फिर से सांँझ हो रही है कहांँ हो मेरे हरकारे
कब से अब तक यूँ बैठी हूंँ मैं नदिया किनारे
फिर आज भी कहीं प्यासी ही लौट न जाऊं
तड़के उनींदे नयनों के संग फिर यहीं आऊं
थका सूरज किरणों को जैसे-तैसे समेट रहा है
धुँधलका भी जल्दी से क्षितिज को लपेट रहा है
चारों ओर एक अजीब- सी बेचैनी पिघल रही है
मेरी भी लालिमा अब तो कालिमा में ढल रही है
बगुला , बत्तख सब जा रहे अपने ठिकाने पर
शायद मछलियाँ भी चली गईं उस मुहाने पर
पंछियों ने तो नीड़ो तक यूँ मचाई होड़ाहोड़ी है
पर मैंने अब तक लंबी- लंबी सांँसे ही छोड़ी है
ओ! बालू के बने घरों को कोई कैसे फोड़ गया है
ओ! बिखरे सारे कौड़ियों को भी ऐसे तोड़ गया है
शंख , सीपियों की उदासी और देखी नहीं जाती
तुम जो ले आते मेरा पाती तो इन्हें पढ़के सुनाती
दूर कहीं मछुआरे कुछ गीले-गीले गीत गा रहें हैं
हुकती कोयलिया से ही पीर संगीत मिला रहे हैं
जैसे तरसती खीझ तिर- तिर कर कसमसाती है
मुझसे भी टीस लहरियां आ- आकर टकराती है
पीपल का पत्ता एक बार भी न झरझराया है
मंदिर का घंटा भी अब तक नहीं घनघनाया है
अंँचल की ओट में भी दीप बुझ-बुझ जाता है
मेरे भी पलकों के तट पर कुछ छलछलाता है
लहरों पर सिहरी-सिहरी सी ये कैसी परछाईं है
मँझधारों की भी अकड़ी-तकड़ी सी अँगराई है
तरुणी- सी तरणी बिन डोले ही सकुचा रही है
पल- पल रूक कर पुरवा भी पिचपिचा रही है
उन्मन चांँद का चेहरा क्यों उतरा- उतरा सा है
बादलों का बाँकपन कुछ बिसरा-बिसरा सा है
सप्तर्षियों की चल रही कौन-सी गुप्त मंत्रणा है
उनसे भी छुपाए नहीं छुप रही ये कैसी यंत्रणा है
इसी हालत में ही मेरे हरकारे घर तो जाना होगा
स्वागत में फिर नये-नये रूपों में वही ताना होगा
कैसे तोड़ूं उसकी सौं साखी है यह नदी किनारा
यदि आस जो छोड़ूं तो आखिरी सांँस हो हमारा
रात भर प्रीत जल-जलकर अखंड ज्योति बनेगी
इन नयनों से झर-झरकर बूंँदें मंगल मोती गढ़ेंगी
कल फिर जोबन ज्वार ले के आउँगी इसी किनारे
उस जोगिया का पाती ले जरूर आना मेरे हरकारे .
कल फिर जोबन ज्वार ले के आउँगी इसी किनारे
ReplyDeleteउस जोगिया का पाती ले जरूर आना मेरे हरकारे .
... किसी विरह नायिका की मनःस्थिति व प्रेमालाप को कई दृश्यों की सुगबुगाहट देकर अत्यंत ही मनोहारी रचना का सृजन किया है आपने। कुछ पंक्तियाँ पेश हैं.....
ऐसा विरह न देना,
चाहे और कुछ भी दे देना,
गम कोई भारी न इतना,
मन जाने मेरा,
तू क्या जाने!
बिसार दिया तूने कैसे!
सोंच-सोंच हारी मैं,
तुझ पर वारी मैं,
दे देना,
गम सारे अपने,
पर आ जाना
विरह न ऐसा देना....
साधुवाद व शुभ-कामनाएँ आदरणीया अमृता तन्मय जी।
रूमानी कहें या रूहानी..दोनों का संतुलित मिश्रण..बहुत ही खूबसूरत अहसासों का सृजन..
ReplyDeleteवाह बहुत ही शानदार सृजन
ReplyDeleteप्रतीक्षा में जो आनंद है वह तो मिलन में भी नहीं, जो अनोखे दृश्य इंतजार में आँखों ने देख लिए वह कहाँ दीखते यदि आ जाता वह जल्दी से ... सुंदर रचना !
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" बुधवार 23 दिसंबर 2020 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteयह गीत बहुत सुंदर है। इस गीत की जिस सहजता-सरलता से रचना हुयी है, उसी प्रकार इसके बारे में कहने के लिए सहज-सरल होना पड़ रहा है। प्रकृति तत्वों पर बैठकर प्रेम की लहरिया खेली जा रही है। पता नहीं कितनी बार आंखें रोकनी पड़ेंगी इस गीत के शब्दों पर, शब्दों के पीछे के भाव-संसार पर! ऐसा महसूस हो रहा है, इस गीत को आत्मसात करते हुये।
ReplyDeleteसमूची कायनात को समाहित किये भौतिकता और आध्यात्मिकता का अनूठा संगम..अति सुन्दर सृजन ।
ReplyDeleteबहुत सुंदर लिखा है आपने। बेहतरीन👌🌻
ReplyDeleteमन्त्रमुग्ध हूँ..
ReplyDeleteवाह! शानदार गीत।
ReplyDeleteसुंदर अभिव्यक्ति
ReplyDeleteबहुत खूब। बहुत बढ़िया। ढेरों शुभकामनाएँ। सादर ।
ReplyDeleteवाह!
ReplyDeleteक्या बात!
सुंदर अभिव्यक्ति।
प्रतीक्षा का माधुर्य बहुत सुन्दरता सेअभिव्यक्त किया है
ReplyDeleteNice...beautiful lines
ReplyDeleteयह मूमल की सदा नही। ...हरकारा हनुमानी होगा। ....काव्य मुदितकारी।
ReplyDeleteअंँचल की ओट में भी दीप बुझ-बुझ जाता है
ReplyDeleteमेरे भी पलकों के तट पर कुछ छलछलाता है
बहुत खूब.
सुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteबहुत खूब !आने वाला समय आपके और आपके सपूर्ण परिवार के लिए मंगलमात हो
ReplyDeleteफिर आज भी कहीं प्यासी ही लौट न जाऊं
ReplyDeleteतड़के उनींदे नयनों के संग फिर यहीं आऊं
वाह!!!
कैसे तोड़ूं उसकी सौं साखी है यह नदी किनारा
यदि आस जो छोड़ूं तो आखिरी सांँस हो हमारा
क्या बात....
बस इसी आस के साथ इतना अपरिमित इंतजार और अंत में उम्मीद भी सिर्फ एक पाती की...
कल फिर जोबन ज्वार ले के आउँगी इसी किनारे
उस जोगिया का पाती ले जरूर आना मेरे हरकारे
निशब्द करती बहुत ही सराहनीय लाजवाब प्रस्तुति...।
विरह प्रकृति और छलकता श्रृंगार, अद्भुत ताल मेल, प्रकृति के हर कलाप को नायिका ने प्रतीक्षा में ऐसे ढाल दिया जैसे काली दास मेघदूत रच रहे हों ।
ReplyDeleteअप्रतिम अभिनव।
संपूर्ण रचना का जवाब नहीं, अति उत्तम रचना, भा गयी नमन, धन्यबाद आपको
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