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Tuesday, September 6, 2022

इतिवृत्त ..........

जो चाहिए था- पा लिया

जो व्यर्थ था- गँवा दिया


जो कर्तव्य था- निभा दिया

जो अधिकार था-जता दिया


जो ॠण था- चुका दिया

जो अऋण था- लुटा दिया


वो आक्रोश था- जला दिया

वो विद्रोह था- लहका दिया


वो विवशता थी- मुरझा दिया

वो सुलह थी- सुलझा दिया


वो भ्रम था- बहला दिया

वो समझ थी- समझा दिया


वो विखंडन था- बिखरा दिया

वो पुनर्जोड़ था- सटा लिया


वो हार थी- हरा दिया

वो जीत थी- जिता दिया


वो रात थी- सुला दिया

वो सुबह थी- जगा दिया


वो धूप थी- तपा लिया

वो छाँव थी- बचा लिया


वो हवा थी- उड़ा दिया

वो पानी था- बहा दिया


वो क्षितिज था- झुका दिया

वो हठ था- अड़ा दिया


जो दिखावा था- दिखा दिया

जो खाली था- छिपा लिया


जो बंधन था- फँसा लिया

जो मुक्ति थी- झुठला दिया


जो साँसें थी- चला लिया

जो समय था- बिता दिया


जो वाक् था- बता दिया

जो मौन था- मना लिया 


हर वक्र ऋजु बिन्दुओं को- मिला दिया

हाँ! स्वयं को कुछ यूँ ही मैंने- जिला लिया।

               

                          ***

                                  

                  सच है कि स्वप्निल आँखें तबतक मीँचे ही पड़ीं रहना चाहतीं हैं जबतक कि कोई कल्पना का स्नेहसिक्त मृदुल कर, उसे स्वप्न की मोहावस्था से, काँच सम सँभाले हुए निकाल न दे। तब अधजगी-सी, आशान्वित आँखें भी स्वयं को धीरे-धीरे खोल कर, दिखते प्रकाश की अभ्यस्त होना चाहतीं हैं। किन्तु मादक मूर्च्छा ऐसी होती है कि पुनः-पुन: उन आँखों को स्वप्न-वीथिकाओं में खींच-खींच कर, उन्हें अभी और अलस करने को कहती रहती है। कदाचित् इस अलस का रहस् उजागर हो भी नहीं पाता है और रह जाता है तो केवल एक नीरव इंगित।

22 comments:

  1. सपनों के मखमली धरातल से निकलकर यथार्थ के खुरदुरे सतह का स्पर्श होते ही आंखों की मादक मूर्च्छा छू मंतर हो जाती है और सामने सपाट सच शेष रह जाता है। ऐसे इस स्वप्निल कविता में अंत में अब तो कुछ शेष रहा नही, आगे के सपनों में सजाने के लिए आंखों की मादकता को। सुंदर भाव।

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  2. कर्तव्य वहन करते करते - जीवन को सार्थक बना दिया …, बहुत समय के बाद आपका सृजन पढ़ने को मिला ।अपार हर्ष की अनुभूति हुई ।

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  3. हमेशा की तरह कुछ अलग अदभुद

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  4. सपनों का रेशमी संसार भले कुछ पल का सच हो पर इसकी मादकता में डूबा हुआ मन उस असीम आनन्द को पाता है जिसकी कल्पना यथार्थ में करना असम्भव सी है।एक मोहक रचना जो जीवन के ग्राह्य और त्राज्य भावों से बडी कुशलता से गूँथी गयी है,जिसे पढ़कर बहुत अच्छा लगता है।बहुत समय बाद ब्लॉग पर सक्रिय होने के लिए हार्दिक आभार और अभिनंदन आपका 🙏

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  5. इस भावपूर्ण रचना को पढ़ मन में कुछ घुमड़ रहा है ---

    शांत झील में
    ज्यों फेंका हो कंकर
    उठी है उसमें जैसे
    लहर - दर - लहर ,
    निस्पृह हो कर
    कर्तव्ययुक्त हो
    चुन सको कुछ
    सार्थक से अवसर
    तो
    बिंदु बिंदु से जुड़
    बिन प्रयास ही
    हार जीत से
    अप्रभावित हो
    स्वयं ही जी जाओगे
    निर्लिप्त से भाव ले
    अपेक्षाओं से
    मुक्त हो
    कर्म बन्धनों को काट
    आत्मा के सफर में
    न जाने कितना
    आगे बढ़ जाओगे ।

    विचारणीय रचना । सक्रिय होने के लिए आभार ।।

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    1. वाह! कितनी सुंदर प्रतिक्रिया दी है आपने, निर्लिप्तता की सम्यक् परिभाषा!

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    2. सभ में बहुत सुन्दर जीवन दर्शन उद्घाटित किया है आपने दीदी।शुभकामनाएं और प्रणाम 🙏

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    3. अनिता जी , हार्दिक धन्यवाद ।

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  6. अमृता जी, जीवन जिस क्षण में जैसा मिलता है उसे वैसा ही स्वीकार भाव मिले, तब स्वप्न और जीवन में कोई भेद कहाँ रह जाता है, तब जीवन भी एक सुखद स्वपन की तरह गुजरने लगता है आहिस्ता आहिस्ता !!

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  7. स्वयं का स्वयं से सामना या यूं कहें कि साक्षात्कार.. अनहद...अनहद

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  8. आपकी लिखी रचना सोमवार 12 सितम्बर ,2022 को
    पांच लिंकों का आनंद पर... साझा की गई है
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

    संगीता स्वरूप

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  9. पूर्णकाम होने की अवस्था जैसे कुछ करने को कुछ शेष रहा ही नहीं . बहुत गहरी बात

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  10. अपने जीवन के विकल्प की तलाश में
    स्वप्न की परिधि के बाहर
    मूर्त-अमूर्त सारी वेदनाएँ
    त्याग न सकीं।
    अंदर की यात्रा से अनभिज्ञ
    अनमस्यक
    सुखी और संतुष्टि
    जीवन की अभिनय यात्रा में
    अक्सर सोचती हूँ
    संसार के तट पर
    तन छोड़कर जाने के पूर्व
    मन की परछाईं का
    रगं श्वेत,श्याम या धनक होगा-----।
    ------
    अद्भुत अभिव्यक्ति।

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  11. बहुत ही बेहतरीन लगी आपकी यह रचना

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  12. हर वक्र ऋजु बिन्दुओं को मिलाकर जीना...
    वाह!!!
    बहुत ही गहन चिंतन...
    लाजवाब सृजन।



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  13. वाह! बहुत सुंदर गज़ब लिखा।

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  14. वाह बेहतरीन सृजन

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  15. सर्वथा नीरवता ही इंगित होती है
    और हम मुक्ति को झुठलाते-टहलाते रहते हैं
    मुक्ति जो वेदों में, "हरिओम" में निहित है
    उसे भुलाते-भूलते रहते हैं/भूल रहे हैं

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  16. Nice post thank you Ian

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