मेरे भीतर
बहुत ही बुरी हालत में
ठेलम-पेल करती हुई
एक बदहवास भीड़
अजीब चाल में मुझे चिढाती हुई
हरवक्त रेंगती रहती है.....
मेरे ही नाक के नीचे
सभाएं आयोजित करती है , रैलियां निकालती हैं
मजे की बात है - मुझे नेता बनाती है
भावुकता के अतिवादी क्षणों में
ऊंचे-ऊंचे वादे करवाती है
आश्वासनों के दीये जलवाती है....
अपने खुले पेट पीट-पीट कर दिखाती है
मांगों की लम्बी फेहरिस्त भी थमाती है
जिसे पूरा करना मेरे बस की बात नहीं
उसी में मैं भी हूँ,कोई मुकुट धारी नहीं...
उम्मीदों के टूटने पर वे मुझे ही
विनष्ट करने की योजना बनाती हैं
और मैं चौबीसों घंटे
पीछे से अनेक -अनेक रूपों में
खुद पर अज्ञात हमलों के डर से
असहाय , निरुपाय महसूसती हूँ....
पूरी हिम्मत जुटाकर उन वादों से
सरेआम मुकर जाना चाहती हूँ
और उस दीये को भी
फूंक मार बुझा देना चाहती हूँ.....
मैंने तो जन्म नहीं दिया है
किसी भी राजशाही या तानाशाही को
बल्कि आत्मबल को थपकियाँ देकर सुलाया है
कमजोरियों के साथ जीना सीखा है
कतार में लगने का अभ्यास किया है
बिना प्रतिवाद के धक्का-मुक्की खाकर
और पीछे होना भी स्वीकारा है
लाल कालीन को घृणा से ही देखा है
जिसके नीचे बहती है खून की नदियाँ....
तो फिर मेरे भीतर
किस क्रान्ति के नाम पर
केवल मशालची ही दिखते हैं
जो मुझे ही मंच पर पटक कर
मेरे हड्डी-मांस-मज्जा से खेलते हैं....
सिर्फ एक वहशत , पागलपन
आशंकाओं का उफनता सैलाब
जैसे कि केवल मैंने ही
उन्हें बना दिया है
बंधुआ मजदूर सा आम आदमी
और धोखे से दिखा दिया है
राजमार्ग के उस छोर का राजमहल.....
मुझमें तो इतनी ताकत नहीं कि
किसी इतिहास को दुहराने से रोक दूँ
या फिर भीड़ को उकसा कर
कोई नया इतिहास रच दूँ.....
विकल्प के अभाव में
अभावों को सहती हूँ
उसी भीड़ के साथ जीती हूँ
और उसी भीड़ में मरती हूँ .
अदभुद!!!
ReplyDeleteसमाज की विसंगतियों को बखूबी अभिव्यक्त किया है....
सशक्त रचना के लिए आपको बधाई.
सादर.
बेहद उम्दा और शानदार प्रस्तुति।
ReplyDeleteविकल्पों के अभाव में
ReplyDeleteअभावों को सहती हूं
उसी भीड़ के साथ जीती हूं
और उसी भीड़ में मरती हूं।
स्वानुभूति की गहराई कविता में प्रकट हो रही हैं।
सुन्दर प्रस्तुति...
ReplyDeleteआपके इस सुन्दर प्रविष्टि की चर्चा कल दिनांक 19-03-2012 को सोमवारीय चर्चामंच पर भी होगी। सूचनार्थ
सबका संग तो जीवन में ऊर्जा भरता है।
ReplyDeleteआशय ....?
Deleteकई बार आदरणीय प्रवीण जी का कमेंट पढ़कर मैं भी चकराया हूँ:)
Deleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति ।।
ReplyDeleteबहुत मर्मस्पर्शी और सशक्त अभिव्यक्ति...
ReplyDeleteबहुत सुंदर भाव शानदार प्रस्तुति।,......
ReplyDeleteMY RESENT POST... फुहार....: रिश्वत लिए वगैर....
ताकत कभी कभी खुद में पैदा करनी होती है ... नया इतिहास ही ऐसे ही रहना जाता है ...
ReplyDeleteजबरदस्त कविता।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया प्रस्तुति!
ReplyDeleteबहुत बढ़िया प्रस्तुति!
ReplyDeleteभीड़ की नियति हमेशा दबा कुचला होना ही है ..कितनी प्रवीणता से आपने इस विसंगति पर प्रहार किया है .बहुत सुँदर
ReplyDeleteबेहद अदभुद ,सशक्त और शानदार रचना..
ReplyDeleteआज की समाजिक-राजनैतिक व्यवस्था पर,सटीक चोट.
Deleteबाप रे ये तो लाल सलाम वाली कविता है ....
ReplyDeleteकाबिल-ए-तारीफ। इसे पढ़ते हुए आ रही हंसी को रोकना मुश्किल है। सच्चाई के करीब पहुंचती कविता। तोड़ दीजिए वादे....अगर टूट भी जाएं....तो क्या करिए। कमजोरियों के साथ जीने का हौसला पसंद आय़ा। बहुत-बहुत शुक्रिया।
ReplyDeleteवाह! ज़िम्मेदारी थोपने के लिये भी कोई होना चाहिये!
ReplyDeleteएक अलग ही दृष्टिकोण, अच्छी अभिव्यक्ति.
ReplyDeleteइस शोर में कान बहरे , ... न कुछ दिखता है न समझ में आता है , होती है केवल बदहवासी !
ReplyDeleteयथार्थबोध के साथ कलात्मक जागरूकता भी स्पष्ट है।
ReplyDeleteविसंगतियाँ देख मन में उबाल आता है पर जब कुछ कर नहीं पाते तो ऐसे ही हताशा घेर लेती है ...
ReplyDeletebeautiful lines with deep feelings.
ReplyDeletebut we have to realise that we should adjust .
विकल्प के अभाव में भीड़ के साथ दबते कुचलते चलना ही नियति हो जाती है !
ReplyDeleteबड़ा मुश्किल है इन लोगों को जगा पाना
ReplyDeleteआत्मबल को थपकियाँ देकर सुलाना ....यही तो सबसे बड़ी कमजोरी है जो लोकतंत्र को लोक के लिये नहीं बल्कि चुनिन्दा लोगो के चरणों में समर्पित कर देती है और आम आदमी हो जाता है केवल भीड़ का हिस्सा ...बहुत बढ़िया रचना
ReplyDeleteभीड़ से ही हम निकले लोग हैं जो भीड़ को रास्ता देते हैं ,और भीड़ को भटकाने का उपक्रम भी / दशा व दिशा किसको व किसकी तय करनी है यह स्पष्ट हो तो भीड़ ,भीड़ नहीं होती ,नायक होती है अधिनायक बनाने के लिए ..... रोचक अभिव्यक्ति.....
ReplyDeletebheed me apni soch kahin kho jati hai ....
ReplyDeleteprabhavpoorna abhivyakti ...
विकल्पों के अभाव में
ReplyDeleteअभावों को सहती हूं
उसी भीड़ के साथ जीती हूं
और उसी भीड़ में मरती हूं।
bheed tantr meri niyati ,siron ko ginti rahti hoon ,
aur fir bheed kaa koi chehraa bhi to nahin hotaa . .
भीड़ का कोई अपना चेहरा भी नहीं होता ,
ReplyDeleteकोई निजी संवेदना भी नहीं ,
मैं इसमें हूँ , ये मुझमे है,
भीतर बाहर एक .
wah....kamaal ka lekhan.
ReplyDeleteबेहतरीन भाव संयोजन लिए उत्कृष्ट लेखन ।
ReplyDeleteक्या अद्भुत चिंतन है... वाह! वाह!
ReplyDeleteसादर बधाई.
सब कुछ तो है मेरे देश में ....फिर भी न जाने एक डर क्यु सताता है |बहुत सुन्दर प्रस्तुति |
ReplyDeleteआज आपके ब्लॉग पर बहुत दिनों बाद आना हुआ. अल्प कालीन व्यस्तता के चलते मैं चाह कर भी आपकी रचनाएँ नहीं पढ़ पाया. व्यस्तता अभी बनी हुई है लेकिन मात्रा कम हो गयी है...:-)
ReplyDeleteअप्रतिम रचना...शब्द शब्द बाँध लेता है..वाह....बधाई स्वीकारें
नीरज
bahut sunder
ReplyDeletebheer se bachiye huzur,
ReplyDeletebheer hote kankhazoor...
jo privisht hue agar man me to,
aap ho jayengi khud se duur...
Amrita bheer ki mansikta hamein netagiri aur rajneeti ki bisaat ka mohra bana deti hai...ham agar seema rekha ke bahar rah kar nirnayak ki bhumika nibhayein to jyada uttam...
aapne bheer ko aur uski mansikta se upje dwand ko bakhubi chitrit kiya hai...saadhuvaad...
खुबसूरत रचना...
ReplyDeleteभीड़ को कहाँ फुर्सत कि नेता को समझे वो तो कीमत मांगती है अपनी सभी समस्याओं को उसे थमा अपने सर-आँखों बिठाने की । बहुत अच्छी रचना ।
ReplyDeleteमैं पढ़ती चली गई .....बहुत बढ़िया
ReplyDeleteवाह,
ReplyDeleteबहुत सुंदर
अपने भीतर की भीड़ का साक्षी बने बिना न इससे छुटकारा होगा न इसमें कोई बदलाव आयेगा...आभार!
ReplyDeleteआपकी लेखनी को सलाम !
ReplyDeleteअगर हो सके तो भीड़ तो नयी और बेहतर दिशा दिखाएँ. अभी भी बहुत से लोग बिना सही मार्गदर्शन और प्रेरणा के किसी भी भीड़ में शामिल हो जाते हैं.
आभार !
अमृता जी कमाल कर दिया आपने मैं क्या कहूँ इस रचना की तारीफ़ में शब्द ही नहीं हैं मेरे पास.......हैट्स ऑफ भी छोटा लग रहा है बस यूँ मान लें की आपके ब्लॉग की बेहतरीन रचनाओ में से एक है ये पोस्ट......इसको कहीं लिख के भी रखिएगा ज़रूर आपने भीतर और बाहर की जिस भीड़ को शब्दों में ढाला है वो अदभुत है.......नतमस्तक हूँ इस पोस्ट के लिए.......खुदा करे आप ऐसे ही लिखती रहें.....आमीन।
ReplyDeleteसत्ता की ही व्यथा कथा बन गई यह रचना!!
ReplyDeleteदुविधाओं दर्दीला सागर!!
किसी शायर ने कहा है:- आईना सलामत है चेहरा दरक गया , अपनी बरबादियों में खुद ही शरीक रहा हूँ, बात और है औरों पर शक गया
ReplyDeleteकाफी सशक्त रचना...मील का पत्थर
ReplyDeleteवाह! कमाल की प्रस्तुति है अमृता जी.
ReplyDeleteहृदय की व्यथा की सुन्दर कथा.
विकल्प के अभाव में अभावों को सहन
करना मजबूरी है.
परन्तु,सच्ची लगन और चाह विकल्प को भी जन्म दे ही देती है.
यह राजनीति का दूसरा पक्ष और तीसरा चेहरा है. बहुत सशक्त रचना है.
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