सबसे पहले ये लेखक अपने परम पूज्य पाठक परमेश्वरों को भारी हृदय से बारंबार प्रणाम करते हुए आभार प्रकट करता है। फिर वह उन के श्री चरणों में लोट-पोट कर अपने इस धृष्टता भरे लेख के लिए क्षमा याचना करता है। वह अपनी कलम की गवाही में कुबूल करता है कि ये क्षमा याचिका भी उस की मन मारी हुई मजबूरी है। साथ ही हाथ जोड़कर दरख़्वास्त करता है कि इसे किसी खास मकसद के लिए कृपया पैंतराबाजी हरगिज न समझा जाए। हाँ! अगर इस लेखक के हिमाकत भरी मूर्खता पर व्यंग्य-क्रोध मिश्रित हँसी आती है तो कृपया इसे लेखक की लाचारी की खिल्ली उड़ाते हुए न रोका जाए। क्योंकि वह खुद इसतरह से अपनी जगहँसाई करवा रहा है। वह इकरार करता है कि ये सब कहते हुए उसे जरूरत से ज्यादा शर्म आ रही है और डर भी लग रहा है। पर यदि वह न कहे तो, जो इक्का-दुक्का इच्छाधारी पाठक इसे गलती से पढ़ लेते हैं, वे भी कहीं इस अक्ल के आन्हर से खुलेआम नाराज होकर बिदक न जाएँ। आजकल भला डर की महिमा से कौन अंजान है? हर तरफ सिर्फ डर का ही तो राज है। वैसे ये लेखक डर का गुणगान कर विषयांतर नहीं होना चाहता है। बाकी तो पाठक खुद ही अपने चारों तरफ देख ही रहें हैं। तो मुद्दे की बात ये है कि जहाँ कोई पाठक किसी भी लेखक को अब पढ़ने के लिए राजी नहीं है तो शायद कहा जा सकता है कि पाठकों का "डर बिनु लेखन न होई"।
जाहिर है कि लेखन भी सिर्फ उन विलुप्त प्रजाति के अदृश्य पाठकों की पसंद-नापसंद का मोहताज हो गया है जो अब सच में आन्हर हो गये हैं। वे भला आन्हर क्यों न हों? आखिर कब तक उन भोले-भाले पाठकों की आँखों में इसतरह के कचरा-लेखन को झोंक-झोंक कर, अपने शौक और सनक से आन्हर हुए, तथाकथित लेखक गण ऐसे वैचारिक शोषण कर सकते हैं? आखिर कब तक सीधे-सादे पाठक, जानबूझकर उनपर थोपे हुए मानसिक विलासितापूर्ण लेखन की गुलामी करते रहेंगे? इसलिए अब वें अपने पढ़ने की तलब को ही अपना त्रिनेत्र खोल कर आग लगा रहें हैं। वें अपना विद्रोही बिगुल भी जोर-जोर से फूँक कर अपने आन्हर और बहिर होने का डंका भी पीट रहें हैं। तब तो वें लेखकों के लाख लुभावने वादे या गरियाने- गिरगिराने के बावजूद भी उन्हें पढ़ने नहीं आ रहें हैं। न चाहते हुए भी अब लेखक गण अपना लेखन-खाल उतार कर संन्यास लेने को मजबूर हैं। आखिर पापी प्रतिष्ठा का भी तो सवाल है। फिर अपने रुदन-सम्मेलन में सामूहिक रूप से विलाप भी कर रहें हैं कि- "का पर करूँ लेखन कि पाठक मोरा आन्हर।"
मजबूरन कुकुरमुत्ते-से उग आए लेखक ही एक-दूसरे को मन-ही-मन कोसते हुए त्वरणीय पाठक का स्वांग रच रहे हैं(अपने लेखन पर कुछ ज्यादा ही गुरूर करते हुए)। पर मजाल है कि बतौर पाठक वें किसी की आलोचना कर दें। वैसे भी आलोचना तो अब लेखन-पाठन के उसूलों के खिलाफ ही हो गया है। अब वे पूरे होशो-हवास में दोधारी तलवार पर चलते हुए, बस तारीफों के गाइडलाइंस का पालन भर कर रहें हैं। यदि कभी अपने गुमान के बहकावे में आकर, वें फिसल गये तो तय है कि सीधे लेखक-पाठक बिरादरी से बाहर ही गिरेंगे। फिर तो उन्हें उठाने वाला भी कोई नहीं मिलेगा। बस इसी डर से इस माफीनामा का ऐसा मस्का माननीय पाठकों को मारा जा रहा है। वर्ना कोई नामचीन लेखक होता तो अपना मूर्खई लेखन-लट्ठ सीधे-सीधे उनके सिर पर ही दे मारता। चाहे उनको ब्रेन स्ट्रोक क्यों न हो जाता। चाहे वें कोमा में ही क्यों न चले जाते। खैर.....
तो उसके इस बेबाकी को बस पूज्यनीय पाठक गण दिल पर न लें। उन्हें दिमाग पर भी लेने की कतई जरूरत है ही नहीं (वैसे नामचीनों को भी कौन पाठक दिलो-दिमाग पर लेता है, बस वे ही नामचीन होने का वहम दिलो-दिमाग पर लिए फिरते हैं )। ये कुबूलनामा इस दीन-हीन, खिसियानी बिल्ली की तरह, खार खाए हुए लेखक का वो दर्द है, जिसे लिए वह पाठकों का बात-लात खा-पीकर भी हासिए से बाहर होना नहीं चाहता है। वह अपने जुनून में लेखकों की पिछली कतार का पूँछ पकड़े हुए है। वह बड़ी मुश्किल से अपने नाम की घिसी-पिटी तख्ती को दिखाने के वास्ते ऐसा जद्दोजहद कर रहा है। इसलिए उसके इस कुबूलनामा को हाजिर-नाजिर मानते हुए उसे खैरात में ही सही फेंकी हुई माफी जरूर मिलनी चाहिए। साथ ही उसे अपनी बात थोड़ी-बहुत बेइमानी वाली ईमानदारी से कहने की, पूरी आजादी भी मिलनी चाहिए। बशर्ते उसकी ये नादान गुस्ताखी उसी के सिर का इनाम न हो जाए।
फिर से ये लेखक अपने परम पूज्य पाठक परमेश्वरों को अपना फटेहाल हाल कह कर अब हल्के हृदय से बारंबार प्रणाम करते हुए आभार प्रकट करता है। हार्दिक आभार।
मजबूरन कुकुरमुत्ते-से उग आए लेखक ही एक-दूसरे को मन-ही-मन कोसते हुए त्वरणीय पाठक का स्वांग रच रहे हैं
ReplyDeleteगज्जब पकड_ लिये। स्वीकार है :)
नमन आपकी लेखनी को ।
अब त्वरित प्रतिक्रिया देना भी खतरे से खाली नहीं , आप तो कह दोगी की त्वरित पाठक होने का स्वांग कर रहे 😄😄 ।
ReplyDeleteआज तो लेखकों और पाठकों दोनो को लपेट लिया ।
कोई न आ रहा अब आपका ये माफीनामा पढ़ने । सोशल मीडिया पर आज सब लेखक बन गए हैं । पाठक का स्वांग इस लिए कि जो कुछ वो लिख रहे उसे लोग पढ़ें लेकिन भूल जाते हैं कि वहां भी तो पढ़ने का स्वांग चल रहा ।
सच कहूँ तो आज भिगो भिगो कर मारा है ।
अब बात तो ज़बान से फिसल गई है और इस माफीनामा से भी वापस नहीं हो सकती पर यह लेखक अपने पाठकों को खुश करने के लिए कुछ भी कर सकता है। जैसे दंड-बैठक लगा सकता है, मूर्गा भी बन सकता है.... बस हुकुम हो। वैसे खुद की हँसी उड़ाने का अपना एक अलग ही मजा है।
Delete:)
Deleteएक बार आन्हर शब्द देख लें ....... मुझे अनहार शब्द मिला है ..... जिसका अर्थ श्री कृष्ण है ...
ReplyDeleteहमारे गाँवों की भाषा में या भोजपुरी में आन्हर का अर्थ अंधा/दृष्टिरहित होता है। वैसे मूल कहावत - "का पर करूँ श्रृंगार पिया मोरा आन्हर" है। संभवतः रीतिकालीन कवियों की कोई उक्ति हो। उचित काल व स्थान पर इसका प्रयोग रोचक होता है।
Deleteवाह .... तभी न जब समझ नहीं आया तो गूगल बाबा की शरण ली ..... और देखिये कितना अनर्थ हो जाता यदि मैं यहाँ नहीं लिखती ...... तो सच है कि समझ न आये तो पूछ लेना चाहिए . कहावत भी जोरदार है .... वैसे ज्यादातर पिया आन्हर ही बने रहते हैं . रोचक
Deleteआपकी लिखी रचना सोमवार. 28 फरवरी 2022 को
ReplyDeleteपांच लिंकों का आनंद पर... साझा की गई है
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
संगीता स्वरूप
का पर करूँ लेखन कि पाठक मोरा आन्हर !….
ReplyDeleteवाह !! बहुत ख़ूब !!
लाजवाब कहावत का अपने शब्दों में लाजवाब प्रयोग ।
जी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (२८ -०२ -२०२२ ) को
'का पर करूँ लेखन कि पाठक मोरा आन्हर !..'( चर्चा अंक -४३५५) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
Jude hmare sath apni kavita ko online profile bnake logo ke beech share kre
ReplyDeletePub Dials aur agr aap book publish krana chahte hai aaj hi hmare publishing consultant se baat krein Online Book Publishers
लेखक और लेखन की परतों को खोलता प्रभावी आलेख
ReplyDeleteपाठक और लेखक के बीच का सामंजस्य ही विचारों को जिंदा रखे है
वह बात अलग है कि लेखन और लेखक याब गुटों में बटें हुए हैं
वाह ! लेखक, लेखन और पाठक के मध्य के टूटते हुए सेतु और छूटते हुए रिश्ते पर धारदार व्यंग्य, आपको पढ़ना सदा ही एक सुखद अनुभव होता है और हर बार कुछ न कुछ नया अंदाज देखने को मिलता है, हजार हजार शुभकामनाएं, ऐसे ही आपको विषय मिलते रहें और पाठकों को आपकी रचनाओं का स्वाद !
ReplyDeleteलेखकों और पाठकों दोनो को सोचने के लिए मजबूर करता व्यंग ।
ReplyDeleteरोचक, सामयिक और यथार्थपूर्ण भी । ये कहावत हमारी तरफ भी बहुत प्रचलित,परंतु इसको परिभाषित करने का श्रेय अद्भुत और उत्कृष्ट ।बहुत शुभकामनाएं और बधाई इस आलेख के लिए ।
ReplyDeleteडर बिनु लेखन न होई,
क्या जबरदस्त व्यंग्य है।
बात तो ये भी है न कि
पाठके न मिली त क़लमवा घिस के का होई।
स्वयं को सर्वज्ञ मानने वाल़ो लेखकों को आलोचना कहाँ पचेगी भला तुरंत नाक भौं सिकोड़कर रौद्ररूप धरकर आलोचक को भस्म करने के लिए तत्पर हो जायेगे...।
पूँछ पकड़ने की बात तो सरासर अपमान मानी जायेगी ऐसा कहकर आप उनकी मूँछ का बाल नहीं बन पायेंगी :))
आन्हर पाठक बहिर लेखक जोड़ी तो सही जम रही है न:))
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गज़ब के विषय चुनकर लाती हैं आप बहुत अच्छा व्यंग्य।
सादर।
बहुत ही उम्दा व शानदार लेख!ये औपचारिकता मात्र नहीं है😃😃 सच में बहुत ही अच्छा है आलेख!
ReplyDeleteमैंने ब्लॉग पर लेखन करते हुए एक बात नोटिस की है कि जो लेख,रचना अच्छी नहीं होती है लोग उस पर प्रतिक्रिया ही नहीं देते हैं ऐसा लगता है कि जैसे प्रतिक्रिया का अर्थ सिर्फ़ तारीफ के पुल बांधना ही जबकि मैंने कुछ लेख साफ़ साफ़ कहा भी कि प्रतिक्रिया जरूर दे पसंद न आए तो आलोचनात्मक प्रतिक्रिया तो जरूर से जरूर दे क्योंकि इससे कमियाँ पता चलेगी और लेखन में सुधार आएगा पर प्रतिक्रिया नहीं मिलती है! आपका लेख पढ़ कर मुझे एक किस्सा याद आ रहा है कुछ महीने पहले मैंने एक लोग के ब्लॉग पर आलोचनात्मक प्रतिक्रिया दी क्योंकि मुझे उनकी लेखनी वक्ता कम प्रवक्ता वाली अधिक लग रही थी उन्होंने वहाँ पर तो कुछ नहीं कहा पर मेरे ब्लॉग को अनफॉलो कर दिया और अब कुछ दिनों बाद मैं दूसरी पोस्ट पर तारीफ की क्योंकि वो तारीफ के काबिल थी तो उन्होंने ने फिर से फॉलो कर लिया मुझे उन उनकी इस हरकत पर बहुत ही हंसी आयी है आज भी जब भी उनकी प्रतिक्रिया देखती हूँ कही अपनी हंसी रोक नहीं पाती हूँ क्योंकि उनकी एक ही प्रतिक्रिया उनकी हर किसी के रचना पर होती!
कमाल का हास्य व्यंग रचा है आपने अमृता जी! वैसे आ. संगीता जी की शुक्रगुजार हूँ जिन्होंने आन्हर का अर्थ क्लीयर किया ...अब अपनी तो क्या बताऊँ आपका ये लेख कल पढ़ चुकी पर आन्हर का अर्थ अटक गया बस मजा कुछ किरकिरा सा था आज पता चला तो मजे मजे में दो बार पढ़ चुकी ...अब लेखक और पाठक पर लगी कहाँ कहाँ शरम न हो तो बताएं वैसे मुझे लगता है आजकल आन्हर होने की जरूरत कम ही है ज्यादातर लेखों की टिप्पणियां बताती हैं कि लेख पढ़ा नहीं गया सीधे टिप्पणी बॉक्स ढूँढकर बहुत सुन्दर लिखने के लिए आन्हर होने की क्या जरुरत? इस सब के लिए माफीनामा कहाँ जमा करना है मुझे भी बताना...वैसे ये भी सही है ढ़ोल की पोल खोलो फिर माफीनामा जमा कर दो..😁😁 अब माफी तो मिल ही जायेगी जानते ही है कि लेखक कितने संवेदनशील और दयालु होते हैं....
ReplyDeleteबहुत ही लाजवाब लेख हेतु बहुत बहुत बधाई एवं शुभकामनाएं आपको।
व्यंग्य की तीखी धार, सटीक! एक एक शब्द जैसे पोल खोल रहा है आपकी लेखन क्षमता और उसे इस तरह पेश करने की बारिकियां एक शानदार व्यंग्य लेख।
ReplyDeleteइतना जरूर कहूंगी "अंधा अंधे ठेलिए दोनों कूप पड़ंत।"
शानदार 👌👌
वैसे आप जो भी लिखो किसी न किसी श्रेणी में तो आना ही है ... और लेखक आज कौन कह रक्त है खुद को ... सब चाटुकार किसी न किसी के खेमे में हैं ... तो एक और खेमा बन जाए की फर्क पैंदा है ...
ReplyDeleteसच बोलने के नाम एक बहुत कडवा घुटका है प्रिय अमृता जी,सो मीठा ही अपना लिया।बहुत रोचक शैली में चुटीली अभिव्यक्ति 👌👌🙏
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