कुछ भी लिख देती हूँ
हाँ ! मैं शब्दों के घास, फूस की खटमिट्ठी खेती हूँ
यदि चातक आकर खुशी-खुशी चर ले तो
खूब लहालोट होकर लहलहाती हूँ
न चरे तो भी अपने आप में ही हलराती हूँ
अपना बीज है, अपना खाद है
न राजस्व चुकाना है, न ही कर देना है
बदले में बस भूरि-भूरि प्रशंसा लेना है
ख्याति, कीर्ति का क्या कहना
सिरजते ही चारों ओर से बरस पड़ती है
जिसे देख कर यह परती भी सोना उगलती है
न संचारण , संप्रेषण की कोई चिन्ता
न ही प्रकाशक, संपादक की तनिक भी फिकर
हाँ ! कुछ कम नहीं है हमारी लेखनी महारानी जी की अकड़
विनम्रता कहती है-अर्थ अर्जित करना है जिन्हें
वे अत्याधुनिक मिश्रित खेती को अपनाये
पर हमें तो हृदय से बस विशुद्ध खेती ही भाये .
एक दशक से तो मैं आपकी कविता पढ़ रहा हूँ। अद्भुत जीवन के रंग, आपकी कविता के संग।
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज सोमवार 19 अक्टूबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteएक और लजवाब कृति। लिखते रहें।
ReplyDeleteअद्भुत सृजन अमृता जी ! आपका सृजन सदैव मंत्रमुग्ध करता है ।
ReplyDeleteवही तो. विशुद्ध खेती की ही तो दरकार होती है पाठकों को. बाकी सब कॉम्प्लीमेंट्री होता है.
ReplyDeleteसुंदर कृति
ReplyDeleteबहुत बढ़िया ।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया सृजन।
ReplyDeleteKavita mein katu satya...
ReplyDeleteहाँ ! कुछ कम नहीं है हमारी लेखनी महारानी जी की अकड़
ReplyDeleteविनम्रता कहती है-अर्थ अर्जित करना है जिन्हें
वे अत्याधुनिक मिश्रित खेती को अपनाये
पर हमें तो हृदय से बस विशुद्ध खेती ही भाये .
क्या बात है
लहलहाती रहे यह विशुद्ध खेती और आपकी कलम का जादू यूँही सिर चढ़ कर बोलता रहे
ReplyDeleteबेहतरीन रचना। एक कविमन का क्या कहना! बस लिखते रहना, लिखते रहना, रचते रहना मन का गहना। अपनी खेती अपना अंगना....
ReplyDeleteश्रेष्ठ ...विशुद्ध कविमन को नमन।।।।।।