जितने मिले हो
मेरे लिए , तुम उतने ही काफी हो
ख्वाहिशें जो गुस्ताखियां करे तो
तहेदिल से मुझे , शर्तिया माफी हो
बामुश्किल से मैंने
तूफां का दिल , बेइजाज़त से हिलाया है
कागज की किश्ती ही सही मगर
बड़ी हिम्मत से , उसी में चलाया है
जरूरी नहीं कि , जो मैंने कहा
तेरे दिल में भी वही बात हो
पर मेरी तकरीर की लज्जत में
मेरे वजूद के जज़्ब जज़्बात हो
तेरे चंद लम्हों की सौगात में मैंने
इत्तफ़ाक़न इल्लती सौदाई को जाना है
गर इरादतन खुदकुशी कर भी लूं तो
ये मेरे शौक का ही शुकराना है
सोचती हूँ , कहीं तो तेरे दिल से मिल जाए
ये सहराये - जिंदगी के गुमशुदा से रास्ते
तो पूरी कायनात के दामन को निचोड़ दूँ
बस तेरी बदमस्त बंदगी के वास्ते .
मेरे लिए , तुम उतने ही काफी हो
ख्वाहिशें जो गुस्ताखियां करे तो
तहेदिल से मुझे , शर्तिया माफी हो
बामुश्किल से मैंने
तूफां का दिल , बेइजाज़त से हिलाया है
कागज की किश्ती ही सही मगर
बड़ी हिम्मत से , उसी में चलाया है
जरूरी नहीं कि , जो मैंने कहा
तेरे दिल में भी वही बात हो
पर मेरी तकरीर की लज्जत में
मेरे वजूद के जज़्ब जज़्बात हो
तेरे चंद लम्हों की सौगात में मैंने
इत्तफ़ाक़न इल्लती सौदाई को जाना है
गर इरादतन खुदकुशी कर भी लूं तो
ये मेरे शौक का ही शुकराना है
सोचती हूँ , कहीं तो तेरे दिल से मिल जाए
ये सहराये - जिंदगी के गुमशुदा से रास्ते
तो पूरी कायनात के दामन को निचोड़ दूँ
बस तेरी बदमस्त बंदगी के वास्ते .
इस प्यार को क्या नाम दें, बस इसे होते जाने दें।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर।
ReplyDeleteरचना बहुत ही अच्छी है ,सुन्दर !
ReplyDeleteबरसों से सोंचे शब्द भी उस वक्त तो बोले नहीं
ReplyDeleteजब सामने खुद श्याम थे तब रंग ही घोले नहीं !
कुछ अनछुए से शब्द थे, कह न सके संकोच में,
जानेंगे क्या छूकर भी,हों जब राख में शोले नहीं !
तेरे चंद लम्हों की सौगात में मैंने
ReplyDeleteइत्तफ़ाक़न इल्लती सौदाई को जाना है
गर इरादतन खुदकुशी कर भी लूं तो
ये मेरे शौक का ही शुकराना है
वाह! यह बात कहने के लिए तगड़ा बांकपन चाहिए जो 'इल्लती सौदाई' दो शब्दों में भरा हुआ है.
सोचती हूँ ------/-----
ReplyDeleteक्या लिखा है आपने।सोचता ही रहे तो बंदगी को भी एक नई पहचान मिल जाये। ख्वाहिशें खो जाए तो बंदगी भी बेमतलब सी हो जाये।जिंदगी तो होती ही है फना होने के लिए।और सारे मतलब वाकई में बेमतलब ही हैं।
आप की कविता जीवन के जिस अनछुए अंधेरे को रोशन करती है वह दुर्लभ है।तभी तो किसी ने लिखा है।
प्रेम न बाड़ी उपजे प्रेम न हाट बिकाये ।राजा प्रजा जेहि रुचे शीश दई ले जाये।
दमदार रचना...उर्दू के कुछ शब्द कठिन हैं..ख्वाहिशों पर कब किसका बस चला है..बिन बुलाये भी उठती हैं दिल में उठा एक हल्का सा अहसास भी किसी ख्वाहिश की खबर देता है..
ReplyDeleteबरसों से सोंचे शब्द भी उस वक्त तो बोले नहीं
ReplyDeleteजब सामने खुद श्याम थे तब रंग ही घोले नहीं !
बहुत अच्छी लगी यह लाजवाब प्रस्तुति... दिल में उतर गई.....
बहुत खूब ! प्रभावशाली ....
ReplyDeleteज्यादा से ज्यादा जिद्दी जज्बात इतने सरल ह्रदय से.. ????
ReplyDeleteWah......
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना..
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