कोई महल बेचता है तो कोई खोली
कोई बारूद बेचता है तो कोई बोली
कोई कटार बेचता है तो कोई रोली
कोई गुलाब बेचता है तो कोई गोली
सब बाजार हैं बाबू ! सब ऐयार हैं बाबू !
सब मालदार हैं बाबू ! सब खरीदार हैं बाबू !
यहाँ हर दाम पर चाम भी बिकता है
यहाँ हर चाम पर ईमान भी बिकता है
यहाँ हर ईमान पर नाम भी बिकता है
यहाँ हर नाम पर ईनाम भी बिकता है
सब चालबाज हैं बाबू ! सब दगाबाज हैं बाबू !
सब अंटीबाज हैं बाबू ! सब धोखेबाज हैं बाबू !
अब ये मत पूछिए कि खरा कौन है
अब ये मत पूछिए कि हरा कौन है
अब ये मत पूछिए कि भरा कौन है
अब ये मत पूछिए कि मरा कौन है
सब कसाव हैं बाबू ! सब बचाव हैं बाबू !
सब ऐराब हैं बाबू ! सब नवाब हैं बाबू !
बेहतरीन.. समकालीन स्थिति तो दर्शाती कविता....
ReplyDeleteतीखा तंज़ , ज़ोरदार कटाक्ष , जबदस्त व्यंग्य ।
ReplyDeleteकुछ नहीं बचा बाबू , सब लिख दिया बाबू।
तुम्हारे असली तेवर वाली रचना
वाह बहुत खूब सुंदर रचना के लिए ढेरों बधाई हो
ReplyDeleteबहुत कुछ है जो गड़बड़ झाला है ...
ReplyDeleteकरार तंज़ है ... बिकता हर कुछ है खरीदार चाहिए ... बेचने वाला चाहिए जो सब है आस-पास ...
अब ये मत पूछिए कि खरा कौन है
ReplyDeleteअब ये मत पूछिए कि हरा कौन है
अब ये मत पूछिए कि भरा कौन है
अब ये मत पूछिए कि मरा कौन है----गहरा कटाक्ष है...बहुत गहरी रचना।
लोगों की मानसिकता शानदार तंज।
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ReplyDeleteयहाँ हर दाम पर चाम भी बिकता है
यहाँ हर चाम पर ईमान भी बिकता है
यहाँ हर ईमान पर नाम भी बिकता है
यहाँ हर नाम पर ईनाम भी बिकता है
बहुत सटीक ..धारदार ...
लाजवाब सृजन।
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 01-04-2021 को चर्चा – 4,023 में दिया गया है।
ReplyDeleteआपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी।
धन्यवाद सहित
दिलबागसिंह विर्क
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" ( 2085...किसी की याद से कितना जुड़ी हैं दीवारें ) पर गुरुवार 01 अप्रैल 2021 को साझा की गई है.... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteबढ़िया तंज़। स्वादिष्ट गीत। इसे तो कोई फिल्मकार ले जाए। 😊😊
ReplyDeleteबहुत तीखा और मार्मिक व्यंग अमृता जी। देश काल, समाज और इंसान के दोहरे आचरण का अवलोकन करती रचना संवेदनाओं का विशाल वितान रचती है।
Deleteयही कहूँगी-------
यही जीवन का सार है बाबू
फूल नहीं सब खार है बाबू,
बाहर से सब हँसते दिखते
पर भीतर गुबार है बाबू!
जाना कहाँ, किधर की धुन है
नज़रें पथराई, चेहरे गुमसुम हैं
सब होकर भी दामन खाली
वही व्यर्थ की रार है बाबू!
हार्दिक शुभकामनाएं🙏🙏
वाह! नहले पे दहला!!
Deleteमजा आ गया पढ़कर
ReplyDeleteवाह बेहतरीन रचना।
ReplyDeleteवाह !! धारदार व्यंग्य वाली बेहतरीन कविता ।
ReplyDeleteलाजवाब सृजन। आपको शुभकामनाएँ।
ReplyDeleteवाह, बहुत ख़ूब
ReplyDeleteबहुत ही शानदार तीखा व्यंग,सच्चाई से लबालब, हर आलम पे छींटे पड़ रहे हैं,सुंदर रचना के लिए बधाई हो अमृता जी ।
ReplyDeleteबहुत ख़ूब
ReplyDeleteवाह!गज़ब का सृजन।
ReplyDeleteनिशब्द।
कोई महल बेचता है तो कोई खोली
कोई बारूद बेचता है तो कोई बोली..वाह!
वाह! बिम्ब की बहार! तंज की धार!!!
ReplyDeleteइस समय व्यस्तता के कारण इधर कम ही आना होता|
ReplyDeleteबहुतही ख़ूबसूरत लिखा है अमृता| बधाई|
वाह वाह ! बहुत ख़ूब !
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