मानसिक विलासिता के
सोने के जंजीरों से
सिर से पांव तक बंधे हुए
अमरत्व को ओढ़कर
मरे हुए इतिहास के पन्नों पर
अपने नाम के अवशेष से
चिपकने की बेचैनी
खुद को मुख्य धारा में
लाने की छटपटाहट
चाय की चुस्कियां
आराम कुर्सियां
वैचारिक उल्टियां
प्रायोजित संगोष्ठियां
मुक्ति की बातें
विद्रुप ठहाके
इन सबमें
एक दबी हुई हँसी
मेरी भी है .
उत्कृष्ट शब्द समन्वय से परिपूर्ण प्रस्तुति।
ReplyDeleteसादर।
बहुत खूब.. यह हँसी स्वीकारोक्ति है या उपेक्षा के भाव से भरी है, अथवा तो इन सबकी असलियत पहचान कर आयी हँसी, पर वह तो दबी हुई नहीं होगी, जोरदार होगी, है न !
ReplyDelete'इन सबमें
ReplyDeleteएक दबी हुई हँसी
मेरी भी है '
स्वाभाविक है ऐसा होना।
बहुत खूबसूरती से, कम शब्दों में बड़ी बात कह दी आपने अमृता जी..
ReplyDeleteगज़ब का लेखन
ReplyDeleteवाह!गज़ब का सृजन आदरणीय दी।
ReplyDeleteसादर
बहुत खूब !!!
ReplyDeleteबेहतरीन रचना अमृता तन्मय जी 🌹🙏🌹
वाह अद्भुत 👌🏻👌🏻
ReplyDeleteअमरत्व को ओढ़कर
ReplyDeleteमरे हुए इतिहास के पन्नों पर
अपने नाम के अवशेष से
चिपकने की बेचैनी
खुद को मुख्य धारा में
लाने की छटपटाहट
सभी ऐसोआराम के साथ प्रायोजित संगोष्ठियों में ऐसी विद्रुप हँसियों के खिलाफ जाकर इतिहास में वर्णित उनके नाम को मिटाने की ताकत तो नहीं पर एक दबी हुई हँसी का व्यंगबाण ही सही...।
बहुत ही लाजवाब सृजन।
बहुत खूब लिखा अमृता जी,चाय की चुस्कियां
ReplyDeleteआराम कुर्सियां
वैचारिक उल्टियां
प्रायोजित संगोष्ठियां
मुक्ति की बातें...वाह
बहुत बढ़िया सृजन,अमृता दी।
ReplyDeleteबहुत खूब.... लाजवाब सृजन ।
ReplyDeleteढूंढ कर लाएं हैं..गहराइयों से निकालकर..
ReplyDeleteअपनाने के लिए कुछ, या रह जाने के लिए टालकर..
वाह क्या बात है. आसपास की क्रियाओं के प्रति तटस्थ हो कर सही जगह तीर मारा है.
ReplyDeleteमानसिक विलासिता के
सोने के जंजीरों से...
बहुत बहुत सशक्त सुन्दर रचना
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