जो चाहिए था- पा लिया
जो व्यर्थ था- गँवा दिया
जो कर्तव्य था- निभा दिया
जो अधिकार था-जता दिया
जो ॠण था- चुका दिया
जो अऋण था- लुटा दिया
वो आक्रोश था- जला दिया
वो विद्रोह था- लहका दिया
वो विवशता थी- मुरझा दिया
वो सुलह थी- सुलझा दिया
वो भ्रम था- बहला दिया
वो समझ थी- समझा दिया
वो विखंडन था- बिखरा दिया
वो पुनर्जोड़ था- सटा लिया
वो हार थी- हरा दिया
वो जीत थी- जिता दिया
वो रात थी- सुला दिया
वो सुबह थी- जगा दिया
वो धूप थी- तपा लिया
वो छाँव थी- बचा लिया
वो हवा थी- उड़ा दिया
वो पानी था- बहा दिया
वो क्षितिज था- झुका दिया
वो हठ था- अड़ा दिया
जो दिखावा था- दिखा दिया
जो खाली था- छिपा लिया
जो बंधन था- फँसा लिया
जो मुक्ति थी- झुठला दिया
जो साँसें थी- चला लिया
जो समय था- बिता दिया
जो वाक् था- बता दिया
जो मौन था- मना लिया
हर वक्र ऋजु बिन्दुओं को- मिला दिया
हाँ! स्वयं को कुछ यूँ ही मैंने- जिला लिया।
***
सच है कि स्वप्निल आँखें तबतक मीँचे ही पड़ीं रहना चाहतीं हैं जबतक कि कोई कल्पना का स्नेहसिक्त मृदुल कर, उसे स्वप्न की मोहावस्था से, काँच सम सँभाले हुए निकाल न दे। तब अधजगी-सी, आशान्वित आँखें भी स्वयं को धीरे-धीरे खोल कर, दिखते प्रकाश की अभ्यस्त होना चाहतीं हैं। किन्तु मादक मूर्च्छा ऐसी होती है कि पुनः-पुन: उन आँखों को स्वप्न-वीथिकाओं में खींच-खींच कर, उन्हें अभी और अलस करने को कहती रहती है। कदाचित् इस अलस का रहस् उजागर हो भी नहीं पाता है और रह जाता है तो केवल एक नीरव इंगित।
सपनों के मखमली धरातल से निकलकर यथार्थ के खुरदुरे सतह का स्पर्श होते ही आंखों की मादक मूर्च्छा छू मंतर हो जाती है और सामने सपाट सच शेष रह जाता है। ऐसे इस स्वप्निल कविता में अंत में अब तो कुछ शेष रहा नही, आगे के सपनों में सजाने के लिए आंखों की मादकता को। सुंदर भाव।
ReplyDeleteकर्तव्य वहन करते करते - जीवन को सार्थक बना दिया …, बहुत समय के बाद आपका सृजन पढ़ने को मिला ।अपार हर्ष की अनुभूति हुई ।
ReplyDeleteहमेशा की तरह कुछ अलग अदभुद
ReplyDeleteसपनों का रेशमी संसार भले कुछ पल का सच हो पर इसकी मादकता में डूबा हुआ मन उस असीम आनन्द को पाता है जिसकी कल्पना यथार्थ में करना असम्भव सी है।एक मोहक रचना जो जीवन के ग्राह्य और त्राज्य भावों से बडी कुशलता से गूँथी गयी है,जिसे पढ़कर बहुत अच्छा लगता है।बहुत समय बाद ब्लॉग पर सक्रिय होने के लिए हार्दिक आभार और अभिनंदन आपका 🙏
ReplyDeleteइस भावपूर्ण रचना को पढ़ मन में कुछ घुमड़ रहा है ---
ReplyDeleteशांत झील में
ज्यों फेंका हो कंकर
उठी है उसमें जैसे
लहर - दर - लहर ,
निस्पृह हो कर
कर्तव्ययुक्त हो
चुन सको कुछ
सार्थक से अवसर
तो
बिंदु बिंदु से जुड़
बिन प्रयास ही
हार जीत से
अप्रभावित हो
स्वयं ही जी जाओगे
निर्लिप्त से भाव ले
अपेक्षाओं से
मुक्त हो
कर्म बन्धनों को काट
आत्मा के सफर में
न जाने कितना
आगे बढ़ जाओगे ।
विचारणीय रचना । सक्रिय होने के लिए आभार ।।
वाह! कितनी सुंदर प्रतिक्रिया दी है आपने, निर्लिप्तता की सम्यक् परिभाषा!
Deleteसभ में बहुत सुन्दर जीवन दर्शन उद्घाटित किया है आपने दीदी।शुभकामनाएं और प्रणाम 🙏
Deleteअनिता जी , हार्दिक धन्यवाद ।
Deleteरेणु ,
Deleteसस्नेह धन्यवाद
अमृता जी, जीवन जिस क्षण में जैसा मिलता है उसे वैसा ही स्वीकार भाव मिले, तब स्वप्न और जीवन में कोई भेद कहाँ रह जाता है, तब जीवन भी एक सुखद स्वपन की तरह गुजरने लगता है आहिस्ता आहिस्ता !!
ReplyDeleteस्वयं का स्वयं से सामना या यूं कहें कि साक्षात्कार.. अनहद...अनहद
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना सोमवार 12 सितम्बर ,2022 को
ReplyDeleteपांच लिंकों का आनंद पर... साझा की गई है
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
संगीता स्वरूप
पूर्णकाम होने की अवस्था जैसे कुछ करने को कुछ शेष रहा ही नहीं . बहुत गहरी बात
ReplyDeleteअपने जीवन के विकल्प की तलाश में
ReplyDeleteस्वप्न की परिधि के बाहर
मूर्त-अमूर्त सारी वेदनाएँ
त्याग न सकीं।
अंदर की यात्रा से अनभिज्ञ
अनमस्यक
सुखी और संतुष्टि
जीवन की अभिनय यात्रा में
अक्सर सोचती हूँ
संसार के तट पर
तन छोड़कर जाने के पूर्व
मन की परछाईं का
रगं श्वेत,श्याम या धनक होगा-----।
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अद्भुत अभिव्यक्ति।
बहुत ही बेहतरीन लगी आपकी यह रचना
ReplyDeleteभई वाह
ReplyDeleteहर वक्र ऋजु बिन्दुओं को मिलाकर जीना...
ReplyDeleteवाह!!!
बहुत ही गहन चिंतन...
लाजवाब सृजन।
वाह! बहुत सुंदर गज़ब लिखा।
ReplyDeleteवाह बेहतरीन सृजन
ReplyDeleteExcellent.
ReplyDeleteसर्वथा नीरवता ही इंगित होती है
ReplyDeleteऔर हम मुक्ति को झुठलाते-टहलाते रहते हैं
मुक्ति जो वेदों में, "हरिओम" में निहित है
उसे भुलाते-भूलते रहते हैं/भूल रहे हैं
Nice post thank you Ian
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