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Saturday, February 4, 2012

मरिचिजल


क्यों भर आता है
उन्मुग्ध नयन
जब ठहर जाता है
शीतल उच्छ्वास भर
उत्कंठित पवन...
घेर लेती है मुझे
कहीं से आकर  
कोई कोमल किरण...
अचानक से
झिलमिला उठता है
बोझिल मन....
धीरे-धीरे पसरता है वही
कुछ अन्तरंग क्षण
जिसमें
खिल उठते हैं असंख्य
व्यथा - सुमन
चहुँ ओर गूँजने लगता है
करुण - कूजन
ओह !
बड़ा बेचैन हो जाता है मन
और वही
यादें हो जाती हैं
इतनी सघन
कि बहने लगती है
व्याकुल नदियाँ बन
तब दृष्टि-परिधि तक
दिखता है केवल
विरह - वन....
और क्या कहूँ ...?
या कैसे कहूँ....
कि मैं विरक्ता
तुम्हारे होने के
हर मरिचिजल पर
भरने लगती हूँ
विकल - कुलाँचे
निरीह मृगी बन .

42 comments:

  1. क्यों भर आता है
    उन्मुग्ध नयन
    जब ठहर जाता है
    शीतल उच्छ्वास भर
    उत्कंठित पवन...
    घेर लेती है मुझे
    कहीं से आकर
    कोई कोमल किरण...
    अचानक से
    झिलमिला उठता है
    बोझिल मन....

    khoobsoorat...

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  2. कि मैं विरक्ता
    तुम्हारे होने के
    हर मरिचिजल पर
    भरने लगती हूँ
    विकल - कुलाँचे
    निरीह मृगी बन .

    ....लाज़वाब अहसास...बहुत भावमयी प्रस्तुति..

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  3. और क्या कहूँ ...?
    या कैसे कहूँ....
    कि मैं विरक्ता
    तुम्हारे होने के
    हर मरिचिजल पर
    भरने लगती हूँ
    विकल - कुलाँचे
    निरीह मृगी बन .
    kamaal..bahut sundar..

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  4. आपका लेखन अनुपम और अलग सा है.
    पढकर मन भाव विभोर हो जाता है.
    उत्कृष्ट लेखन के लिए आभार.

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    Replies
    1. उत्कृष्ट लेखन भावनाओ से लबालब

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  5. भावों से नाजुक शब्‍द को बहुत ही सहजता से रचना में रच दिया आपने.........

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  6. सुंदरता से लिखी है मन की अनुभूति

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  7. न जाने कितना हिम पिघलता होगा आँखों ही आँखों में...

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  8. sach kaha jab vikal, nireeh mragini ka man kulache bharta hai to aisa hi kuchh hota hai.

    sunder prastuti.

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  9. धीरे-धीरे पसरता है वही
    कुछ अन्तरंग क्षण
    जिसमें
    खिल उठते हैं असंख्य
    व्यथा - सुमन
    अद्भुत और सुन्दर अंतर्कथा

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  10. ....तब दृष्टि-परिधि तक
    दिखता है केवल
    विरह - वन....

    ...भरने लगती हूँ
    विकल - कुलाँचे
    निरीह मृगी बन .
    मरीचि-जल का यही स्वरूप है लेकिन हम विरक्त हो कर उसे ही भरने लगते हैं. भावाभिव्यक्ति का यह नया रूप पढ़ने को मिला. बहुत ही सुंदर.

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  11. उन्मुग्ध नयन
    उत्कंठित पवन...
    बोझिल मन....
    व्यथा - सुमन
    दिखता है केवल
    विरह - वन....
    और क्या कहूँ ...?

    इस मौसम में सब कुछ तो कह ही दिया आपने अमृताजी...

    जो चाहती हैं सो कहती हैं आप..

    मन को भा गया ........

    राहुल

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  12. नाजुक-नाजुक शब्‍द से मन विभोर हो जाता.... ! बहुत ही सुंदर भावाभिव्यक्ति.... :):) http://bulletinofblog.blogspot.in/2012/02/blog-post_03.html

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  13. यादें हो जाती हैं
    इतनी सघन
    कि बहने लगती है
    व्याकुल नदियाँ बन...

    बहुत भावपूर्ण अभिव्यक्ति..

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  14. बहुत सुन्दर...आपका शब्द संयोजन बेमिशाल है !
    आभार १

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  15. अचानक से
    झिलमिला उठता है
    बोझिल मन....
    व्यथा - सुमन
    करुण - कूजन
    ओह !
    बड़ा बेचैन हो जाता है मन
    और क्या कहूँ ...?

    अमृताजी... आप तो सब कुछ कह गयीं

    अपनी रूह के आसपास भटकती शब्दों की लड़ियाँ

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  16. वाह, बहुत ही सुन्दर, अलंकृत रचना!

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  17. तुम्हारे होने के
    हर मरिचिजल पर
    भरने लगती हूँ
    विकल - कुलाँचे
    निरीह मृगी बन .

    सोचने पर मन बाध्य है अब ...मेरा प्रेम सत्य है ...अथवा मृगमरीचिका ...?

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  18. मैं विरक्ता
    तुम्हारे होने के
    हर मरिचिजल पर
    भरने लगती हूँ
    विकल - कुलाँचे
    निरीह मृगी बन...

    behad khoobsurat ! Vyatha...par behtareen shabd-shringaar se sajjit !

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  19. मन की भावनाओं का सुंदर प्रतिरूपण है इस प्रस्तुति में.

    बहुत सुंदर कविता.

    बधाई.

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  20. भावपूर्ण अभिव्यक्ति.

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  21. गहरा अहसास।
    खूबसूरत भावाभिव्‍यक्ति।

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  22. अनुपमाजी, विरक्त को जल की तलाश...वह भी मरीचिका के जल की...! शब्दों पर आपकी पकड़ बहुत अच्छी है, बहुत-बहुत शुभकामनायें !

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  23. और क्या कहूँ ...?
    या कैसे कहूँ....
    कि मैं विरक्ता
    तुम्हारे होने के
    हर मरिचिजल पर
    भरने लगती हूँ
    विकल - कुलाँचे
    निरीह मृगी बन .
    विरहिणी की छटपटाहट का सुन्दर चित्र .

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  24. कैसे लिखती हो ...कहाँ से शब्द ले आती हो ...
    ह्रदय में कितना कुछ भरा हुआ है ...

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  25. Vah Amrita ji .....akhir dikha hi di apne kalam ki jadugari ....badhai

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  26. शिकायत भी और विरह वेदना भी,
    लाजवाब |

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  27. मृग मरीचिका का ही दूसरा नाम जीवन है !
    अच्छी कविता।

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  28. बेहतरीन रचना के लिए धन्यवाद.

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  29. मरीचिका से ही जीवन है...वर्ना सब सूखा-सूखा लगता...

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  30. जीवन में सुख और दुःख दोनों के रंग हैं.... बहुत सुंदर रचना

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  31. वाह....खुदा न करे कभी कोई किसी से जुदा हो.....बहुत खुबसूरत पोस्ट |

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  32. गहन अहसास युक्त भावपूर्ण खूबसूरत अभिव्यक्ति.....

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  33. ... मैं विरक्ता
    तुम्हारे होने के
    हर मरिचिजल पर
    भरने लगती हूँ
    विकल - कुलाँचे
    निरीह मृगी बन .

    प्रेम की परिणिति ऐसी ही होती है ...एक छोटी सी आशा और वाकई कुलांचे भरने लगता है मन

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  34. विरक्ता शब्द चयन बहुत सुन्दर बन पड़ा है वंचिता ,शमिता सा .बहुत सुन्दर भाव का विरेचन करती रचना .

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  35. मिराज़ शब्द मृग मरीचका को तो जैसे आपने परिभाषित ही कर दिया है 'मरिचिजल 'शब्द प्रयोग से .कहाँ से लातीं हैं आप ये शब्द जो आपके भाव के पीछे पीछे स्वत :ही चले आतें हैं .

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  36. लाजबाव प्रस्तुति । मेरे पोस्ट पर आपका इंतजार रहेगा । धन्यवाद ।

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  37. कविता की यह पंक्ति मै विरही विरक्ता.....तो भाव के जिस जगह ले जाती है जंहा बरबस महादेवी जी की विरही कविताएँ bhi पीछे छुटने लगाती है .मुझे बिश्वास है की आने वाले कालखंड में हिंदी कविताओं में एक नए bhawdhara का प्रवेश होगा .और नए ध्वनात्मक शब्दों का भावों के प्रयोग और सम्प्रेसिन की एक नयी बिधा का सृजन होगा.कल के उदीयमान कवियत्री को अनेक सुभकामना .कृपया इस कविता के रास्ट्रिया मग्जिनो में पुब्लिश करने की anumati honi चाहिए .

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