आ! मेरे मुँडेर पर भी तू आ न कौआ
उसे टेर पर टेर दे कर बुला न कौआ
मेरा मनचाहा पाहुन आये या न आये
झूठ- सच जोड़ मुझे फुसला न कौआ
रात की हर आहट ने है मुझे जगाया
कोई वंशी-धुन आ साँसों से टकराया
हिय की हलबलाहट क्या बताऊँ कौआ
बड़ी जुगत से सपनों को संयत कराया
तिस पे रात ने पूछा यह भुलावा किसलिए ?
औ' नींद ने पूछा यह छलावा किसलिए ?
कुछ कहने को नहीं रह जाता है कौआ
जब देह भी पूछता है यह बुलावा किसलिए ?
अब भोर हुआ जग गए धरती-गगन
बोझ से झपीं पलकें है अभी तक नम
किन्तु ये आस तो मौन नहीं है कौआ
देखो! द्वार पर ही बैठे हैं दोनों नयन
हर घड़ी की भाव- दशा है स्वागत की
तू ही तो संदेशा लाता है हर आगत की
मेरा पाहुन आएगा , आएगा न कौआ ?
ना मत कह , मत बात कर आहत की
कहूँ तो एकमात्र अतिथि है मेरा पाहुन
जो बिन तिथि के ही ले आता है फागुन
इस तिथि को तू भी अतिगति दे कौआ
और तू टेर पर टेर दे कर, कर न सगुन
आ! उस ऊँची मुँडेर से तू आ न कौआ
अपना चंचल गीत तू किलका न कौआ
इस घर-आँगन, देहरी-दरवाजे पर बैठ
मेरे मनचाहा पाहुन को तू बुला न कौआ .
उसे टेर पर टेर दे कर बुला न कौआ
मेरा मनचाहा पाहुन आये या न आये
झूठ- सच जोड़ मुझे फुसला न कौआ
रात की हर आहट ने है मुझे जगाया
कोई वंशी-धुन आ साँसों से टकराया
हिय की हलबलाहट क्या बताऊँ कौआ
बड़ी जुगत से सपनों को संयत कराया
तिस पे रात ने पूछा यह भुलावा किसलिए ?
औ' नींद ने पूछा यह छलावा किसलिए ?
कुछ कहने को नहीं रह जाता है कौआ
जब देह भी पूछता है यह बुलावा किसलिए ?
अब भोर हुआ जग गए धरती-गगन
बोझ से झपीं पलकें है अभी तक नम
किन्तु ये आस तो मौन नहीं है कौआ
देखो! द्वार पर ही बैठे हैं दोनों नयन
हर घड़ी की भाव- दशा है स्वागत की
तू ही तो संदेशा लाता है हर आगत की
मेरा पाहुन आएगा , आएगा न कौआ ?
ना मत कह , मत बात कर आहत की
कहूँ तो एकमात्र अतिथि है मेरा पाहुन
जो बिन तिथि के ही ले आता है फागुन
इस तिथि को तू भी अतिगति दे कौआ
और तू टेर पर टेर दे कर, कर न सगुन
आ! उस ऊँची मुँडेर से तू आ न कौआ
अपना चंचल गीत तू किलका न कौआ
इस घर-आँगन, देहरी-दरवाजे पर बैठ
मेरे मनचाहा पाहुन को तू बुला न कौआ .
आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (09.01.2015) को "खुद से कैसी बेरुखी" (चर्चा अंक-1853)" पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें और अपने विचारों से अवगत करायें, चर्चा मंच पर आपका स्वागत है।
ReplyDeleteअति मनभावन प्रवाह। कविता का भी कवयित्री का भी।
ReplyDeleteइस मनमोहक मनुहार पर न जाने कितने धर्म परिवर्तन को लालायित हो जाएँ ? वैसे भी कौवा अब नजर आता नहीं है और पाहुन तो पोथी-पतरा समेट दूर जा रहे हैं।
ReplyDeleteसार्थक रचना।
ReplyDeleteबहुत अच्छा लगा पड़ कर लाजवाब रचना ...मंगलकामनाएँ
ReplyDeleteमन के भीतर की पीडा, दर्द और इंतजार में मनुहार आने के निमंत्रण के नाते।
ReplyDeleteप्रतीक्षा की सुन्दर तस्वीर बनती भावपूर्ण रचना
ReplyDeleteसुन कागा की बोली मुडेर पर नयनन में तस्वीर उभरती
आगंतुक का स्वागत करने हिय में है इक पीर मचलती
बहुत सुंदर मनुहार...इस पर कौआ भला कैसे न रीझेगा...
ReplyDeleteऐसी मनुहार पहले नहीं पढ़ी. बहुत ही प्रवाहमयी अभिव्यक्ति.
ReplyDeleteबहुत सुंदर भाव लिए है रचना...बधाई
ReplyDeleteबहुत सुन्दर भाव.
ReplyDeleteनई पोस्ट : तेरी आँखें
किसी गाँव के बिरहा की बिरह की दास्ताँ प्रस्तुत करती रचना।
ReplyDeleteमेरी सोच मेरी मंजिल
बहुत ही सुन्दर कोमलभाव रचना...
ReplyDeleteइस निमंत्रण पर तो भगवन भी खुद को आने से न रोक पाएं।
ReplyDelete'सोने चोंच मढ़ाए देब बायस ,जओ पिया आवत आज रे !'
ReplyDelete-विद्यापति.
कोमल भाव पर अफ़सोस आज कल दिखाई ही नहीं दे रहे कौवे ... शिकार हो गए हैं मानव की तथाकथित प्रगति के ... शब्द, प्रवाह और भाव का संगम है यह रचना ...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर..... प्रभावित करते , बहते भाव
ReplyDeleteबहुत ही उम्दा...
ReplyDeleteVERY NICE TOPIC DEAR KEEP GOING SUPERB
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Very nice post ..
ReplyDeleteजल्दी ही एक हिन्दी ब्लॉग का निर्माण...
Jeewantips
बहुत सुंदर प्रस्तुति, मेरे ब्लॉग पर भी आपका स्वागत है.
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इस घर-आँगन, देहरी-दरवाजे पर बैठ
ReplyDeleteमेरे मनचाहा पाहुन को तू बुला न कौआ .
निशब्द करती रचना,बहुत सुंदर,,,
मनभावन मनुहार...
ReplyDeleteअपनी कर्कशता के कारण भले ही सबके मन ना सुहाए लेकिन है तो बेजोड़ खबरिया यह. सुन्दर कविता.
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