क्यों भर आता है
उन्मुग्ध नयन
जब ठहर जाता है
शीतल उच्छ्वास भर
उत्कंठित पवन...
घेर लेती है मुझे
कहीं से आकर
कोई कोमल किरण...
अचानक से
झिलमिला उठता है
बोझिल मन....
धीरे-धीरे पसरता है वही
कुछ अन्तरंग क्षण
जिसमें
खिल उठते हैं असंख्य
व्यथा - सुमन
चहुँ ओर गूँजने लगता है
करुण - कूजन
ओह !
बड़ा बेचैन हो जाता है मन
और वही
यादें हो जाती हैं
इतनी सघन
कि बहने लगती है
व्याकुल नदियाँ बन
तब दृष्टि-परिधि तक
दिखता है केवल
विरह - वन....
और क्या कहूँ ...?
या कैसे कहूँ....
कि मैं विरक्ता
तुम्हारे होने के
हर मरिचिजल पर
भरने लगती हूँ
विकल - कुलाँचे
निरीह मृगी बन .
क्यों भर आता है
ReplyDeleteउन्मुग्ध नयन
जब ठहर जाता है
शीतल उच्छ्वास भर
उत्कंठित पवन...
घेर लेती है मुझे
कहीं से आकर
कोई कोमल किरण...
अचानक से
झिलमिला उठता है
बोझिल मन....
khoobsoorat...
कि मैं विरक्ता
ReplyDeleteतुम्हारे होने के
हर मरिचिजल पर
भरने लगती हूँ
विकल - कुलाँचे
निरीह मृगी बन .
....लाज़वाब अहसास...बहुत भावमयी प्रस्तुति..
और क्या कहूँ ...?
ReplyDeleteया कैसे कहूँ....
कि मैं विरक्ता
तुम्हारे होने के
हर मरिचिजल पर
भरने लगती हूँ
विकल - कुलाँचे
निरीह मृगी बन .
kamaal..bahut sundar..
आपका लेखन अनुपम और अलग सा है.
ReplyDeleteपढकर मन भाव विभोर हो जाता है.
उत्कृष्ट लेखन के लिए आभार.
उत्कृष्ट लेखन भावनाओ से लबालब
Deleteभावों से नाजुक शब्द को बहुत ही सहजता से रचना में रच दिया आपने.........
ReplyDeleteसुंदरता से लिखी है मन की अनुभूति
ReplyDeleteन जाने कितना हिम पिघलता होगा आँखों ही आँखों में...
ReplyDeletesach kaha jab vikal, nireeh mragini ka man kulache bharta hai to aisa hi kuchh hota hai.
ReplyDeletesunder prastuti.
धीरे-धीरे पसरता है वही
ReplyDeleteकुछ अन्तरंग क्षण
जिसमें
खिल उठते हैं असंख्य
व्यथा - सुमन
अद्भुत और सुन्दर अंतर्कथा
वाह!
ReplyDeleteख़ूब लिखा है आपने
ReplyDelete....तब दृष्टि-परिधि तक
ReplyDeleteदिखता है केवल
विरह - वन....
...भरने लगती हूँ
विकल - कुलाँचे
निरीह मृगी बन .
मरीचि-जल का यही स्वरूप है लेकिन हम विरक्त हो कर उसे ही भरने लगते हैं. भावाभिव्यक्ति का यह नया रूप पढ़ने को मिला. बहुत ही सुंदर.
बेहतरीन भावपूर्ण
ReplyDeleteउन्मुग्ध नयन
ReplyDeleteउत्कंठित पवन...
बोझिल मन....
व्यथा - सुमन
दिखता है केवल
विरह - वन....
और क्या कहूँ ...?
इस मौसम में सब कुछ तो कह ही दिया आपने अमृताजी...
जो चाहती हैं सो कहती हैं आप..
मन को भा गया ........
राहुल
नाजुक-नाजुक शब्द से मन विभोर हो जाता.... ! बहुत ही सुंदर भावाभिव्यक्ति.... :):) http://bulletinofblog.blogspot.in/2012/02/blog-post_03.html
ReplyDeleteयादें हो जाती हैं
ReplyDeleteइतनी सघन
कि बहने लगती है
व्याकुल नदियाँ बन...
बहुत भावपूर्ण अभिव्यक्ति..
बहुत सुन्दर...आपका शब्द संयोजन बेमिशाल है !
ReplyDeleteआभार १
वाह !!!!!!!!!!!!!!!!!!!
ReplyDeleteअचानक से
ReplyDeleteझिलमिला उठता है
बोझिल मन....
व्यथा - सुमन
करुण - कूजन
ओह !
बड़ा बेचैन हो जाता है मन
और क्या कहूँ ...?
अमृताजी... आप तो सब कुछ कह गयीं
अपनी रूह के आसपास भटकती शब्दों की लड़ियाँ
वाह, बहुत ही सुन्दर, अलंकृत रचना!
ReplyDeleteतुम्हारे होने के
ReplyDeleteहर मरिचिजल पर
भरने लगती हूँ
विकल - कुलाँचे
निरीह मृगी बन .
सोचने पर मन बाध्य है अब ...मेरा प्रेम सत्य है ...अथवा मृगमरीचिका ...?
मैं विरक्ता
ReplyDeleteतुम्हारे होने के
हर मरिचिजल पर
भरने लगती हूँ
विकल - कुलाँचे
निरीह मृगी बन...
behad khoobsurat ! Vyatha...par behtareen shabd-shringaar se sajjit !
मन की भावनाओं का सुंदर प्रतिरूपण है इस प्रस्तुति में.
ReplyDeleteबहुत सुंदर कविता.
बधाई.
भावपूर्ण अभिव्यक्ति.
ReplyDeleteगहरा अहसास।
ReplyDeleteखूबसूरत भावाभिव्यक्ति।
अनुपमाजी, विरक्त को जल की तलाश...वह भी मरीचिका के जल की...! शब्दों पर आपकी पकड़ बहुत अच्छी है, बहुत-बहुत शुभकामनायें !
ReplyDeleteऔर क्या कहूँ ...?
ReplyDeleteया कैसे कहूँ....
कि मैं विरक्ता
तुम्हारे होने के
हर मरिचिजल पर
भरने लगती हूँ
विकल - कुलाँचे
निरीह मृगी बन .
विरहिणी की छटपटाहट का सुन्दर चित्र .
कैसे लिखती हो ...कहाँ से शब्द ले आती हो ...
ReplyDeleteह्रदय में कितना कुछ भरा हुआ है ...
Vah Amrita ji .....akhir dikha hi di apne kalam ki jadugari ....badhai
ReplyDeleteशिकायत भी और विरह वेदना भी,
ReplyDeleteलाजवाब |
मृग मरीचिका का ही दूसरा नाम जीवन है !
ReplyDeleteअच्छी कविता।
बेहतरीन रचना के लिए धन्यवाद.
ReplyDeleteमरीचिका से ही जीवन है...वर्ना सब सूखा-सूखा लगता...
ReplyDeleteजीवन में सुख और दुःख दोनों के रंग हैं.... बहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteवाह....खुदा न करे कभी कोई किसी से जुदा हो.....बहुत खुबसूरत पोस्ट |
ReplyDeleteगहन अहसास युक्त भावपूर्ण खूबसूरत अभिव्यक्ति.....
ReplyDelete... मैं विरक्ता
ReplyDeleteतुम्हारे होने के
हर मरिचिजल पर
भरने लगती हूँ
विकल - कुलाँचे
निरीह मृगी बन .
प्रेम की परिणिति ऐसी ही होती है ...एक छोटी सी आशा और वाकई कुलांचे भरने लगता है मन
विरक्ता शब्द चयन बहुत सुन्दर बन पड़ा है वंचिता ,शमिता सा .बहुत सुन्दर भाव का विरेचन करती रचना .
ReplyDeleteमिराज़ शब्द मृग मरीचका को तो जैसे आपने परिभाषित ही कर दिया है 'मरिचिजल 'शब्द प्रयोग से .कहाँ से लातीं हैं आप ये शब्द जो आपके भाव के पीछे पीछे स्वत :ही चले आतें हैं .
ReplyDeleteलाजबाव प्रस्तुति । मेरे पोस्ट पर आपका इंतजार रहेगा । धन्यवाद ।
ReplyDeleteकविता की यह पंक्ति मै विरही विरक्ता.....तो भाव के जिस जगह ले जाती है जंहा बरबस महादेवी जी की विरही कविताएँ bhi पीछे छुटने लगाती है .मुझे बिश्वास है की आने वाले कालखंड में हिंदी कविताओं में एक नए bhawdhara का प्रवेश होगा .और नए ध्वनात्मक शब्दों का भावों के प्रयोग और सम्प्रेसिन की एक नयी बिधा का सृजन होगा.कल के उदीयमान कवियत्री को अनेक सुभकामना .कृपया इस कविता के रास्ट्रिया मग्जिनो में पुब्लिश करने की anumati honi चाहिए .
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