अमृता तन्मय यदि चर्मचक्षुओं से दिख जाती तो उसके बारे में कुछ भी कहना सरल होता। सरल होता जब कह दिया जाता कि अमुक स्थान पर अमुक पात्रों के सौहार्द निधि के रूप में मानवी तन लिए एक आत्मा इस पृथ्वी पर अमुक-अमुक अभिनय हेतु, अमुक कालखंड में अवतरित हुई है। साथ ही कह दिया जाता कि उसकी भी वही समयानुकूल क्रमिक जागतिक दैनिक दिनचर्या है और कुछ समयधर्मी उपलब्धियाँ है। सच में, कितना सरल होता कुछ वाक्यों में ही उसके लिए सब कुछ कह दिया जाता और वह संपूर्ण परिचय की परिचायक हो जाती। पर तन्मय की धुरी पर घूमती हुई अमृता अपनी ही अन्तर्दृष्टि में पूर्व निर्धारित अभिनय के परिधि के बाहर भी प्रकृतिज है (श्री राम की कथा भी उनके जन्म से पहले लिखी गई थी)। वह काल के प्रवाह में क्षण-क्षण बदलते हुए प्राण रूपी दैवीय उपहार को कभी हर्ष से तो कभी विषाद से स्वीकार करती है। उसकी आज्ञाकारिता ' जो तुम्हारी इच्छा' पर निर्भर है, प्रत्येक कर्म-फल जनित प्रश्न-उत्तर के साथ। स्वयं के होने की प्रसन्नता और दु:ख के मध्य वह आनन्द को नीलकंठ की भांति धारण कर वेदना की तीक्ष्ण धार पर चलते हुए अपनी जीजिविषा के प्रायोजन को देख रही है। वह सत्यनिष्ठा से देख रही है कि उसकी मानसिक संरचना इस जागतिक संरचना से अधिक अर्थपूर्ण क्यों है। इस 'क्यों' के लिए ही उसे उसकी अन्तर्दृष्टि से देखना अधिक प्रामाणिक लग रहा है।
वैसे दृश्य ढांचा में वह एक साधारण काया है, ऋतुओं की भांति परिवर्तनशीलता की अनुगामी। किन्तु एक मौलिक कवि(इसके अतिरिक्त वह जो कुछ भी है, उसके विशिष्ट औरा से भी) के रूप में विविध एवं विलक्षण औरा से देदीप्यमान है। वह एक अति सरल और सहज जीवन की स्वामिनी है, स्व साम्राज्ञी है। उसके साम्राज्य में उपलब्ध समस्त बन्धु-बान्धवों, नाते-रिश्तों का वह स्व निष्ठा और उचित सावधानी से निर्वहन करती है। किन्तु वह सामूहिक और सामाजिक जीवन यापन करते हुए भी स्व दायित्व बोध को सर्वोपरि रखती है। वह जीवन यात्रा के सहयात्रियों को उद्योग और मनोयोग से पूरा सहयोग करती है। किन्तु मूल में वह स्वयं से स्वयं तक की एक ऐसी यात्री है जिसकी एन्द्रिय चेतना अन्य की अपेक्षा अधिक जागृत है, जिससे वह जगत को संवेदना के पटल पर प्रक्षेपित कर देखती और पहचानती है। (वैसे सभी कवि, कलाकार या पागल ऐसे ही होते हैं)। वह अपनी ही कसौटी पर अपनी ग्रहणशीलता का निर्मम परीक्षण करती है, जो उसकी आत्म-चर्चा के रूप में परिभाषित होती रहती है। वास्तव में वह स्वयं के माध्यम से इस संसार को ही संवेदनात्मक स्वर देती है।
वह आत्मदर्शी है, आत्मदर्पी है किन्तु आत्मश्लाघी नहीं है। उसे स्वयं के लिए कुछ भी कहने में इतना संकोच होता है कि उसकी मतानुसार छवि बना दी जाती है, जिसका वह कभी खंडन भी नहीं कर पाती है और वह उसकी सहमति मान ली जाती है। परिणाम स्वरूप अन्य उसके समीपस्थ होते हुए भी दूरस्थ होते हैं। जिससे उसे कहीं भी पूर्णतया खुलने में कठिनाई होती है। इसलिए वह आत्मरक्षा हेतु कछुए के कवच से भी कठोर आवरण में रहती है। यदि उसपर अघात-अनाघात न पड़े तो बहुधा वह उस आवरण से बाहर निकलना भी भूल जाती है। साथ ही एकांतप्रियता के कारण वह दीर्घकाल तक अपने मौन में ही समाधिस्थ रहती है। जब वह अपने आवरण से बाहर निकलती है तो उसे प्रतीत होता है कि यदि वह कवि नहीं होती तो संभवतः वाक् हीन होती। कारण पुनरावृत्तियों की पुनरावृत्ति उसे अपने आकर्षण में बाँध नहीं पाती है और वह निर्रथक प्रलाप को निषिद्ध मानती है। इसलिए वह तब तक निष्चेष्ट बनी रहती है जब तक कि कोई विशेष परिस्थिति उसे धकियाते हुए चेष्टा रत न कर दे। हालांकि चेष्टा रत होते हुए भी वह तटस्थ ही रहती है। पूर्व नियोजित प्रारब्ध पर उसकी दृढ़ आस्था ही उसके इस स्वभाव को शान्त और निश्छल बनाए रखती है। लेकिन जब कभी वह अंतरतम से आहत होती है तो भुजंगिनी के समान फुफकारती भी है। (तदपि वह काटती नहीं है)। लेकिन उसका एकांत उसकी इस दुर्बलता को समझा-बुझा कर शांत कर देता है।
वह वाक् संयमी है, वाक् सिद्ध है किन्तु वाक् प्रसारी नहीं है। उसे सूत्रों और सुक्तों में ही बोलना प्रिय है। जिससे अधिकाधिक भ्रमकारी स्थितियाँ उत्पन्न हो जाती है, परन्तु स्वस्थ और सार्थक संवाद के लिए लचीला रुख अपनाते हुए, वह वार्तालाप हेतु स्पष्ट और सुभाषित बोलने का प्रयास करती है। लेकिन अपेक्षाकृत वह एक धीर-गंभीर श्रोता ही है और अपने समभागियों की निजी अनुभूतियों के भेद को भी स्वयं तक रखती है। वह निजता की मर्यादा को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए खींची गई सीमा तक अस्पृश्य ही रहती है। वह न तो अन्य के जीवन में हस्तक्षेप करती है और न ही किसी को स्वयं के जीवन में हस्तक्षेप करने देती है। वह जितनी स्वतंत्रता औरों से चाहती है, उससे कहीं अधिक औरों को देती भी है। जिसके आधार पर वह स्व अधिकारों को पोषित करते हुए क्लेश मुक्त रहती है। लेकिन अधिकत: सहभावी उसके बनाए गए लघु घेरे का खुला उपहास उड़ाते हुए, उसे विलगता का बोध कराते हैं। जिसे वह भी आत्मीयता और उदारता से स्वीकार करती है।
मन:क्षेप में, उसकी सत्यनिष्ठा ये भी कहती है कि यह अन्तरविरोधात्मक आत्म स्वीकृति भी उसका पूर्णतया वास्तविक सत्य नहीं है। कारण एक रचनात्मक प्रकृति सतत् परिवर्तनशील दृष्टि से स्वयं का कभी भी खंडन या शोधन कर सकती है। इस समयोचित प्रक्रिया में स्व व्यवधान उत्पन्न न करना ही उसका परम ध्येय और विशेष परिचय होना चाहिए। वैसे 'स्व कथा अनंता' तो सब कहा नहीं जा सकता है और सदैव शेष रहना ही चाहिए।
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*** एक अद्भुत, आर्द्र आत्मीयता से मेरा परिचय पूछा गया तो अपनी गहराई में न चाहते हुए भी उतरना पड़ा। लेकिन बहुत खोजने पर भी मेरे परिचय का कुछ पता नहीं चला कि- मैं कौन हूँ? कठोर परिश्रम करते हुए जब अपनी ही गहरी जड़ों को खुरचा तो कुछ ऐसा दिखा।***
जिस गहराई से आपने अपना परिचय दिया है अवश्य ही पूछने वाले को इस परिचय की गहराई में उतरना ही पड़ेगा । यूँ आप भले ही कछुए के खोल में स्वयं को छुपा लेती हों , लेकिन किसी की पुकार पर आत्मीयता से हृदय के उद्गार प्रकट कर दें तो मैं इसे संवेदनशीलता की पराकाष्ठा मानती हूँ । जो आपने इंगित भी किया है ।
ReplyDeleteअब पूछने वाले को समझ जाना चाहिए कि यही लक्ष्मण रेखा है । स्वयं को इस दृष्टि से आँकना और गूढ़ परिचय देना सरल नहीं । अमृता को तन्मय हो कर इस तरह ढूँढा जा सकता है ।
इस सुंदर परिचय के लिए आभार ।
अदभुद अब थोडे से शब्दों में कैसे व्यक्त करें आपके लिखे का सार। अपनी बुद्धी के हिसाब से कुछ कुछ समझ में आया। इसी तरह लाजवाब लिखती चलें। बहुत कुछ सीख लेंगे हम भी। साधुवाद।
ReplyDeleteआप का यह अनूठा परिचय अच्छा लगा. गीता के ज्ञान योग और निष्काम कर्म योग की झलक मिलती है. काश हम भी इतने ही निष्काम भाव से संलिप्त और तटस्थ होकर जीवन का निर्वहन कर सकते! .... अवश्य ही प्रेरणादायी है
ReplyDeleteअमृता तन्मय को जानना हो तो पहले स्वयं को जानना पड़ेगा, अन्यथा बात ऊपर-ऊपर ही रह जाएगी, कुछ कुछ समझ में आएगा शेष छिपा ही रह जायेगा। आपकी लेखन कला तो अद्वितीय है ही, इसमें दो राय नहीं हैं. आप की आत्मशोधिता को नमन !
ReplyDeleteहम तो इतना ही जानते हैं कि हमारे लिए आपकी समयधर्मी उपलग्धियाँ यही हैं कि प्रायः हर विधा में अमृता तन्मय हो कर अमृत पान कराती हैं ,आप लिखती रहें हम अमृत रसास्वादन करते रहेंगे !!
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना सोमवार २३ मई 2022 को
ReplyDeleteपांच लिंकों का आनंद पर... साझा की गई है
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
संगीता स्वरूप
आपकी लेखनी के जादू के समान आपके परिचय की सुरभि भी अनुपम है । सदैव अपनी स्नेहिल ऊर्जात्मक प्रतिक्रियाओं द्वारा आभासी जगत में उत्साहवर्धन करने वाली अमृता जी का परिचय
ReplyDeleteनमनीय और अनुकरणीय है ।
अद्भुत लाजबा, मन सम्मोहित हो गया दीदी आपकी लेखनी के जादू से
ReplyDeleteअद्भुत लाजबा, मन सम्मोहित हो गया दीदी आपकी लेखनी के जादू से.........क्षमा चाहता हूँ भूल से मेरे कमेंट में पहले मेरा नाम नहीं आया ...
ReplyDeleteउत्तम व्याख्या तन्मय की
ReplyDeleteसादर नमन
और लिखना था न.मात्र इतना ही पढ़कर मन संतुष्ट नही हो पाया ... आपके व्यक्तित्व का विस्तृत परिचय निष्कलुष, निर्दोष, सरल,मौन,कल-कल प्रवाहित झरने का मधुर,मनभावन संगीत सी अनुभूति हो रही
ReplyDeleteस्वयं का सूक्ष्म विश्लेषण दिव्यता की अनुभूति हो रही।
विशिष्ट व्यक्तित्व की सम्मोहक लेखनी को
नमन।
सादर।
इस लेखनी से अत्यंत गूढ परिचय प्रतीत हो रहा है । उम्दा लेखनी ।
ReplyDeleteअपने तो क्वांटम फिजिक्स पढ़ा दिया।अब जाके कुछ कुछ क्वांटम इंटेंगलमेंट का आभास - सा होने लगा है। अलौकिक अभिव्यक्ति। सादर एनएमएन।
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ReplyDeleteआपने तो क्वांटम फिजिक्स पढ़ा दिया। अब जाके क्वांटम इंटेंगलमेंट - सा कुछ - कुछ आभास होने लगा है। अलौकिक अभिव्यक्ति! सादर नमन!!!
ReplyDeleteविलक्षण! कोई पूरी आत्मकथा लिख कर भी शायद इतना गूढ़ परिचय नहीं दे पाता होगा जितना आपने इतने सी आत्माभिव्यक्ति में कह दिया, शब्दों का चुनाव अद्भुत जो समास रूप में पूर्ण वाक्य है।
ReplyDeleteअपने आप को समझना इतना सहज नहीं, पर आपने तो समझ भी लिया और उसे अभिव्यक्त भी कर दिया।
आपकी दार्शनिक अभिव्यक्ति आत्म मंथन कर हर पाठक को विस्मित कर रही है।
मैं सच निशब्द हूँ कि जो कहना चाह रही हूँ वो पूर्ण तरह नहीं कह पा रही।
अप्रतिम अद्भुत अद्वितीय!!!
सही कहा आ.विश्वमोहन जी ने ...क्वांटम फिजिक्स ही तो है यह अमृता जी का...बल्कि लगभग सभी संवेदनशील कवियों का ।
ReplyDeleteकमाल का विश्लेषण है स्व का...लेखन कला तो है ही सराहना से परे ...बहुत ही लाजवाब
उत्कृष्ट ,सृजन।
लाजवाब आँकलन है
ReplyDeleteबहुत ही लाजवाब सृजन।
ReplyDeleteअप्रतिम...लेकिन बहुत कुछ कहते-कहते कह नहीं पाई आप। उम्मीद है आगे अभी और पढ़ने को मिलेगा।
ReplyDeleteअद्भुत अप्रतिम परिचय... आपकी लेखनी का जादू तो हमे हमेशा से मोहित करता आया है। अमृता को उनकी रचनाओं में तन्मय होकर ही जाना है। लिखते रहिए। शुभकामनाएं आपको
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