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Sunday, September 5, 2021

जब माँ किलक कर कहती है ...........

जब माँ 

अपनी बेटी से

किलक कर

कहती है कि

अरे !

तू तो 

मेरी ही माँ

हो गई है

तब गदराये गाल

और झुर्रियों की

अलोकिक दपदपाहट

ऊर्जस्वित होकर

सृष्टि और सृजन को

हतप्रभ करते हुए

परम सौभाग्य से

भर देती है.


                                   साधारणतया जो गर्भ धारण कर बच्चे को जन्म देती है वो माँ कहलाती है । माँ अर्थात सृष्टि सर्जना जिसकी सर्वश्रेष्ठता अद्भुत और अतुलनीय होती है । इसलिए मातृत्व शक्ति प्रकृति के नियमों से भी परे होती है जो असंभव को संभव कर सकती है । एक माँ ही है जो आजीवन स्वयं को बच्चों के अस्तित्व में समाहित कर देती है । जो बिना कहे बच्चों को सुनती है, समझती है और पूर्णता भी प्रदान करती है । पर क्या बच्चें अपनी माँ के लिए ऐसा कर पाते हैं ?  क्या बच्चें कभी समझ पाते हैं कि उनकी माँ भी किसी की बच्ची है ? भले ही माँ की माँ शरीरी हो या न हो । पर क्या बच्चें कभी जान पाते हैं कि उनके तरह ही माँ को भी अपनी माँ की उतनी ही आवश्यकता होती होगी ? 

                                   सत्य तो यह है कि माँ का अतिशय महिमा मंडन कर केवल धात्री एवं दात्री के रूप में स्थापित कर दिया गया है । जिसे सुन-सुनकर बच्चों के अवचेतन मन में भी यही बात गहराई से बैठ जाती है । जिससे वे माँ को पूजित पाषाण तो समझने लगते हैं पर वो प्रेम नहीं कर पाते हैं जिसकी आवश्यकता माँ को भी होती है । जबकि वही बच्चें अपने बच्चों को वैसे ही प्रेम करते हैं जैसे उनके माता-पिता उन्हें करते हैं । पुनः उनके बच्चें भी उनको उसी रूप में प्रेम करते हैं तब बात समझ में आती है कि कमी कहाँ है ।

                                 अपने माता-पिता को अपने बच्चों की तरह न सही पर दत्तक की तरह ही प्रेम कर के देखें तो पता चलेगा कि प्रेम का एक रूप यह भी है । जैसे अपने बच्चों को प्रेम करते हुए बिना कुछ कहे ही सुनते-समझते हैं वैसे ही अपने माता-पिता को भी सुनने-समझने का प्रयास कर के तो देखें तो सच में पता चलेगा कि प्रेम का वर्तुल कैसे पूर्ण होता है । सत्यत: प्रेम की आवश्यकता सबों को होती है और अंततः हमारा होना प्रेम होना ही तो है ।


मैंने माँ को 

बच्ची की तरह

कई बार किलकते देखा है

हर छोटी-बड़ी बातों में

खुश हो-होकर

बार-बार चिलकते देखा है

हाँ ! ये परम सौभाग्य

मेरे भाग्य का ही तो 

अकथनीय लेखा है

जो मैंने माँ को भी

सहज-सरल बाल-भाव में

मुझे अनायास ही

माँ कहते हुए देखा है .         

                      *** परम पूज्य एवं परम श्रद्धेय ***

      *** समस्त प्रथम अकाल गुरु (माता-पिता) को समर्पित ***

                   *** हार्दिक शुभकामनाएँ एवं आभार ***           

17 comments:

  1. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा रविवार(०५ -०९-२०२१) को
    'अध्यापक की बात'(चर्चा अंक- ४१७८)
    पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

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  2. नमन आपके चिन्तन को🙏 निशब्द हूँ आपके सृजन के मर्म के समक्ष ।

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  3. सच है .....माँ को बस दात्री न समझें । उसमें भी एक बच्ची रहती है । सुंदर चिंतन ।
    माता पिता ही हर एक के प्रथम गुरु होते हैं ।
    शिक्षक दिवस की शुभकामनाएँ ।

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  4. सही कहा आपने कि सत्य तो यह है कि माँ का अतिशय महिमा मंडन कर केवल धात्री एवं दात्री के रूप में स्थापित कर दिया गया है । जिसे सुन-सुनकर बच्चों के अवचेतन मन में भी यही बात गहराई से बैठ जाती है । जिससे वे माँ को पूजित पाषाण तो समझने लगते हैं पर वो प्रेम नहीं कर पाते हैं जिसकी आवश्यकता माँ को भी होती है ।
    आखिर माँ भी तो इंसान ही है न ...और वृद्धावस्था में तो माँ पापा और भी बच्चे से हो जाते हैं। फिर ये महामामंडन से इतर उन्हें सेवा और प्रेम देना चाहिए जिसकी उन्हें जरूरत होती है।
    बहुत सुन्दर संदेशप्रद सृजन।

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  5. माँ को लेकर सुंदर,एक अलग तरह का चिंतन, सुंदर सार्थक सृजन।

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  6. आपकी लिखी रचना सोमवार. 6 सितंबर 2021 को
    पांच लिंकों का आनंद पर... साझा की गई है
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

    संगीता स्वरूप

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  7. सुंदर चिंतन... हम रिश्तों में उन्हें ऐसे बांध देते हैं कि उन्हे एक व्यक्ति एक इंसान के रूप में नहीं देख पते हैं...जबकि हमे देखने की जरूरत है...

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  8. अद्भुद भावों से भरा लेखन ... निःशब्द हो जाती हूँ हर बार आपको पढ़कर ... अनंत शुभकामनाएं सस्नेह ❤️

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  9. हाँ ! ये परम सौभाग्य

    मेरे भाग्य का ही तो

    अकथनीय लेखा है

    जो मैंने माँ को भी

    सहज-सरल बाल-भाव में

    मुझे अनायास ही

    माँ कहते हुए देखा है .
    बिल्कुल सही बात !

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  10. बच्चे माँ के प्रेम पर अपना अधिकार समझते हैं, कभी जिद करते हैं और कभी क्रोध भी, पर उसके मन को समझकर वैसा प्रेम नहीं दे पाते,आपकी कविता जीवन को देखने की एक नयी दृष्टि देती है, इस अनुपम सृजन के लिए बधाई !

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  11. बहुत बहुत सुन्दर सराहनीय भी ।

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  12. अहा! कितनी सुंदर कोमल भावाभिव्क्ति मन विभोर हो गया पढ़कर और सच है ये यह सुंदर भी ।
    आसाराम मनोभाव।
    सस्नेह।

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  13. बहुत ही सुन्दर व सार्थक लेख! अमृता जी, आपके इस सारगर्भित लेख के परिप्रेक्ष्य में मैं अपने विचार साझा करना चाहूंगा। जल की धारा का प्रवाह एक ही दिशा में होता है, कभी विपरीत दिशा में नहीं हुआ करता। यही स्थिति माता-पिता के बच्चों के प्रति प्यार के मामले में हुआ करती है। बच्चे माता-पिता से जल की धारा की तरह जुड़े तो रहते हैं, किन्तु उनके प्यार का प्रवाह माता-पिता की ओर न हो कर उनके अपने बच्चों की तरफ चलता है। प्रकृति यूँ ही कार्य करती है और समय चक्र चलता रहता है। इस तथ्य के विपरीत कुछ भाग्यशाली माता-पिता बच्चों से यथोचित प्यार पाते भी हैं पर उस विपरीत प्रवाह की तीव्रता समान तो हो ही नहीं सकती। वस्तुतः अगली पीढ़ी उस प्यार की हक़दार जो हो जाती है। माता-पिता का प्रयास यह होना चाहिए कि इस स्थिति को सकारात्मक रूप से स्वीकारें व सहजता से लें। अधिक प्रत्याशा निराशा का हेतु बनती है। सामान्यतः अच्छे संस्कारित बच्चे अपने माता-पिता की व्यथा का कारण तो नहीं ही बनेंगे। वैसे आपने एक अच्छे व संवेदनशील विषय को अपने सुगठित विचारों से अभिव्यक्ति दी है। भावभीनी बधाई स्वीकारें महोदया!

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  14. बहुत कुछ सोचने को विवश करती है आपकी रचना ...
    माँ माँ के अलावा भी बहुत कुछ है, नारी है, इकाई है, सत्ता है, उसके मन में एक लड़की भी है ... जो कई बार खो जाती है या बच्चे ही उसको माँ के आवरण में बाँध कर छीन लेते हैं ...
    यथार्थ की परतों को उजागर करती लाजवाब रचना ...

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  15. उम्मीद करते हैं आप अच्छे होंगे

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  16. माँ के मन आँगन से निकली माँ की पुकार....

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