Social:

Saturday, January 4, 2014

जहरमोहरा ....

शून्य को खाते-पीते हुए
शून्य को ही मरते-जीते हुए
हम जैसे शून्यवादी लोग
अंकों के गणित पर
या गणित के अंकों पर
आदतन आशिक-मिज़ाजी से
किसकदर ऐतबार करते हैं
ये हमसे कौन पूछता है ?
कौन पूछता है हमसे कि
हम क्यों अंकों के
आगे लगने के बजाय
हमेशा पीछे ही लगते है
या फिर हमें बेहद खास से
उन तीन और छह को
अपने हिसाब से आगे-पीछे
या ऊपर-नीचे करते रहना
औरों की तरह क्यों नहीं आता है ?
जबकि तीन और छह अंकों की
फिदाई समझौतापरस्ती में
नफा-नुकसान के हर
समर्थन व शर्तों के
इम्तिहान में किये गये
हिमायती हिमाकतों का हम भी
अपनी तरह से मुशार करते हैं
ये हमसे कौन पूछता है ?
हमसे कौन पूछता है कि
आंकड़ों की राजनीति से
हमारा दिल क्यों भर गया है ?
या हमें चुनने के लिए
सिर्फ दो ही क्यों नहीं मिलता है ?
जाहिर है तीन और छह के
रणनीतिक और प्रशासनिक कौशल की
कड़ी-से-कड़ी जांच करना
हमारे वश की तो बात नहीं
और तो उनके बीच के
प्यार-तकरार को किसी कटघरे में
खड़ा कराने वाले हम कौन ?
या उनके हासिल किये गये
विश्वास मत के लचीलापन पर
अन्य अंकों की पाक-साफ़ गवाही भी
लेने-देने वाले हम कौन ?
हम जैसे शून्यवादी लोग
आज की ईमानदारी के
हावी लटकों-झटकों पर
अपनी शुतुरदिली का मुलम्मा चढ़ा
अपनी फीसदी नुमा फीलपांव को
हिलाने का जुर्रत या जहमत करके भी
घटते हुए और भी शून्य हो जाते हैं
फिर तो अंकों के जहरदार जाल में
और उन्हीं की जल्लादी चाल में
उलझ-उलझ कर
जहरमोहरा होना ही है
और अपने शून्य में ही
किसी का भी नारा लगा कर
किसी के लिए भी ताली बजाकर
या किसी का भी टोपी पहन कर
ज़िंदादिली से जीतने का
या फिर जीते रहने का
जश्न भी मनाना ही है .

29 comments:

  1. क्या बढ़िया गूँथा है विषय को-
    आभार आदरेया -

    छत्तीसी पर वार कर, रहे उन्हें धिक्कार |
    मर्जी चलती आप की, भाये भ्रष्टाचार |
    भाये भ्रष्टाचार, तीन तेरह का चक्कर |
    जब चाहें ले चूम, कभी कर लेते टक्कर |
    आम बने अब ख़ास, काढ़ती पब्लिक खीसी |
    छह-सठ बड़े प्रवीण, हुई तैंतिस छत्तीसी ||

    ReplyDelete
  2. क्या खूब लिखा है.....
    वाह!!

    अनु

    ReplyDelete
  3. किसी अस्तित्व के आगे शून्य लगा कर अपना मान बढ़ाने वाले हम लोग अन्ततः शून्य में ही समा जाते हैं।

    ReplyDelete
  4. बेहतरीन अभिवयक्ति.....

    ReplyDelete
  5. हम लोग चाहें तो हो सकते हैं शून्‍य से हट कर 'एक'।

    ReplyDelete
  6. विकेश जी की बात से शतप्रतिशत सहमत हूँ ...हम लोग चाहें तो हो सकते हैं शून्‍य से हट कर 'एक'।

    ReplyDelete
  7. शून्य हो जाना बहुत बड़ी बात है !
    बहुत खूब !

    ReplyDelete
  8. शून्य हो जाना ही सबसे बेहतर ........... जिसके साथ लग जाओ, दस गुना बढ़ोतरी :)

    बेहतरीन रचना.... !!

    ReplyDelete
  9. क्या कुछ गहरा कटाक्ष किया है 'आप' ने
    रविकर जी की तैंतिस छत्तीसी भी अच्छी लगी.

    नववर्ष की बहुत बहुत हार्दिक शुभकामनाएँ अमृताजी.

    ReplyDelete
  10. काफी उम्दा प्रस्तुति.....

    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (05-01-2014) को "तकलीफ जिंदगी है...रविवारीय चर्चा मंच....चर्चा अंक:1483" पर भी रहेगी...!!!

    आपको नव वर्ष की ढेरो-ढेरो शुभकामनाएँ...!!

    - मिश्रा राहुल

    ReplyDelete
  11. sahi kataksh ..................Happy new year............

    ReplyDelete
  12. विचारनीय विन्दु शून्य है
    नया वर्ष २०१४ मंगलमय हो |सुख ,शांति ,स्वास्थ्यकर हो |कल्याणकारी हो |

    नई पोस्ट सर्दी का मौसम!
    नई पोस्ट विचित्र प्रकृति

    ReplyDelete
  13. बहुत ही सुंदर सार्थक सशक्त अभिव्यक्ति ! शून्य का महत्त्व किसी अन्य अंक के साथ जुड़ कर ही है अन्यथा तो वह भी महत्वहीन और व्यर्थ ही है ! उसकी महत्ता को बनाए रखने के लिये उसका प्रयोग सही स्थान पर और सावधानी के साथ करना आवश्यक है ! सुंदर रचना !

    ReplyDelete
  14. बेहतरीन अभिव्यंजना

    -----------
    ५.जहरमोहरा ....अमृता तन्मय
    -----------------------------------------------


    शून्य को खाते-पीते हुए
    शून्य को ही मरते-जीते हुए
    हम जैसे शून्यवादी लोग
    अंकों के गणित पर
    या गणित के अंकों पर
    आदतन आशिक-मिज़ाजी से
    किसकदर ऐतबार करते हैं
    ये हमसे कौन पूछता है ?
    कौन पूछता है हमसे कि
    हम क्यों अंकों के
    आगे लगने के बजाय
    हमेशा पीछे ही लगते है
    या फिर हमें बेहद खास से
    उन तीन और छह को
    अपने हिसाब से आगे-पीछे
    या ऊपर-नीचे करते रहना
    औरों की तरह क्यों नहीं आता है ?

    ReplyDelete

  15. बेहतरीन अभिव्यंजना

    -----------
    ५.जहरमोहरा ....अमृता तन्मय
    -----------------------------------------------


    शून्य को खाते-पीते हुए
    शून्य को ही मरते-जीते हुए
    हम जैसे शून्यवादी लोग
    अंकों के गणित पर
    या गणित के अंकों पर
    आदतन आशिक-मिज़ाजी से
    किसकदर ऐतबार करते हैं
    ये हमसे कौन पूछता है ?
    कौन पूछता है हमसे कि
    हम क्यों अंकों के
    आगे लगने के बजाय
    हमेशा पीछे ही लगते है
    या फिर हमें बेहद खास से
    उन तीन और छह को
    अपने हिसाब से आगे-पीछे
    या ऊपर-नीचे करते रहना
    औरों की तरह क्यों नहीं आता है ?

    ३६ का आंकड़ा हमारे और परमात्मा के बीच भी है वह हमारे हृदय में बैठा है हम उसकी तरफ पीठ किये हैं मुंह भौतिक ऊर्जा (माया )की तरफ है हमारा यही राजनीति में है ३६ का अ-प्रेम ,प्रेम पूर्ण सहयोग

    ReplyDelete
  16. कम्प्यूटर की बाइनरी भाषा एक और शून्य की होती है...यदि एक हाँ है तो शून्य ना...यहाँ शून्य की महिमा बराबर है...

    ReplyDelete
  17. द्विदलीय व्यवस्था अगर स्वतंत्रता के शुरूआती दिनों में ही लागू हो जाती तो अच्छा होता. कम से कम इस जोड़-तोड़ की नकेल पर देश को नहीं लुटना पड़ता. अच्छी बात है कि बहुत समय बाद कुछ ईमानदार लोग राजनीति से जुड़ना चाह रहे हैं और एक नया प्रयोग करना चाह रहे हैं. अब देखने वाली बात है कि किस हद तक परिवर्तन हो पाता है.

    ReplyDelete
  18. सच है हम शून्यवादी लोग शुन्य को सही जगह पर नहीं लगाते. आंकड़ों का जोड़ तोड़ अंक गणित के हिसाब से नहीं बल्कि जीवन के हिसाब से हुआ करता है. गहन सोच, बधाई.

    ReplyDelete
  19. वैसे तो शून्य जो जाना एकाकी हो जाना है .. मुक्त हो जाना है पर गणित के हिसाब से बहुत कुछ हो जाना भी है ... बस सही इस्तेमाल हो सकें ...

    ReplyDelete
  20. यह कविता कुछ-कुछ दिल को जला जाती है :)

    ReplyDelete
  21. अंको की माला गूँथ दी बेहतरीन

    ReplyDelete
  22. शून्य के स्वप्न से शून्य के यथार्थ तक....मुक्त होकर भी बस ....एक ही कहानी...

    ReplyDelete
  23. वाह अमृता जी, अंकों का खेल और शून्य की उपयोगिता को क्या खूब समझा है आपने..बधाई इस जश्न मनाने की फितरत पर...

    ReplyDelete
  24. वाह बहुत ही शानदार |

    ReplyDelete
  25. वाह शानदार सोच ...बहुत सुन्दर

    ReplyDelete