हर व्यक्तित्व का अपना स्वभाव, अपना संस्कार, अपना व्यवहार होता है और बहुआयामी व्यक्तित्व वो होता है जो किसी भी बौद्धिक आयामी सांचे में न बंधकर, जीवन जनित समस्त अनुभवों को स्वतंत्र रूप से आत्मसात करता है। जब कभी उसके भीतर छिपा हुआ कवि उसे आवाज देता है तो वह अपनी ही सारी सीमाओं को तोड़कर शब्दों में गढ़ देता है । वो खुद ही प्रथम पाठक के रूप में उस कविता की खोज में सतत् लगा रहता है जो उसके नितांत व्यक्तिगत प्रतिक्रिया के परिणाम स्वरूप जन्म लेती है । संभवत उस कविता में कहने वाला मौन हो जाता है और जीवन का गहरा अर्थ अपने आप प्रकट हो जाता है । जो किसी भी संकुचित दायरा को विस्तार देने के लिए कटिबद्ध होता है ।
लेकिन शब्द और शब्द की अन्तरात्मा का ज्ञान भी शब्दों की सीमा का अतिक्रमण नहीं कर पाते है जब अर्थ अनंत हो तो । उन अनंत अर्थों की भावनाओं में कुछ भावनाएं ऐसी भी होती है जो किसी के लिए अनायास होती है और प्रकट होकर भार मुक्त होना चाहती है । मानो वह कहना चाह रही हो कि मुझ हनुमान के तुम ही जामवंत हो और तुम न मिलते तो अपनी ही पहचान नहीं हो पाती । फिर कविता रूपी सिंधु पार करना तो असंभव ही था। यदि यह प्रकटीकरण किसी अंतर्मुखी चेतना के द्वारा हो तो शब्द और भी स्वच्छंद हो जाते हैं अपनी महत्ता स्थापित करने के लिए । फिर उन्हें संप्रेषण के लिए मनाना किसी पहाड़ पर चढ़ने के जैसा हो जाता है । पर पहाड़ चढ़े बिना भी तो कैलाश नहीं मिलता है और कैलाश के बिना आप्त शिव नहीं मिलता ।
वह अंतर्मुखी व्यक्तित्व अपने लेखन के यायावरी यात्रा को पलट कर देखता है तो पाता है कि जैसे वह अपने ही खदान से निकला हुआ कोई बेडौल , बेढंगा, अनगढ़-सा रंगीन पत्थर हो । जिस पर कुछ जौहरियों की नजर पड़ती है, जो बड़े प्यार से उसे छेनी और हथौड़ी थमा देते हैं और प्रेरित करते हैं कि खुद ही अपने को काटो, छांटो और तराशो । साथ में ये भी बताते हैं कि तुम हीरा हो । वो रंगीन पत्थर प्रेमपूर्ण प्रेरणा और संबल पाकर खुद को धार देते हुए संवारने लगता है । कालांतर में वह अपने ही निखार से चकित और विस्मित भी होता रहता है । तब उसे पता चलता है कि वह भी एक कोहिनूर हीरा है । अक्सर कुछ जौहरी जरूरत के हिसाब से खुद छेनी और हथोड़ी भी चला दिया करते हैं ताकि उस हीरा में और भी निखार आ सके । तब वह हीरा उन जौहरियों के आगे बस नतमस्तक होता रहता है ।
उस यात्रा में काव्य तत्व की तलाश में भटकने का अपना एक अलग ही रोमांच है । कल्पना के कल्पतरू पर नया प्रयोग, नयी शैली, नया जीवन संदर्भ जैसे मौलिक फूलों को उगाना भी अपने आप में रोचक है । किसी की बातें उसके मुंह से छीन लेने की इच्छा, किसी के सत्य से खुद को जोड़ लेने की लालसा, किसी की संवेदना में खुद को तपा देने की आकांक्षा परकाया गमन को अनुभव करने जैसा ही है । फिर ये कहना कि चेतना के तल पर हम एक ही तो हैं पूर्णता को पाने के जैसा ही है । उसे जब एक-एक शब्द पर सराहते हुए पढ़ा जाता है तो वह और भी विनयशील होकर अपने को नये ढंग से संस्कारित करता है । पर वह अपने मनोवेगों को अधिक मुखर नहीं होने देता है और संतुलन के साथ वाक्-संयम के तप में लीन रहता है । जिससे कुछ गलतफहमियां भी होती रहती है, कुछ नाराजगी भी होती होती रहती है और वह हाथ जोड़कर क्षमा मांगने के अतिरिक्त कुछ नहीं कर पाता है ।
अंत में सारे दृश्य और अदृश्य सम्माननीय पाठकों को हार्दिक आभार प्रकट करते हुए ये चिट्ठा कवि कहना चाहता है कि आंतरिक इच्छा होती है कि अपने ही उन अव्यक्त भावों को शब्दों में बांध कर अंकुरित करता रहे जो स्नेह-बूंदों से पल्लवित-पुष्पित होकर सर्वग्राही होता रहे । साथ ही उत्साहित होकर अपनी ही बनाई हुई सीमाओं को लांघने के लिए उत्सुक भी है । जिसे देखना उसके लिए भी काफी दिलचस्प होगा ।
ये चिट्ठा कवि कह रहा है ...
प्रिय अमृता जी, काव्य यात्रा की ये मोहक विवेचना अपने आप में किसी मधुर, सरस काव्य से तनिक भी कम नहीं। सच है कवि मौन हो जाता है पर भाव खुद शब्द- शब्द निर्झर से अविरल बह निकलते हैं। और सृजन यात्रा में कोई ना कोई प्रेरक तत्व कल्पतरु की भाँति प्रकट हो अपने खोये अस्तित्व से मिलवा जाता है या कहूँ मिटते वज़ूद को बुलंदी का रास्ता दिखा देता है। कविमन की आभार की ये अनोखी अदा याद रहेगी। कोटि आभार इस सुंदर काव्यात्मक गद्य के लिए। ये भावयात्रा यूँ ही निरंतर जारी रहे 🌹🌹🙏❤❤
ReplyDeleteरचनाओं के मन में जन्मने से लेकर शब्दों में गढ़ने तक की सृजनात्मकता की यात्रा अपने आप में अनूठी होती है।
ReplyDeleteरचनाएँ मात्र शब्द संरचना नहीं होती एक कवि मन का भावनात्मक अभिव्यक्ति होती है।
मन से मन पुल बाँधता सुंदर लेख।
सादर।
अदभुद है आपका रचना संसार। शुभकामनाएं।
ReplyDeleteआपके इस आलेख को पढ़कर बहुत कुछ सीखा जा सकता है । प्रथम पंक्ति ही पर्याप्त है इस प्रयोजन के लिए - 'हर व्यक्तित्व का अपना स्वभाव, अपना संस्कार, अपना व्यवहार होता है और बहुआयामी व्यक्तित्व वो होता है जो किसी भी बौद्धिक आयामी सांचे में न बंधकर, जीवन जनित समस्त अनुभवों को स्वतंत्र रूप से आत्मसात करता है'। हृदयतल से आभार तथा असीमित अभिनंदन आपका ।
ReplyDeleteमन को शीतल करती सराहनीय अभिव्यक्ति विचारों की गहनता मन मोह गई।
ReplyDeleteसादर नमस्कार।
वाह ! कवि के अंतर में झाँक कर देखना तो कोई आपसे सीखे, कविता कैसे आकार पाती है और कैसे उसका पहला पाठक कवि स्वयं होता है, इन सारे तथ्यों को कितनी ख़ूबसूरती से आपने व्यक्त कर दिया है, आपकी उन्मुक्त रचनाधर्मिता को अनेकानेक नमन !
ReplyDeleteमन से मन तक की यात्रा का जीवंत चित्रण अमृता जी !
ReplyDeleteआपकी अद्भुत सृजनात्मक शैली और लेखनी हर बार एक अलग सा भावसिक्त संसार सृजित कर मंत्रमुग्ध कर देती है।
एक अंतर्मुखी व्यक्तित्व अपने लेखन के यायावरी यात्रा को पलट कर देखता है तो पाता है कि जैसे वह अपने ही खदान से निकला हुआ कोई बेडौल , बेढंगा, अनगढ़-सा रंगीन पत्थर हो । जिस पर कुछ जौहरियों की नजर पड़ती है, जो बड़े प्यार से उसे छेनी और हथौड़ी थमा देते हैं और प्रेरित करते हैं कि खुद ही अपने को काटो, छांटो और तराशो । साथ में ये भी बताते हैं कि तुम हीरा हो ।
ReplyDeleteएक सत्य को बड़े ही सुनाई तरीके से स्पष्ट किया है आपने। ऐसा कर पाना तभी संभव है जब लिखने वाला स्वयं भी एक गंभीर अंतःमुखी चिंतन वाला व्यक्तित्व हो।
हार्दिक शुभकामनाएँ आपकी आदरणीया अमृता तन्मय जी। आपकी बहुआयामी लेखनी दिन ब दिन मुझे और भी प्रभावित करती जाती है। आभारी हूँ। ।।।
कवि के अंतर्मन को व्यक्त करती बहुत ही सुंदर रचना।
ReplyDeleteअमृता जी,कवि मन की व्याख्या करते करते आप हर उस मन को छूने में कामयाब रहीं,जो इन्हीं सुंदर स्थितियों से गुजरता है,आपका गद्य विधा में लेखन बड़ा प्रभावित कर गया अति सुंदर, एहसासों के अनुभूति की सुंदर अभिव्यक्ति के लिए आपको हार्दिक शुभकामनाएं एवम बधाई ।
ReplyDeleteअद्भुत, मैं तो शब्दों की गहराइयों मे डूबती ही चली गई, कब किनारा आ गया पता ही नहीं चला, बहुत ही अच्छा लग रहा था पढ़ना, आपकी पोस्ट बेहद कमाल की है, आपकी लेखनी सराहनीय है, सादर नमन अमृता जी 👏👏🙏🙏
ReplyDeleteकवि के अंतर्मन की गूढ़ चेतना का सतर्क अन्वेषण!
ReplyDeleteकविता रचना की प्रक्रिया का पुनर्प्रस्तुतीकरण ,यथाक्रम और सुचारु रहा,
ReplyDeleteहाँ, कविता हर मन में भिन्न प्रतिध्वनि जगाती है,यह उसकी सार्वजनिकता है.
आपकी सृजन यात्रा और आपका चिंतन दोनों ही बढ़िया है। आपको बहुत-बहुत शुभकामनाएँ और बधाईयाँ।
ReplyDeleteकिसी के सत्य से खुद को जोड़ लेने की लालसा, किसी की संवेदना में खुद को तपा देने की आकांक्षा परकाया गमन को अनुभव करने जैसा ही है । फिर ये कहना कि चेतना के तल पर हम एक ही तो हैं पूर्णता को पाने के जैसा ही है । उसे जब एक-एक शब्द पर सराहते हुए पढ़ा जाता है तो वह और भी विनयशील होकर अपने को नये ढंग से संस्कारित करता है ।---बहुत गहरा आलेख है
ReplyDeleteबहुत बहुत सुन्दर सराहनीय सम्पूर्ण लेख । मन pr अटूट छाप छोड़ने वाला ।
ReplyDeleteगद्य में आपने पहले भी लिखा है।
ReplyDeleteचिट्ठा कवि पद्य की जगह गद्य लिखे तो उसके गद्य में कविता साथ नहीं छोड़ती। इस चिट्ठे में यहां-वहां उसका उभार सामने आया है। इसमें अंतः के सुख-दुख और ऊहापोह के अनुभव मुखर हो कर संप्रेषित होने लगते हैं। इसमें ऐसे अनुभव भी शामिल हुए हैं जो शायद कविता के सांचे में ढलने वाले थे ही नहीं।
बहुत बढ़िया।
एक कवि को बनाने में न जाने कितनों का प्रयास लगा होता है । छेनी , हथौड़ी सबका प्रयोग करवा दिया । बहरहाल कवि बनाने की प्रक्रिया रोचक रही ।
ReplyDeleteआप की पोस्ट बहुत अच्छी है आप अपनी रचना यहाँ भी प्राकाशित कर सकते हैं, व महान रचनाकरो की प्रसिद्ध रचना पढ सकते हैं।
ReplyDeleteआपने बहुत ही शानदार पोस्ट लिखी है. इस पोस्ट के लिए Ankit Badigar की तरफ से धन्यवाद.
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