बसंत कियो जो हिय में बसेरा
आपुई मगन भयो मन मेरा
आओ पिय अब हमारे गाँव
बसंत को दियो अमरपुरी ठाँव
फिर कोंपलें फूट-फूट आई
फिर पत्तों ने पांजेब बजाई
झरत दसहुँ दिस मोती
मुट्ठी भर हुलास भयो होती
झीनी-झीनी परत प्रेम फुहार
चेति उड़ियो पंख पसार
कहा कहूँ इस देस की
प्रेम-रंग-रस ओढ़े भेस की
चहुंओर अमरित बूंद की आंच
सांच सांच सो सांच
जस पनिहारिन धरे सिर गागर
नैनन ठहरियो तो पेहि नागर
सब कहहिं प्रेम पंथ ऐसो अटपटो
तो पिय आओ , मोसे लिपटो
दांव ऐसो ही है दासि की
मद पिय करे सहज आसिकी
पिय मिलन की भई सब तैयारी
पीवत जो बसंतरस लगी खुमारी .
आपुई मगन भयो मन मेरा
आओ पिय अब हमारे गाँव
बसंत को दियो अमरपुरी ठाँव
फिर कोंपलें फूट-फूट आई
फिर पत्तों ने पांजेब बजाई
झरत दसहुँ दिस मोती
मुट्ठी भर हुलास भयो होती
झीनी-झीनी परत प्रेम फुहार
चेति उड़ियो पंख पसार
कहा कहूँ इस देस की
प्रेम-रंग-रस ओढ़े भेस की
चहुंओर अमरित बूंद की आंच
सांच सांच सो सांच
जस पनिहारिन धरे सिर गागर
नैनन ठहरियो तो पेहि नागर
सब कहहिं प्रेम पंथ ऐसो अटपटो
तो पिय आओ , मोसे लिपटो
दांव ऐसो ही है दासि की
मद पिय करे सहज आसिकी
पिय मिलन की भई सब तैयारी
पीवत जो बसंतरस लगी खुमारी .
झीनी-झीनी परत प्रेम फुहार
ReplyDeleteचेति उड़ियो पंख पसार ..
बसंत, बहार ... प्रेम फुहार ... मन पखेरू उड़ो हमार ...
बहुत ही सुन्दरता से गढ़े छंद ... मज़ा आ गया ...
सार्थक प्रस्तुति।
ReplyDelete--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (01-02-2015) को "जिन्दगी की जंग में" (चर्चा-1876) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
तभी तो बुल्ले शाह भी कहने से अपने को रोक नहीं पाये
ReplyDeleteबुल्लिहआ शौह दी सेज पिआरी,
नी मैं तारनहारे तारी
किंवे किंवे मेरी आई वारी
हुंण विछ्ड़नं होइआ मुहाल नी …।
बहुत सुन्दर खुमारी। बहुत सुन्दर गीतगान।
ReplyDeleteआहा...इस पर क्या कहा जाय सिवाय ग़ालिब के इन शब्दों के -
ReplyDeleteकरता है बसके बाग़ में तू बेहिजाबियाँ
आने लगी है नकहत-ऐ-गुल से हया मुझे...
झरत दसहुँ दिस मोती
ReplyDeleteमुट्ठी भर हुलास भयो होती
झीनी-झीनी परत प्रेम फुहार
चेति उड़ियो पंख पसार
कहा कहूँ इस देस की
प्रेम-रंग-रस ओढ़े भेस की
चहुंओर अमरित बूंद की आंच
सांच सांच सो सांच
बहुत खूबसूरत भाव अमृता जी
अहा, सुन्दर.... बहुत सुन्दर
ReplyDeleteपहले भी लिख चुके हैं और अब भी लिख रहे हैं आपकी कलम में अमृता जी अद्भुत क्षमता है। कभी नागार्जुन का व्यंग्य, कभी समकालीन कवि बन वर्तमान का वास्तव, कभी महादेवी का दुःख-दर्द-पीडा तो कभी मीरां का कृष्णमय होना।
ReplyDeleteबासंती मौसम के भाव को संजोय सुंदर प्रस्तुति।
ReplyDeleteबसंत का सुन्दर चित्रण...
ReplyDeleteअहा-अहा बहुत खूबसूरत रचना … हिय की अमराई में बौरा उठा बसंत …
ReplyDeleteअहा, बहुत सुंदर प्रस्तुति। http://natkhatkahani.blogspot.com
ReplyDeleteबसंत का जादू सिर चढ़ कर बोलने लगा है..खूबसूरत रचना..
ReplyDeleteबहुत सुंदर ...
ReplyDeleteबहुत बहुत खूब...
ReplyDeleteWelcome Basant!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर ..वासंती चित्रण ने तो मन मोह ही लियो
ReplyDeleteजय श्री राधे
भ्रमर ५