एक कालजयी कविता के लिए
असली काव्य-तत्त्व की खोज में
जब-जब जहाँ-तहाँ भटकना हुआ
तब-तब अपने ही शातिर शब्दों के
मकड़जाल में बुरी तरह से अटकना हुआ
न जाने कैसी-कैसी और कितनी बातों को
गुपचुप राज़ सा या खुलेआम ख्यालातों को
जाने-अनजाने से या किसी-न-किसी बहाने से
चोरी-छुपे पढ़ती, सुनती और गुनती रही
शायद हीरा-जवाहरात मानकर ही सही
पूरे होशो-हवास और दम-खम से
अपने कलमकीली कबाड़ झोली में
बस कंकड़-पत्थर ही बीनती रही
अब तक के उन तमाम नामी-गिरामी
कलमतोड़ों और कलमकसाइयों के
पदछापों पर मजे से टहलते हुए
अपने ख्याली पुलावों को
बड़े चाव से कलमबंद करते हुए
उसी कबाड़ झोली का सारा जमा-पूंजी को
आज का अँधाधुँध सत्य जानकर
मन ही मन में खुद को कलम का उस्ताद मानकर
शब्दों में आयातित गोंद और लस्सा लगाकर
उसे उसके संदर्भ से जोड़ना चाहा
पर मेरी उधाड़ी जुगाड़ी कोशिशों को भाँपकर
बरबादी की ऐसी सत्यानाशी सनक से काँपकर
अपनी ही रूह की होती मौत देख बेचारी कविता
सिर धुनती हुई बन गई रूई का फाहा
तिस पर भी उसको मनाने के वास्ते मैंने
बाजार जाकर खरीद-फरोख्त की गई
वर्जनाओं को, उत्तेजनाओं को, अतिरंजनाओं को
इधर-उधर से माँगी-चाँगी हुई, छिनी-झपटी हुई
अन्तर्वेदनाओं को, संवेदनाओं को, परिवेदनाओं को
शोहरती तमन्नाओं की आग में ख़ूब तपाया
पर निर्दयी कविता तो जरा-सी भी न पिघली
लेकिन शब्दों और अर्थों का डरावना-सा
लुंज-पुंज अस्थि-पंजर जरूर हाथ आया
फिर उसको रिझाने-लुभाने के वास्ते मैंने
अपनी सारी बे-सिर-पैर की तुकबंदियों को भी
ग़ज़लों-छंदों का सुन्दर-सा आधुनिक परिधान पहनाया
और उसे उसके अर्थो से भी एकदम आजाद करके
कसम से आज़माईश का सारा गुमान चलाया
अब जी मैं आता है कि
किसी भी काव्य-तत्त्व की खोज में
प्रेतों-जिन्नों की तरह भटकना छोड़ कर
प्राणों से फूटती कविता के इंतजार में
चुपचाप सबकी नजरों से कहीं दूर जाकर
खुद से भी छुपकर धूनी रमाए बैठ जाऊँ
पर नालायक कवि मन कहता है कि
गलती से ही सही पर जब तेरे माथे पर
लिखा जा चुका है कि तू कवि है तो
जो जी में आए बस तू लिखता रह, लिखता रह
ज्यादा न सही पर कुछ तो शोहरत-नाम मिलेगा
झटपट लिखो-छापो के इस जादुई जमाने में
फटाफट ढ़ेर सारा ज़हीर कद्रदान मिलेगा
अगर मेहरबानों की नजरें इनायत हुई तो
झोली भर-भर कर भेंट और इनाम मिलेगा
तो कवि मन के झांसे में आकर मैंने भी सोचा कि
कोई मुझे एक-एक शब्द पर पढ़-पढ़ कर सराहे
या शेखचिल्ली समझ कर खूब खिल्ली उड़ाए
या मुझे मुँह भर-भरकर गाली-आशीर्वाद दे
या फकत कलमघिस्सी जान ज़ायका-आस्वाद ले
पर लिखने वाला हर बेतरतीब-सी बिखरी चीजों को
बुहारी मारते हुए समेट कर लिखता है
जिसमें किसी को सुन्दर कविता तो
किसी को बस रद्दी का टुकड़ा ही दिखता है
इसलिए मैं भी क्यों कहीं दूर जाकर
प्राणों की कविता के इंतजार में बैठ जाऊँ
कवि हूँ तब तो ईमानदारी से या बेइमानी से
अगड़म बगड़म कुछ भी लिख-लिख कर क्यों नहीं
रद्दियों का ही सही बड़ा-सा अंबार लगाऊँ .
जब तक कुछ होने की अभिलाषा है तब तक कुछ रचने की आशा है, जब मिटना आ जाता है तब लिखना छूट जाता है, कोई लिखवा लेता है, आपकी रचनाएँ कुछ ऐसी ही होती हैं न!
ReplyDeleteअदभुद लेखन।
ReplyDeleteईमानदारी से ही लिखिए, बेईमानी से नहीं। सच्चा कवि बेईमान हो ही नहीं सकता। और सच्चा कवि सहज-स्वाभाविक रूप से अपने आपको अभिव्यक्त करता है, वह किसी और के द्वारा लेखनी पकड़वाई जाने से नहीं लिख सकता। कवि मन झांसा भी नहीं देता। कालजयी कविता और वास्तविक काव्य-तत्व की खोज करने की आवश्यकता नहीं, जो सच्चा कवि है, वे उसके भीतर ही होते हैं ठीक उसी तरह जिस तरह कस्तूरी-मृग की कस्तूरी उसकी नाभि के भीतर ही होती है।
ReplyDeleteबहुत सुंदर बात कही आपने, आखिर एक कालजयी कविता की किसे तलाश नहीं, हाँ वो कहीं न कहीं आपके अस्तित्व में ही जीवित है, और आपको मिलेगी भी ज़रूर, किसी और को भले कालजयी न लगे पर आपको ज़रूर लगेगी ।आपके सुंदर लेखन को और आपको मेरी हार्दिक शुभकामनाएँ ।
ReplyDeleteपर लिखने वाला हर बेतरतीब-सी बिखरी चीजों को
ReplyDeleteबुहारी मारते हुए समेट कर लिखता है
जिसमें किसी को सुन्दर कविता तो
किसी को बस रद्दी का टुकड़ा ही दिखता है
सच कहें तो हम लिखते तो सबसे पहले स्वयसं के लिए ही हैं तभी कालजई कविता बनती है !! तथ्य पूर्ण बात !!
वाह! वाकई, बहुत सुंदर। दरअसल कविता लिखने से कोई कवि बन जाता है, न कि कोई कवि बनकर कविता लिखने बैठता है।
ReplyDeleteआज तो अजब गजब मूड में हैं आप ..... अब मैं सोच रही कि मैं कलमतोड़ हूँ या कलमकसाई..... अरे ये तो नामी गिरामी लिखा है .... बच गयी ....
ReplyDeleteसब कील काँटे निकाल आज तो कालजयी रचना लिखी दी । खूब हथौड़े चलाये हैं ।
शानदार हास्य कविता ।
बहुत सुंदर काव्य सृजन, अमृता दी।
ReplyDeleteआपकी प्रश्नोत्तरी में ही सब निहित है।
ReplyDeleteआपका आत्ममंथन बेहद ईमानदार और प्रभावशाली है
प्रिय अमृता जी।
जिसे जो लगना है लगने दो
क़लम को अनवरत जगने दो
समय की पीठ पर खड़े रहो
अब क़दम न अपने डिगने दो।
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शुभकामनाएं।
सस्नेह।
आपकी लिखी रचना सोमवार 2 ,अगस्त 2021 को साझा की गई है ,
ReplyDeleteपांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
संगीता स्वरूप
आरम्भ से अन्त तक कालजयी कविता की लिए आपकी सोच ने चेहरे पर मुस्कुराहट की बड़ी सी रेखा खींच दी । हास्य रस को सार्थक करती लाजवाब रचना ।
ReplyDeleteकलमतोड़ों और कलमकसाइयों के
ReplyDeleteपदछापों पर मजे से टहलते हुए
अपने ख्याली पुलावों को
बड़े चाव से कलमबंद करते हुए
नए शब्दों से परिचय मिला विशेष
शब्द.. कलमकसाइयों
सादर..
वाह, बहुत सुंदर।🌼
ReplyDeleteलिखना और अपने से बतियाना दोनों ही एक समान है, आप अपने आप से की गई बात को यदि शब्द देंगे तो भी वह एक कविता हो जाएगी। तत्व की खोज और अच्छी कविता एक जैसे ही हैं...।
ReplyDelete😀😀😀 प्रिय अमृता जी, कालजयी कविता भले रची जाए ना जाए पर इतने लटकन - पटोटन के बाद इतनी प्यारी व्यंग्य रचना जो अस्तित्व में आई उसका क्या कहिए!!! कथित समर्पित नामी गिरामी रचनाकार तो सर पीट लेंगे अपने और अपने जैसों के लिए। ----- कलमतोड़ कलमकसाइयों --- जैसे नव उपमेय शब्द पढ़कर। रोचक और मुस्कुराहटें बिखेरती रचना के लिए हार्दिक आभार और शुभकामनाएं। आपकी रचनाओं में सभी रंग कमाल हैं तो व्यंग्य बेमिसाल 😀😀🙏🙏🌷🌷
ReplyDeleteवाह!!!
ReplyDeleteकमाल का सृजन...वैसे वनावटी कवियों पर धारदार हास्यव्यंग रचा है आपने...सही कहा आदरणीय विश्वमोहन जी ने कि कविता लिखने से कोई कवि बन जाता है, न कि कोई कवि बनकर कविता लिखने बैठता है।..पर आजकल कुछ भी सम्भव है ..
लाजवाब सृजन।
एक बार कवि/कवयित्री बनन जाओ फिर जो चाहे लिखो...फॉलोअर्स पढ़ने वाले हैं, पाठक की जरूरत नहीं 😁😂
ReplyDeleteआपने तो कवि कविता और उसके आगे पीछे घुमते सभी तथ्यों पर ग्रंथ ही रच डाला अमृता जी ।
ReplyDeleteतंज भी व्यंग्य भी आत्मवंचना भी और डटे रहने का संकल्प भी सच कवि कवि होता है मजाल है स्वयं की धिक्कार भी उसे कवि पद से विमुख कर सके ।
शब्द चयन गज़ब असरदार हैं ।
बहुत सुंदर सृजन।
कुछ अपने भाव
कविता सिर्फ शब्द नही होती,
होती है ,अलसुबह की ताजगी
शबनम की ऩमी
फूलों की ख़ुशबू
चाँदनी की शीतलता
फाल्गुन की हल्की बयार
मन का पीघलता शीशा
सूरज की तपिश
टूटते अरमां
पूरी होती आरज़ू
अनकही बातें
ख़ामोश सदाएं
रंगीन ख़्वाब
बिखरती संवरती ज़िंदगी
कविता कोई शब्द नही
कि पढ़ो
और आगे बढ़ो
हर कविता में एक आत्मा होती है
कविता सिर्फ़........
कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'
सस्नेह।