माँ!
तेरा यह रूप
जो मैं देख रही हूँ
न जाने कैसे
क्या मैं लेख रही हूँ
जबकि पता है
अलेख को ही
परिलेख रही हूँ
ये क्या मैं
उल्लेख रही हूँ?
हाँ!
मैं तुझमें तन्मय
और मुझमें लीन हो तुम
तब तो महक रही हूँ मैं
जैसे अगरू, धूमी, कुंकुम
जैसे बौर, कोंपल, कुसुम
तब तो चहक रही हूँ मैं
वह सब कह कर
कहने की जो बात नहीं
इन टूटे-फूटे वर्णों से छू कर
क्या तुम्हें ही कहती हूँ
ये तो मुझको ज्ञात नहीं
हाँ!
कहना है
तुम ही मेरी हँसी हो
गायन हो, रुदन हो
और कहना है कि
जो कह नहीं सकती
जो कह नहीं पाती
वही वदन हो
तुम ही मोदन हो
कीर्तन हो, नर्तन हो
तुम ही आलंबन हो
तुम ही स्वावलंबन हो
माँ!
हर क्षण
श्रद्धा से आहुत प्राण है
श्वास-श्वास में स्पर्शी त्राण है
उमड़ता-ढलकता हृदय पूत है
इस क्षण में यही भाव अधिभूत है
तुम तुम तुम बस तुम ही हो
मैं मैं मैं सब तुम ही हो
सब तुम ही हो
बस तुम ही हो
हाँ! माँ!
जी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार(०३-१० -२०२२ ) को 'तुम ही मेरी हँसी हो'(चर्चा-अंक-४५७१) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
अदभुद
ReplyDeleteतुम तुम तुम बस तुम ही हो
ReplyDeleteमैं मैं मैं सब तुम ही हो
सब तुम ही हो
बस तुम ही हो
हाँ! माँ!
देवी माँ के रंग मे एकाकार माँ को समर्पित भक्तिमय समर्पण ।
भावपूर्ण रचना
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर सृजन
ReplyDeleteभक्तिभाव में डूबी हुई और डुबाने वाली सरस रचना, माँ के सिवाय यहाँ कुछ हो भी कैसे सकता है, वही कारण है वही कार्य
ReplyDeleteमाँ एक सुखद एहसास है... जिसकी छाया जीवनपर्यंत हमारे साथ चलती है...बेहतरीन भावाभिव्यक्ति...👏👏👏
ReplyDeleteसरस मर्मस्पर्शी सुंदर सृजन
ReplyDeleteसरस मर्मस्पर्शी सुंदर सृजन
ReplyDeleteवाह ! उत्तम सृजन....
ReplyDeleteमाँ को समर्पित मर्मस्पर्शी रचना
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर भावमय प्रस्तुति।
ReplyDeleteशब्दों का जादूई चयन मंत्रमुग्घ कर रहा है।
जय हो।
अपना दर्द मां को ही बतायेंगे।
ReplyDeleteलोग तो उस पर नमक ही लगायेंगे।
माँ के प्रति मन हमेशा ही संवेदनशील रहता है , माँ है तो सब कुछ है । भावमयी रचना ।सत्य कहती हुई ।
ReplyDeleteहर बेटी माँ की ही परछाई होती है इसलिए तो माँ के प्रति हमेशा ही मन संवेदनशील रहता है।
ReplyDelete