जीवित सत्य से भ्रष्ट की गयी हूँ
मिथ्या सत्य से त्रस्त की गयी हूँ
समाज से या स्वयं से
बनाने/बचाने में ही
हाय! कैसे मैं नष्ट की गयी हूँ
अब मैं धिक्कार लूँ ?
या आग की ललकार लूँ ?
या दर्द से दुलार लूँ ?
या काट की तलवार लूँ ?
केवल मैं धिक्कार हूँ ?
या स्वयं से स्वीकार लूँ ?
या समाज से प्रतिकार लूँ ?
या द्वंद से दुत्कार लूँ ?
अनजान होना पड़ता है कुछ जानकर भी
बहुत कुछ मानना पड़ता है न मानकर भी
साँचे में ढालना पड़ता है स्वयं को सानकर भी
कैसे मैं धिक्कार लूँ ?
कैसे प्रतिगत प्रहार लूँ ?
कैसे निर्वीर्य आभार लूँ ?
कैसे प्रतिपापी आधार लूँ ?
क्या मैं धिक्कार लूँ ?
या क्या केवल विष-आहार लूँ ?
या क्या सत्य से ही निवार लूँ ?
या क्या मिथ्या से भी अंगार लूँ ?
सबकुछ भष्म करने को लपलपाती हुई जीवित आग है
प्राण में भी उन्मन सा सरसराता हुआ नाग है
अर्थ , उद्देश्य , लक्ष्य क्या ? या जीवन ही विराग है
धिक्कार , धिक्कार , धिक्कार दूँ
इस मृत समाज को धिक्कार दूँ
सब मृत सत्य को धिक्कार दूँ
और मृत जीवन को भी धिक्कार दूँ
क्यों मैं धिक्कार लूँ ?
क्यों न विक्षोभ का हाहाकार लूँ ?
क्यों न विरोध का विकार लूँ ?
क्यों न विद्रोह का आकार लूँ ?
जीवित सत्य से भ्रष्ट की गयी हूँ मैं
मिथ्या सत्य से त्रस्त की गयी हूँ मैं
सत्य है , सबसे नष्ट की गयी हूँ मैं
पर आह ! नष्ट नहीं हुई हूँ मैं .
मिथ्या सत्य से त्रस्त की गयी हूँ
समाज से या स्वयं से
बनाने/बचाने में ही
हाय! कैसे मैं नष्ट की गयी हूँ
अब मैं धिक्कार लूँ ?
या आग की ललकार लूँ ?
या दर्द से दुलार लूँ ?
या काट की तलवार लूँ ?
केवल मैं धिक्कार हूँ ?
या स्वयं से स्वीकार लूँ ?
या समाज से प्रतिकार लूँ ?
या द्वंद से दुत्कार लूँ ?
अनजान होना पड़ता है कुछ जानकर भी
बहुत कुछ मानना पड़ता है न मानकर भी
साँचे में ढालना पड़ता है स्वयं को सानकर भी
कैसे मैं धिक्कार लूँ ?
कैसे प्रतिगत प्रहार लूँ ?
कैसे निर्वीर्य आभार लूँ ?
कैसे प्रतिपापी आधार लूँ ?
क्या मैं धिक्कार लूँ ?
या क्या केवल विष-आहार लूँ ?
या क्या सत्य से ही निवार लूँ ?
या क्या मिथ्या से भी अंगार लूँ ?
सबकुछ भष्म करने को लपलपाती हुई जीवित आग है
प्राण में भी उन्मन सा सरसराता हुआ नाग है
अर्थ , उद्देश्य , लक्ष्य क्या ? या जीवन ही विराग है
धिक्कार , धिक्कार , धिक्कार दूँ
इस मृत समाज को धिक्कार दूँ
सब मृत सत्य को धिक्कार दूँ
और मृत जीवन को भी धिक्कार दूँ
क्यों मैं धिक्कार लूँ ?
क्यों न विक्षोभ का हाहाकार लूँ ?
क्यों न विरोध का विकार लूँ ?
क्यों न विद्रोह का आकार लूँ ?
जीवित सत्य से भ्रष्ट की गयी हूँ मैं
मिथ्या सत्य से त्रस्त की गयी हूँ मैं
सत्य है , सबसे नष्ट की गयी हूँ मैं
पर आह ! नष्ट नहीं हुई हूँ मैं .
जो संवेदनहीन हैं वे मृत समान हैं उनके लिए धिक्कार भी कम है ....
ReplyDeleteबहुत सुंदर एवं भावपूर्ण.
ReplyDeleteनई पोस्ट : फासले कब मिटा करते हैं
इतने झंझावातों के बाद भी नष्ट नहीं हुई हूं मैं...........सद्भावनाओं की कार्यपरायणता इससे बेहतर क्या हो सकती है!!!
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर , शुभकामनाएं !
ReplyDeleteपर आह, इस मृत इस मृत समाज, मृत सत्य और मृत जीवन में ही डूबना-उतराना है
ReplyDeleteबहुत कुछ मानना पड़ता है न मानकर भी.....
भावो को खुबसूरत शब्द दिए है अपने.....
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति...
ReplyDeleteकई भावों एवं प्रश्नों के भीतर छटपाते 'मैं' की अभिव्यक्ति सबको समा लेती है।
ReplyDeleteनष्ट होने की प्राकृति को ख़त्म करना होगा ... झंझावातों में जीना होगा ...
ReplyDeleteप्रतिकार नहीं ... धिक्कार नहीं ... स्वाभिमान से जीना होगा ...
अस्तित्व का भान करवाते भाव
ReplyDeleteयही तो विडम्बना है की इतना सब सहकर भी ...'नष्ट नहीं हुई हूँ मैं'...
ReplyDeleteWaaaaaaaaaaaaaaaaaaah
ReplyDeleteसत्यमेव जयते!
ReplyDeleteये पंक्तियाँ बहुत ही जीवंत हैं
ReplyDeleteअनजान होना पड़ता है कुछ जानकर भी
बहुत कुछ मानना पड़ता है न मानकर भी
जो सब नष्ट होकर भी बचा रह जाता है वही तो जानने योग्य है..और वही तो आप निकलीं..
ReplyDeleteयही एक स्वीकार है जिसे एक ओर पृथक किया जा सकता है और अपनी चेतना और विचिंतन के सहारे परिस्थितियों के सामने नतमस्तक ना होकर दृढ़तापूर्वक अपना पक्ष रखने देने का बल देता है. स्वीकार की इस स्थिति का ज्ञान बहुत जरूरी है.
ReplyDeleteपर आह ! नष्ट नहीं हुई हूँ मैं .
ReplyDeleteवाह क्या बात है