वो प्रेम ही क्या
जो कहीं के ईंट को
कहीं के रोड़े से मिलाकर
भानुमती का कुनबा जोड़वाए
और उन्हें कोल्हू पर लगातार
तेरे-मेरे का फेरा लगवाकर
दिन-रात महाभारत करवाए
वो प्रेम ही क्या
जो दूसरों के मनोरंजन के लिए
खेल वाला गुड्डा-गुड्डी बनकर
सबको खुश कर जाए
फिर अपने बीच होते
पारंपरिक खटरागी खटर-पटर से
सबों को मिर्च-मसाला दे कर
खूब तालियां बजवाए
वो प्रेम ही क्या
जो जरा-सा ज्वलनक वाले
फुसफुसिया पटाकों की तरह
झट जले पट बुझ जाए
और उसके शोर को भी कोई
कानों-कान सुन न पाए
फिर भरी-पूरी रोशनी में भी
कालिख पोत बस अंधेरा ही फैलाए
वो प्रेम ही क्या
जो उबाऊ-सी घिसी-पिटी
दैनिक दिनचर्या की तरह
अति सरल-सुलभ हो कर
सुख-सुविधा भोगी हो जाए
और बात दर बात पर
अहं कटारी ले एक-दूसरे का
आजीवन प्रतिद्वंद्वी बन जाए
वो प्रेम ही क्या
जो पहले से निर्धारित सुलह के
परिपाटी पर पूरा का पूरा खरा उतरे
पर जिसमें कोई भी रोमांच न हो
या न हो सैकड़ों-हजारों झन्नाटेदार झंझटें
और जो जान-जहान का रिस्क न लेकर
उठाये न लाखों-करोड़ों खतरे
वो प्रेम ही क्या
जिसको भली-भांति
ये न पता हो कि
बस कुछ पल का ही मिलना है
और बहुत दूर हो जाना है
फिर मिलने की तड़प लिए
हर पल तड़फड़ाना है
वो प्रेम ही क्या
जिसपर दुनिया एक-से-एक
मजेदार मनगढ़ंत कहानियाँ
बना-बनाकर न हँसे
और एक सुर मिलाते हुए
सही-गलत की कसौटी पर
खूब बाँच-बाँच कर न कसे
वो प्रेम ही क्या
जो आह भरा-भरा कर
सबके सीने पर
जलन का साँप न लोटवाए
काश! उन्हें भी कभी
कोई ऐसा प्रेम मिल पाता
ये सोचवा-सोचवा कर
प्रेम हलाहल न घोटवाए
वो प्रेम ही क्या
जो दहकता अंगार बना कर
हर पल प्रेम दवानल में
बिना सोचे-समझे न कुदवाए
और अल्हड़ अक्खड़ता से
दोधारी तलवार पर चलवाकर
खुशी-खुशी शीश न कटवाए
वो प्रेम ही क्या
जो युगों-युगों तक
साँसों का सुगंध बन
सबके नथुनों को न फड़काए
और जीवित मुर्दों के साथ-साथ
लकीरों के फ़कीरों में भी
भड़भड़ करवा कर न भड़काए
वो प्रेम ही क्या
जो शब्दातीत होकर
शाश्वत न हो जाए
शायद इसीलिए तो
रुक्मिणी के शैलीगत प्रेम पर
राधा का शहद लुटाता प्रेम
सदा के लिए भारी पड़ जाए .
लीक पीटने वाले प्रेम से हटकर। प्रेमीजनों लकीर के फ़क़ीर मत बनो। क्या अद्भुत लिखती हो आप।
ReplyDeleteहमेशा की तरह लाजवाब अभिव्यक्ति
ReplyDeleteवो प्रेम ही क्या
ReplyDeleteजो दूसरों के मनोरंजन के लिए
खेल वाला गुड्डा-गुड्डी बनकर
सबको खुश कर जाए
फिर अपने बीच होते
पारंपरिक खटरागी खटर-पटर से
सबों को मिर्च-मसाला दे कर
खूब तालियां बजवाए.. वाह! क्या खूब कहा दी।
सच लोगों की बुद्धि यही पर अटकी है कि कैसे किसी का तमाशा बनाया जाये। मान गए आपको..
सादर प्रणाम।
वो प्रेम ही क्या
ReplyDeleteजो कहीं के ईंट को
कहीं के रोड़े से मिलाकर
भानुमती का कुनबा जोड़वाए
और उन्हें कोल्हू पर लगातार
तेरे-मेरे का फेरा लगवाकर
दिन-रात महाभारत करवाए। ..सच आपकी इस रचना पर न्योछावर होने की इच्छा है,पूरी रचना लाजवाब ।परंतु शुरुआत में ही जो हँसी फूटी । इसलिए इन पंक्तियों को उद्धृत कर दिया । ।बहुत यथार्थपूर्ण और शाश्वत भी ।
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज रविवार 12 सितम्बर 2021 शाम 3.00 बजे साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteप्रेम तो हमेशा ही
ReplyDeleteभानुमति का कुनबा रहा है
जहाँ कहीं की ईंट और
कहीं का रोड़ा रहा है ।
प्रेम भला कब कहाँ
छिपा है
मनगढ़ंत कहानियाँ बन
सबकी जिव्हा पर
रहा है ।
सच कहा कि
प्रेम सरल नहीं
सार्थक नहीं प्रेम जब तक
उसमें जलन का
गरल नहीं ।
सच तो ये है कि
सुनाई जाती है
प्रेम की वो कहानी
जो अधूरी है
इसी लिए राधा का प्रेम
रुक्मणि के प्रेम पर भारी है ।
आज पूरी प्रेम की व्याख्या समझ पा रही हूँ । 😄😄😄😄
बहुत बढ़िया । 👌👌👌👌
वाह! प्रेम की इतनी सारी बानगियाँ आपने इस रचना में दिखा दी हैं कि जिस किसी को भी शक-शुभहा हो पूरी तरह से निकल जाए। प्रेम के नाम पर कितना रोना-धोना चलता है, फिर सब बराबर हो जाता है, अब कसौटी मिल गयी है खरे सोने जैसा प्रेम ही बचेगा इस पर बाक़ी सब रफ़ूचक्कर हो जाएगा
ReplyDeleteवाक़ई, लाजवाब! अजब प्रेम की ग़ज़ब कहानी!!!
ReplyDeleteप्रेम की बहुत सुंदर व्याख्या की है आपने . दैनिक बोलचाल के शब्दों का प्रयोग रचना की सुंदरता में चार चाँद लगा रहे हैं ! शुभकामनायें आपको ...
ReplyDeleteवो प्रेम ही क्या
ReplyDeleteजिसकी परिभाषा
एहसासों से परे
शब्दों में
गढ़ी जा सके।
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प्रेम के विविध स्वरूप जितने मन उतने रूप।
भावनात्मक एवं गूढ़ विश्लेषात्मक सृजन प्रिय अमृता जी।
सस्नेह।
प्रेम के हर रंग पर रोशनी डालता सुंदर सृजन। आप जैसे रचनाकारों के लिए काव्य सृजन कितना सरल है। सोच कर हैरानी होती है। आपको बहुत- बहुत बधाई। शुभकामनाएं ।
ReplyDeleteअद्भुत सृजन!!
ReplyDeleteवो प्रेम ही क्या
ReplyDeleteजो उबाऊ-सी घिसी-पिटी
दैनिक दिनचर्या की तरह
अति सरल-सुलभ हो कर
सुख-सुविधा भोगी हो जाए
और बात दर बात पर
अहं कटारी ले एक-दूसरे का
आजीवन प्रतिद्वंद्वी बन जाए
वाह!!!
कमाल का सृजन
वह प्रेम ही क्या!!!
बहुत ही लाजवाब।
वो प्रेम ही क्या
ReplyDeleteजो शब्दातीत होकर
शाश्वत न हो जाए..
वाह ! क्या बात कही है । शाश्वत प्रेम की शाश्वत परिभाषा ।
अहा! अद्भुद और सुंदर भाव उकेरती प्रेम की खूबसूरती को व्यक्त करती शानदार अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteहिंदी दिवस की अनंत शुभकामनाएं ..
राधा का शहद लुटाता प्रेम...
ReplyDeleteअलग-अलग सा....वाकई सबसे अलग...महसूस होता हुआ।