुक्ति तो किसी और को मुक्त कर देने में है..दरअसल उसके भीतर मनमुक्त महासागर है.. आँधियों में भी मासूम विह्वल भाव बिखेरती हुई...मौन..सहज..
ReplyDeleteमन से मुक्त वो अपनी दुनिया की मालकिन है भले सामाजिकता का बंधन उसे बार बार बांधे.........सुन्दर रचना ..........
ReplyDeleteउसकी मुक्ति तो अपने साथ - साथ सबको मुक्त करने में है ... असम्भव है उसे बांध पाना...
ReplyDeleteMaatrtwa watsalya mayi swaroop to hoti hi aisi hai.
ReplyDeleteनिश्चित है...
ReplyDeleteवही कुछ इंसानी गुण हैं, पिंजरा है, सलीब है....
ReplyDeleteकैसा संयोग है इसी बंधन पर आज सुबह फेसबुक पर यह अपडेट डाला -
ReplyDeleteकहाँ तो मनुष्य को चिर स्वतंत्र होना था और वह बंध गया जीवन के अनेक बंधनों से -माया मोह से ,पत्नी परिवार से ,देश काल से ,नाते रिश्तेदार से नौकरी -सेवकाई से और आज भी उसके तमाम अविकसित जैवीय विकास सहयात्री मुक्त स्वछंद जीवन बिता रहे हैं जंगलों में -अहा वन्य जीवन
सहजता और सरलता कि प्रतिमूर्ति
ReplyDeleteसभ्यता की बलिवेदी पर चढ़ती है प्राकृतिक मंशाएं !
ReplyDeleteसंवेदना से लवरेज प्रस्तुति।अप्रतिम । मेरे नए पोस्ट पर आपका इंतजार रहेगा।
ReplyDeleteउसकी मुक्ति गर चाहें तो संभव है। क्यूंकी असंभव में भी संभव छिपा होता है।
ReplyDeleteस्वयं सिद्ध है
ReplyDeleteउसकी मुक्ति तो सनातन है. वह खुद मुक्ति की परिभाषा है.
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