कईसन बिपता अईले हो रामा !
अब बिरवा कईसे फूले हो रामा !
बढ़िया फसल के ढँढोरा पिटाई
अउर मरल बीज मुफ्ते बँटाई
अईसे घेघा में परल फास हो रामा !
बिथराई गईल सब आस हो रामा !
बिजुका हकबकाये रे बीचे खेत
आरी पर परल हई हरिया बिचेत
भाग उजार देलो दलाल हो रामा !
मानुस जनम पर मलाल हो रामा !
कटल करेजा न फूटल जरई
कऊन दाना अब चुगत चिरई
खेती न करब सरकारी हो रामा !
बिजहन के मारल बनिहारी हो रामा !
महाजन के बियाज कईसे लौटाई ?
पेट के ही खातिर मरियादा बिकाई
करम अभागा होई गेल हो रामा !
सरकार ला ई सब खेल हो रामा !
ढँढोरची के फूटल ढोल हो विधाता !
भुखर के ढारस से खाली जोरे नाता
नेतवन के त हमनीं थारी हो रामा !
जईसे भात-दाल-तरकारी हो रामा !
अब बिरवा कईसे फूले हो रामा !
कईसन बिपता अईले हो रामा !
बिपता- मुसीबत , बिरवा- पौधा
बिथराई- बिखरना , बिजुका- पुतला
हरिया- हल जोतने वाला
बिजहन- निर्जीव बीज
जरई- बीज से अंकुर
बनिहारी- खेती-बाड़ी.
अब बिरवा कईसे फूले हो रामा !
बढ़िया फसल के ढँढोरा पिटाई
अउर मरल बीज मुफ्ते बँटाई
अईसे घेघा में परल फास हो रामा !
बिथराई गईल सब आस हो रामा !
बिजुका हकबकाये रे बीचे खेत
आरी पर परल हई हरिया बिचेत
भाग उजार देलो दलाल हो रामा !
मानुस जनम पर मलाल हो रामा !
कटल करेजा न फूटल जरई
कऊन दाना अब चुगत चिरई
खेती न करब सरकारी हो रामा !
बिजहन के मारल बनिहारी हो रामा !
महाजन के बियाज कईसे लौटाई ?
पेट के ही खातिर मरियादा बिकाई
करम अभागा होई गेल हो रामा !
सरकार ला ई सब खेल हो रामा !
ढँढोरची के फूटल ढोल हो विधाता !
भुखर के ढारस से खाली जोरे नाता
नेतवन के त हमनीं थारी हो रामा !
जईसे भात-दाल-तरकारी हो रामा !
अब बिरवा कईसे फूले हो रामा !
कईसन बिपता अईले हो रामा !
बिपता- मुसीबत , बिरवा- पौधा
बिथराई- बिखरना , बिजुका- पुतला
हरिया- हल जोतने वाला
बिजहन- निर्जीव बीज
जरई- बीज से अंकुर
बनिहारी- खेती-बाड़ी.
महाजन के बियाज कईसे लौटाई ?
ReplyDeleteपेट के ही खातिर मरियादा बिकाई
करम अभागा होई गेल हो रामा ! ..
वाह ... हर छंद में जिन्दगी से जुड़ा कोई पहलू छुआ है ... आंचलिक भाषा का आनंद भी निराला होता है ... सुन्दर रचना ...
अच्छे दिनों का अंकुर कब फूटेगा उन अभागे जन-बनिहारों का ? सिर्फ आंचलिकता नहीं, ये तो समूचे इंसानियत की पीड़ा है.......................
ReplyDeleteVery Nice Your are Superb you. Get Bollywood and Fashion Updates
ReplyDeleteबहुत खूब।
ReplyDeleteBahut sundar prastuti amrita ji . Bhojpuri bayar bahakar samsyaon ki or dhyan akrisht kara kr aapne rachna ki sarthakta ko kai guna badha diya hai .
ReplyDeleteआंचलिक छंद(भोजपुरी) में मुझे विदेशी बीजों से अंकुर न उग पाने की पीड़ा साफ़ दिखाई पड़ रही है.
ReplyDeleteबहुत सुंदर प्रस्तुति.
आंचलिक अभिव्यक्ति लिए सुन्दर रचना
ReplyDeleteगाँव-किसान के जिनगी के पीड़ा आउर सच्चाई एह गीत में उभरल बा। चैता शैली में यथार्थ के सही चित्रण कइल गइल बा। चैत महीना बदलाव के प्रतीक ह। दुखियन के दुःख दूर होखे, सबके जिनगी निखरे...
ReplyDeleteबहुत अच्छी रचना !
ReplyDeleteगोस्वामी तुलसीदास
अमृता जी आपको पढ़ना हमेशा ही सुकुन देता है..बड़े दिन बाद आया....आपकी कविता इसी तरह निखरती दिल को सुकुन पहुंचाती रहे..
ReplyDeleteगज़ब...लाजवाब प्रस्तुति...
ReplyDeleteअपने अंचल की खुशबु समेटे सुंदर प्रस्तुति।
ReplyDeleteग्राम्य आभास। सुन्दर।
ReplyDeleteलोकभाषा में लोकव्यथा. बढ़िया लगा पढ़कर.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति...
ReplyDeleteChir Vyatha!
ReplyDeleteChir Vyatha!
ReplyDeleteAre waaaah ! shabdon ne to sammohit hi kr liya sarthak or sashakt abhvykti.......
ReplyDeleteभोजपुरी का व्याकरण तो नहीं जानता हूँ लेकिन लोक शैली में लिखे गए शब्दों ने संप्रेषित होने में कोई कमी नहीं छोड़ी. बहुत खूब.
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