जब-जब
ओस की बूँदें बेचैन होंगी
घास के मुरझाये पत्तों पर ढरकने को
धीरे से धरती भी छलक कर उड़ेल देगी
भींगा-भींगा सा अपना आशीर्वाद
और बूँदों के रोम-रोम से
घास का पोर-पोर रच जाएगा
हरियाली की कविता से
तब-तब मैं पढ़ ली जाऊँगी
उन तृप्ति की तारों में
जब-जब
आखिरी किरणों से
सफ़ेद बदलियों पर बुना जाएगा
रंग-बिरंगा ताना-बाना
उसमें घुलकर फ़ैल जाएगा
कुछ और , कुछ और रंग
हौले से आकाश भी उतरकर
मिला देगा अपनी सुगंध
उन रंगों की कविता में
तब-तब मैं पढ़ ली जाऊँगी
हर किरण की कतारों में
जब-जब
आनंद की ओर
उचक-उचक कर झाँकते
किसी की प्रतीक्षा में खड़े दो नयन
अपनी सारी धूलिकण को बहाकर
तारों से आती आशा के सन्देश को
कोने-कोने की किलकारी बनायेंगे
और एक प्रार्थना बिखरने लगेगी
कण-कण की कविता से
तब-तब मैं पढ़ ली जाऊँगी
हर आश्चर्य की पुकारों में
जब-जब
हवाओं की छन्दों को
छू-छू कर बेसुध राग फूटेंगे
जिसपर जग-साँसें गीत गायेंगी
थिरक उठेगा ये जीवन
अपने ही उल्लास से भरकर
एक लय की कविता में
तब-तब मैं पढ़ ली जाऊँगी
निर्झर-सी झनकारों में
इस धरती से उस आकाश तक
मैं ही लिखी जाती हूँ
और मैं ही पढ़ी जाती हूँ....
इस छोर से उस छोर तक की
एक उन्मुक्त उद्गारा हूँ मैं
हाँ! कल-कल-कल-कल करती हुई
अनंत की अनवरत काव्य-धारा हूँ मैं .
ओस की बूँदें बेचैन होंगी
घास के मुरझाये पत्तों पर ढरकने को
धीरे से धरती भी छलक कर उड़ेल देगी
भींगा-भींगा सा अपना आशीर्वाद
और बूँदों के रोम-रोम से
घास का पोर-पोर रच जाएगा
हरियाली की कविता से
तब-तब मैं पढ़ ली जाऊँगी
उन तृप्ति की तारों में
जब-जब
आखिरी किरणों से
सफ़ेद बदलियों पर बुना जाएगा
रंग-बिरंगा ताना-बाना
उसमें घुलकर फ़ैल जाएगा
कुछ और , कुछ और रंग
हौले से आकाश भी उतरकर
मिला देगा अपनी सुगंध
उन रंगों की कविता में
तब-तब मैं पढ़ ली जाऊँगी
हर किरण की कतारों में
जब-जब
आनंद की ओर
उचक-उचक कर झाँकते
किसी की प्रतीक्षा में खड़े दो नयन
अपनी सारी धूलिकण को बहाकर
तारों से आती आशा के सन्देश को
कोने-कोने की किलकारी बनायेंगे
और एक प्रार्थना बिखरने लगेगी
कण-कण की कविता से
तब-तब मैं पढ़ ली जाऊँगी
हर आश्चर्य की पुकारों में
जब-जब
हवाओं की छन्दों को
छू-छू कर बेसुध राग फूटेंगे
जिसपर जग-साँसें गीत गायेंगी
थिरक उठेगा ये जीवन
अपने ही उल्लास से भरकर
एक लय की कविता में
तब-तब मैं पढ़ ली जाऊँगी
निर्झर-सी झनकारों में
इस धरती से उस आकाश तक
मैं ही लिखी जाती हूँ
और मैं ही पढ़ी जाती हूँ....
इस छोर से उस छोर तक की
एक उन्मुक्त उद्गारा हूँ मैं
हाँ! कल-कल-कल-कल करती हुई
अनंत की अनवरत काव्य-धारा हूँ मैं .
आकाश की किरण, प्रार्थना की किलकारी, हवा का राग, उन्मुक्त उद्गारा यह अनन्त अनवरत् काव्यधारा............लगता है पाठक इस में जल बन बह रहा है शान्त-सुशील।
ReplyDeleteकविता की सर्वव्य्पकता, कण कण में रची बसी कविता , प्रकृति के हर रूप में हर स्वरूप में ,जितनी तारीफ की जाए कम है ...हार्दिक बधाई के साथ
ReplyDeleteइस छोर से उस छोर तक की
ReplyDeleteएक उन्मुक्त उद्गारा हूँ मैं
हाँ! कल-कल-कल-कल करती हुई
अनंत की अनवरत काव्य-धारा हूँ मैं,,,
बहुत उम्दा प्रस्तुति,,,
RECENT POST : फूल बिछा न सको
सृजन के स्वर सदा ही पूजे जाते हैं।
ReplyDeleteSO NICE LINES WITH GREAT AND DEEP EMOTIONS BLENDED WITH NATURAL LAW
ReplyDeleteइस धरती से उस आकाश तक
ReplyDeleteमैं ही लिखी जाती हूँ
और मैं ही पढ़ी जाती हूँ....
इस छोर से उस छोर तक की
एक उन्मुक्त उद्गारा हूँ मैं
हाँ! कल-कल-कल-कल करती हुई
अनंत की अनवरत काव्य-धारा हूँ मैं .
बहुत ही प्रभावशाली रचना, शुभकामनाएं.
रामराम.
कविता आपसे वैसे ही मिलती है,
ReplyDeleteजैसे ख्वाब देखने के बाद
जिन्दगी को हकीकत मिलती है ..
अमृता जी बहुत बढ़िया रचना...
ReplyDeleteकविता का पूरा मूड सुकून से भरा है, एक सुकून भरी दुनिया में ले जाने वाली कविता
ReplyDeleteरचनाओं की मौलिकता, भाव त्वरण, शब्द युग्मों की मनभावन लड़ियाँ और उससे भी ज्यादा उनका विस्तृत फलक कुछ ऐसी चीजें है जो आपकी कविताओं में अनूठापन प्रदान करती हैं. निस्संदेह समय साक्षी होगा आपको बार-बार पढ़े जाने का. बहुत-बहुत धन्यवाद और शुभकामनयें आपकी रचनाओं के लिए.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति.. आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी पोस्ट हिंदी ब्लॉग समूह में सामिल की गयी और आप की इस प्रविष्टि की चर्चा - सोमवार -02/09/2013 को
ReplyDeleteमैंने तो अपनी भाषा को प्यार किया है - हिंदी ब्लॉग समूह चर्चा-अंकः11 पर लिंक की गयी है , ताकि अधिक से अधिक लोग आपकी रचना पढ़ सकें . कृपया आप भी पधारें, सादर .... Darshan jangra
bahut sunder prastuti
ReplyDeleteतारों से आती आशा के सन्देश को
ReplyDeleteकोने-कोने की किलकारी बनायेंगे
और एक प्रार्थना बिखरने लगेगी
कण-कण की कविता से
तब-तब मैं पढ़ ली जाऊँगी
बहुत सुन्दर हमेशा की तरह
जब-जब
ReplyDeleteहवाओं की छन्दों को
छू-छू कर बेसुध राग फूटेंगे
जिसपर जग-साँसें गीत गायेंगी
थिरक उठेगा ये जीवन
अपने ही उल्लास से भरकर
एक लय की कविता में
तब-तब मैं पढ़ ली जाऊँगी
निर्झर-सी झनकारों में
वाह बहुत सुंदर ,
सच कहा तुमने और इसीलिए नहीं रहता यह ध्यान -
ReplyDeleteसत्य ही रहता नहीं ये ध्यान ,
तुम कविता ,कुसुम या कामिनी हो।
इस धरती से उस आकाश तक
मैं ही लिखी जाती हूँ
और मैं ही पढ़ी जाती हूँ....
इस छोर से उस छोर तक की
एक उन्मुक्त उद्गारा हूँ मैं
हाँ! कल-कल-कल-कल करती हुई
अनंत की अनवरत काव्य-धारा हूँ मैं .
कितना सुन्दर चित्रण है उस चिन्मयता का जो प्रकृति की ताल और लय में व्यक्त होती और काव्य में मुखर हो उठती है !
ReplyDeleteइस धरती से उस आकाश तक
ReplyDeleteमैं ही लिखी जाती हूँ
और मैं ही पढ़ी जाती हूँ....
इस छोर से उस छोर तक की
एक उन्मुक्त उद्गारा हूँ मैं
हाँ! कल-कल-कल-कल करती हुई
अनंत की अनवरत काव्य-धारा हूँ मैं .
बहुत सुन्दर.
कोलाज जिन्दगी के : अगर हम जिन्दगी को गौर से देखें तो यह एक कोलाज की तरह ही है. अच्छे -बुरे लोगों का साथ ,खुशनुमा और दुखभरे समय के रंग,और भी बहुत कुछ जो सब एक साथ ही चलता रहता है.
http://dehatrkj.blogspot.in/2013/09/blog-post.html
कण कण में व्याप्त कविता ... बहुत सुंदर
ReplyDeleteअसाधारण बिंबों के माध्यम से कही गई अनंत काव्य-धारा की सुरीली कथा.
ReplyDeleteजब-जब
ReplyDeleteहवाओं की छन्दों को
छू-छू कर बेसुध राग फूटेंगे
जिसपर जग-साँसें गीत गायेंगी
थिरक उठेगा ये जीवन
अपने ही उल्लास से भरकर
एक लय की कविता में
तब-तब मैं पढ़ ली जाऊँगी
निर्झर-सी झनकारों में
अद्भुत अमृता जी, बहुत गहन और सुंदर भाव कुसुम..बधाई !
इस धरती से उस आकाश तक
ReplyDeleteमैं ही लिखी जाती हूँ
और मैं ही पढ़ी जाती हूँ....
इस छोर से उस छोर तक की
एक उन्मुक्त उद्गारा हूँ मैं
हाँ! कल-कल-कल-कल करती हुई
अनंत की अनवरत काव्य-धारा हूँ मैं .
..बहुत खुबसूरत भाव
latest post नसीहत
इस धरती से उस आकाश तक
ReplyDeleteमैं ही लिखी जाती हूँ
और मैं ही पढ़ी जाती हूँ....
इस छोर से उस छोर तक की
एक उन्मुक्त उद्गारा हूँ मैं
हाँ! कल-कल-कल-कल करती हुई
अनंत की अनवरत काव्य-धारा हूँ मैं ...
मैं प्राकृति हूं ... प्रेम हूं ... शब्द हूं ... नाद हूं ... मैं ही हूं वो माया जो साब ओर है ... अनुपम रचना ...
नमस्कार आपकी यह रचना कल मंगलवार (03-09-2013) को ब्लॉग प्रसारण पर लिंक की गई है कृपया पधारें.
ReplyDeleteबहुत सुंदर !!
ReplyDeleteसृजन महत्ता और सार्थकता बताती बेजोड़ अभिव्यक्ति....
ReplyDeleteअत्यन्त सुंदर ,रचना ,असीम अनंत दायरा ....अदभुत |
ReplyDeleteनई पोस्ट-“जिम्मेदारियाँ..................... हैं ! तेरी मेहरबानियाँ....."
इस छोर से उस छोर तक की
ReplyDeleteएक उन्मुक्त उद्गारा हूँ मैं
हाँ! कल-कल-कल-कल करती हुई
अनंत की अनवरत काव्य-धारा हूँ मैं,,,बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति....
इस धरती से उस आकाश तक
ReplyDeleteमैं ही लिखी जाती हूँ
और मैं ही पढ़ी जाती हूँ....
इस छोर से उस छोर तक की
एक उन्मुक्त उद्गारा हूँ मैं
हाँ! कल-कल-कल-कल करती हुई
अनंत की अनवरत काव्य-धारा हूँ मैं .
एक-एक पंक्ति गहन भाव लिये हुए हैं
और खुद के प्रति आदरांजलि अर्पित करती प्रतीत होती हैं।।।
एक लय की कविता में
ReplyDeleteतब-तब मैं पढ़ ली जाऊँगी
वाह ...
मन को सहलाती ...उन्मुक्त .....पहाड़ों से कल-कल करती नदी सी रचना
ReplyDelete.....बहुत ही प्यारी
सुभानाल्लाह
ReplyDeleteप्रकृति की लय ताल से सम बैठाती एक सुकोमल अभिव्यक्ति
ReplyDeleteइस धरती से उस आकाश तक
ReplyDeleteमैं ही लिखी जाती हूँ
और मैं ही पढ़ी जाती हूँ....
इस छोर से उस छोर तक की
एक उन्मुक्त उद्गारा हूँ मैं
हाँ! कल-कल-कल-कल करती हुई
अनंत की अनवरत काव्य-धारा हूँ मैं .
Waaaaaaaaah.
बेहतरीन काव्य-धारा के प्रवाह में समूची प्रकृति उतर आई है. दोहराव की सुंदर उपमा है....लिखे और पढ़े जाने के संदर्भ में.
ReplyDeletekavita ka aapne bhut achha varnan kiya hai
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