आज की इस अर्थव्यवस्था पर
की जा रही कोई भी टिप्पणी
मुझे टीन एजर सा कन्फ्यूज कर रही है
और मजेदार से मजेदार व्यंग भी
हाई डोज कोकीन सा बरगला रहा है
सेंसेटिव कविता तो सीधे
डांस-बार में ही पैर पटकवा रही है
ऊपर से ये विश्लेष्ण-विमर्श
उफ्फ! डेंगू सा कंपकंपा कर डरा रहा है....
जब हम पर चारों तरफ से
मार ही मार पड़ रही हो तो
कुछ भी समझ में नहीं आता है
बस मंदी के चक्रव्यूह में
देश का विकास दिख रहा है
और दिख रहा है दिवालियेपन का मुहाना
जो मुँह मोड़ने को राजी नहीं है....
इससे कैसे बचकर हम कहाँ जाएँ ?
क्या माडर्न मंहगाई को ही चबा-चबा कर खूब खाएँ ?
और तो और अपने रुपया को कैसे डॉलर बनाएँ ?
कैसे सबके हिस्से का गुलछर्रे उड़ायें ?
इस राष्ट्रीय संकट की चपेट में
धीरे-धीरे हम सब आ रहे हैं
और एक-दूसरे को कुछ भी
उल्टा-सीधा कहकर समझा रहे हैं
जबकि तस्वीर बिल्कुल साफ़ है
इसपर झूठ बोलना तो और भी माफ़ है...
भ्रम फैला रही बहसों के बीच
टी.वी. का चैनल बदल-बदल कर
खुद को उबा और थका रही हूँ
फिर दिल को थोड़ा बहलाने के लिए
मोबाईल मैसेजिंग व नेट चैटिंग पर
ज्यादा से ज्यादा समय लगा रही हूँ
साथ ही आऊट डेटेड डेट पर जा-जा कर
इंटरटेनमेंट का न्यू-न्यू आईडिया बुला रही हूँ...
पर लगता है कि इस मंदी में
बुद्धि भी बहुत मंद हो चली है
आगे मंडराते चुनाव में
वो एटम बम वाला नहीं बल्कि
किसी ऐसे हिटलर को देख रही है
जो हार्ड डिसीजन को अप्लाई करके
इस लड़खड़ाते देश को थोड़ा संभाल ले
और अर्थव्यवस्था को गर्त से निकाल दे...
पर इस मंद बुद्धि में कोई 'बुद्धिमान जी'
आकर बार-बार कहते हैं कि
'मैडम बुद्धू ' बैलेट से ऐसे पिकुलियर चेंजेज
बस आपके माइंड में ही पलते हैं....
बहुत टेंशन हो रहा है सच में
सोच रही हूँ कि अब नया क्या किया जाए ?
या कुछ नया करने के लिए किचन में चला जाए
देशी-विदेशी सारी कुकरी किताब खोलकर
ग्लोबलाइज्ड डिशेज को आजमाया जाए...
बॉडी का वेट बढे तो उसका टेंशन
पर खा-खा कर ही सही
औनेस्टली टेंशन का वेट घटाया जाए .
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ReplyDeleteआज के हालात का बहुत सुन्दर चित्र खीचा है..सटीक रचना अमृता जी..
ReplyDeleteसोचा नहीं था इतनी जल्दी यूँ पासा पलटेगा. अभी २००९ की तो बात है कितना मजबूत था रुपया. कुछ वैश्विक परिस्थिति भी और कुछ मोटे चूहों का उत्पात ..अनबियरेबल हालात.
ReplyDeleteरो रहे रुपये का दर्द कौन सुने!
ReplyDeleteवेरी वेल रिटेन.
दलदल के बाहर निकल कर ही पता लगा पायेंगे कि क्या हुआ था।
ReplyDeleteक्या बात! वाह!
ReplyDeleteवक्त कभी एक सा नहीं रहता...अमृता जी, ऐसे ही समय में धैर्य की परीक्षा होती है..तब तक किचन ही सहारा देगा..
ReplyDeleteटीवी की चांय-चांय देखना बन्द कर दें। टेंशन बन्द हो जाएंगी। आप जैसी कवयित्री को ये फर्जी मन्दी, रुपए की गिरावट तनाव दे ये बात कुछ समझ नहीं आई। हां किचेन में जाकर अच्छे-अच्छे पकवान बनाएं और मोटापे की चिन्ता छोड़ कर ठूंस-ठूंस कर खाएं। यही उपाय है।
ReplyDeleteमस्त हास्य ओर व्यंग की धार ... टेंशन का वेट खा खा के ही घटेगा अब तो ...
ReplyDeleteटीन एजर सा कन्फ्यूज
ReplyDeleteआऊट डेटेड डेट
नए गढ़े ये व्यंग्यात्मक शब्द …. वर्तमान व्यवस्था पर करारा व्यंग्य.....शानदार
सुन्दर प्रस्तुति -
ReplyDeleteआभार -
बेहद सटीक और सामयिक व्यंग रचना.
ReplyDeleteरामराम.
बहुत सुन्दर प्रस्तुति.. आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी पोस्ट हिंदी ब्लॉग समूह में सामिल की गयी और आप की इस प्रविष्टि की चर्चा - शुक्रवार -6/09/2013 को
ReplyDeleteधर्म गुरुओं का अधर्म की ओर कदम ..... - हिंदी ब्लॉग समूह चर्चा-अंकः13 पर लिंक की गयी है , ताकि अधिक से अधिक लोग आपकी रचना पढ़ सकें . कृपया आप भी पधारें, सादर .... Darshan jangra
खा-खा कर ही सही
ReplyDeleteऔनेस्टली टेंशन का वेट घटाया जाए ....वैसे सुझाव बुरा नहीं है ....
यह समाचार चैनलों के फास्ट फूड के कारण है :) टेंशन का वेट कम करना हो तो केवल 'दूरदर्शन समाचार' ही खाया जाए :))
ReplyDeleteअब टेंशन का टेंशन घटाने की टेंशन ...?
ReplyDeleteख्याल बुरा नहीं है ...................
यथार्थपरक
ReplyDeleteमैडम बुद्धू ' बैलेट से ऐसे पिकुलियर चेंजेज
ReplyDeleteबस आपके माइंड में ही पलते हैं....
...बिल्कुल सच...बहुत सटीक और सार्थक रचना...
kavita achhi hai
ReplyDeleteआज के हालात के सही चित्रण .....
ReplyDeleteआज के हालात का वास्तविक चित्रण.
ReplyDeleteमेरे पढने में आई आपकी शायद यह पहली व्यंग्यात्मक कविता है। रुपए का घटता मूल्य और अंतर्राष्ट्रीय बाजार के कारण भारत की आर्थीक स्थिति का डगमगाना तो तय है। महंगाई एक ऐसी चीज है जो कभी कम होगी नहीं। सरकार की आर्थिक नीति का सामान्य आदमी पर प्रभाव पडता है, बाकी नीति का सीधा प्रभाव पडे न पडे। आपने इन बातों पर उंगली रखी है। आशा है आपकी व्यंग्य दृष्टि और पैनी होते जाए। अपनी भाषा और आपके क्षेत्र से जुडे बडे कवि बाबा नागार्जुन जी ने सरकारी तंत्र पर कडवे व्यंग्य किए। जिनके लेखनी से आपात्काल में इंदिरा जी बची नहीं। अपेक्षा की नए उभरते कवियों में आप जैसे कई वहां तक पहुंचे।
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ReplyDeleteबॉडी का वेट बढे तो उसका टेंशन
पर खा-खा कर ही सही
औनेस्टली टेंशन का वेट घटाया जाए .
बहुत सुंदर प्रस्तुति
“अजेय-असीम"
ReplyDelete-सुंदर प्रस्तुति ,करारा व्यंग्य |
वीरूभाई कैंटन(मिशिगन )
ReplyDeleteबहुत सटीक। बेहद सशक्त व्यंग्य। सिरों की गिनती वाले इस प्रजातंत्र में बेलट को गठ्-बंधनिया जोड़ भी खा जाता है।
पर इस मंद बुद्धि में कोई 'बुद्धिमान जी'
आकर बार-बार कहते हैं कि
'मैडम बुद्धू ' बैलेट से ऐसे पिकुलियर चेंजेज
बस आपके माइंड में ही पलते हैं....
हा हा हा..सही...जबरदस्त!!:)
ReplyDeleteआपने अर्थशास्त्र की उलझनों का अपनी कविता में सुंदर वर्णन किया है. बहुत-बहुत शुक्रिया बेहतरीन कविता के लिए.
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