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Thursday, January 8, 2015

आ न कौआ ........

                   आ! मेरे मुँडेर पर भी तू आ न कौआ
                    उसे टेर पर टेर दे कर बुला न कौआ
                  मेरा मनचाहा पाहुन आये या न आये
                  झूठ- सच जोड़ मुझे फुसला न कौआ

                   रात की हर आहट ने है मुझे जगाया
                   कोई वंशी-धुन आ साँसों से टकराया
                 हिय की हलबलाहट क्या बताऊँ कौआ
                  बड़ी जुगत से सपनों को संयत कराया

                तिस पे रात ने पूछा यह भुलावा किसलिए ?
                  औ' नींद ने पूछा यह छलावा किसलिए ?
                   कुछ कहने को नहीं रह जाता है कौआ
               जब देह भी पूछता है यह बुलावा किसलिए ?

                   अब भोर हुआ जग गए धरती-गगन
                  बोझ से झपीं पलकें है अभी तक नम
                  किन्तु ये आस तो मौन नहीं है कौआ
                   देखो! द्वार पर ही बैठे हैं दोनों नयन

                    हर घड़ी की भाव- दशा है स्वागत की
                   तू ही तो संदेशा लाता है हर आगत की
                   मेरा पाहुन आएगा , आएगा न कौआ ?
                    ना मत कह , मत बात कर आहत की

                   कहूँ तो एकमात्र अतिथि है मेरा पाहुन
                  जो बिन तिथि के ही ले आता है फागुन
                  इस तिथि को तू भी अतिगति दे कौआ
                  और तू टेर पर टेर दे कर, कर न सगुन

                   आ! उस ऊँची मुँडेर से तू आ न कौआ
                  अपना चंचल गीत तू किलका न कौआ
                   इस घर-आँगन, देहरी-दरवाजे पर बैठ
                  मेरे मनचाहा पाहुन को तू बुला न कौआ .  
   

23 comments:

  1. अति मनभावन प्रवाह। कविता का भी कवयित्री का भी।

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  2. इस मनमोहक मनुहार पर न जाने कितने धर्म परिवर्तन को लालायित हो जाएँ ? वैसे भी कौवा अब नजर आता नहीं है और पाहुन तो पोथी-पतरा समेट दूर जा रहे हैं।

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  3. बहुत अच्छा लगा पड़ कर लाजवाब रचना ...मंगलकामनाएँ

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  4. मन के भीतर की पीडा, दर्द और इंतजार में मनुहार आने के निमंत्रण के नाते।

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  5. प्रतीक्षा की सुन्दर तस्वीर बनती भावपूर्ण रचना

    सुन कागा की बोली मुडेर पर नयनन में तस्वीर उभरती
    आगंतुक का स्वागत करने हिय में है इक पीर मचलती

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  6. बहुत सुंदर मनुहार...इस पर कौआ भला कैसे न रीझेगा...

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  7. ऐसी मनुहार पहले नहीं पढ़ी. बहुत ही प्रवाहमयी अभिव्यक्ति.

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  8. बहुत सुंदर भाव लि‍ए है रचना...बधाई

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  9. किसी गाँव के बिरहा की बिरह की दास्ताँ प्रस्तुत करती रचना।
    मेरी सोच मेरी मंजिल

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  10. बहुत ही सुन्दर कोमलभाव रचना...

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  11. इस निमंत्रण पर तो भगवन भी खुद को आने से न रोक पाएं।

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  12. 'सोने चोंच मढ़ाए देब बायस ,जओ पिया आवत आज रे !'
    -विद्यापति.

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  13. कोमल भाव पर अफ़सोस आज कल दिखाई ही नहीं दे रहे कौवे ... शिकार हो गए हैं मानव की तथाकथित प्रगति के ... शब्द, प्रवाह और भाव का संगम है यह रचना ...

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  14. बहुत सुन्दर..... प्रभावित करते , बहते भाव

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  15. बहुत ही उम्दा...

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  16. Very nice post ..
    जल्दी ही एक हिन्दी ब्लॉग का निर्माण...
    Jeewantips

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  17. बहुत सुंदर प्रस्तुति, मेरे ब्लॉग पर भी आपका स्वागत है.
    iwillrocknow.blogspot.in

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  18. इस घर-आँगन, देहरी-दरवाजे पर बैठ
    मेरे मनचाहा पाहुन को तू बुला न कौआ .

    निशब्द करती रचना,बहुत सुंदर,,,

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  19. मनभावन मनुहार...

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  20. अपनी कर्कशता के कारण भले ही सबके मन ना सुहाए लेकिन है तो बेजोड़ खबरिया यह. सुन्दर कविता.

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