इक प्रेत बैठा है
इस सजायाफ्ता सीने में
जैसे कोई
नायाब अंगूठी फंसी हो
किसी नामुनासिब नगीने में ...
बड़ी बेतकल्लुफी से वह
मुझे ही कहता है कि
बड़ा मजा है
फ़स्लेबहार सा ही
फैंटेसी में जीने में
व अपने अस्ल सूरत को
छिपाकर ऐसे रखा करो
किसी भी आफ़ताबी आईने में
कि रूमानियत ही रूमानियत
नजर आता रहे
हर एक कयास के करीने में ...
गर कभी वो नाख़ुशी जताए तो
अदब से ले जाओ
भंवर पड़े मँझधार में
और बिठा आओ
किसी डूबते सफीने में
फिर चुरट सुलगाओ
हुक्का गुड़गुड़ाओ
और अपनी तमन्नाओं में
विह्स्की या रम मिला कर
पूरी मस्ती से
लग जाओ पीने में ...
वो जो प्रेत है न
और भी क्या-क्या कह कर
वक्त-बेवक्त मुझे बहकाता है
कसम से बताते हुए मैं
लथपथ हूँ ठन्डे पसीने में ...
वैसे गौर फरमाया जाए तो
जब प्रेत ही बैठा है
इस सनकी सीने में
तो हर्ज ही क्या है ?
उसी के कहे सा ही जीने में .
अब ठीक है :)
ReplyDeleteयह भी ठीक है :(
इस सनकी सीने में चुभती है धीमी सी आंच कोई ....तो हर्ज ही क्या है उसको जीने में .....
ReplyDeleteतो हर्ज ही क्या है ?
ReplyDeleteउसी के कहे सा ही जीने में .
:) बहुत बढ़िया
आप भी न डॉ मोनिका जी -ये प्रेत से पीछा छुडाने की कामना कीजिये न :-)
Deleteवो जो प्रेत है न
ReplyDeleteऔर भी क्या-क्या कह कर
वक्त-बेवक्त मुझे बहकाता है
कसम से बताते हुए मैं
लथपथ हूँ ठन्डे पसीने में ...
बढिया, सुंदर अभिव्यक्ति
इक प्रेत बैठा है
ReplyDeleteइस सजायाफ्ता सीने में
जैसे कोई
नायाब अंगूठी फंसी हो
किसी नामुनासिब नगीने में ... अजीबोगरीब स्थिति की अद्भुत सोच
बड़ी अद्भुत सोच,,,,
ReplyDeleteRECENT POST: पिता.
हाँ कभी कभी अंतर्मन ..फँसी-ड्रेस मोड में भी चला जाता ...तब ऐसी ही गुस्ताखियाँ करता और करवाता है ..कोई हर्ज़ नहीं...इसे भी आजमा लिया जाये ...:)
ReplyDeleteवाह ... अनुपम भाव
ReplyDeleteजब करना उसने ही है तो उसकी सुनने में हर्ज़ क्या !!
ReplyDeleteशानदार, परंतु प्रेत को मुस्तकबिल देना
ReplyDeleteतमन्नाओं की घुटन बयान करता सा लगा ....
गहरी ऊहापोह ...
वोह ज़माने में ढुंढते रहे रोशनी ,
ReplyDeleteजिनसे रोशन वक़्त की तंहाईयाँ थीं ...। ~ प्रदीप यादव ~
मन तो वही सुनता है जो दिल मे हो .....चाहे वो प्रेत ही क्यों न हो. सुन्दर.
ReplyDeleteबहुत खूब
ReplyDeleteसुन्दर भावाभिव्यक्ति
यदि हिन्दी में लिखतीं इस कविता को तो बहुत अच्छा होता। सुझाव है कि उर्दू में न लिखें। आपका मन विशुद्ध हिन्दी में अच्छा पढ़ने में आता है तथा मनभावन भी होता है। बुरा न मानना।
ReplyDeleteवैसे गौर फरमाया जाए तो
ReplyDeleteजब प्रेत ही बैठा है
इस सनकी सीने में
तो हर्ज ही क्या है ?
उसी के कहे सा ही जीने में .
गजब का फलसफा
लगता है जैसे किसी ने कोई ऐसी बात कह दी हो...जिसके आगे कुछ और जोड़ने की जरूरत न हो। बहुत-बहुत शुक्रिया सुंदर रचना के लिए।
ReplyDeleteजो दिल मे हो उसकी सुनने में हर्ज़ क्या ...........अनुपम........
ReplyDeleteमजेदार -कोई प्रेत अनुष्ठान हो और उस प्रेत से पिंड छूटे -न जाने कहाँ से भटका हुआ आया है -गया से तो नहीं ?? :-)
ReplyDeleteकभी कभी जब जानते हुए भी अनचाही चीज़ें करता हूँ, मुझे भी कुछ ऐसा ख्याल आता है कि कोई है मुझमें मेरा ही दुश्मन!
ReplyDeleteमैं ही फ़रिश्ता भी हूँ और मैं ही शैतान भी.......अमृता जी इतनी नायब उर्दू के लिए सलाम अर्ज़ करता हूँ........ये भी पता है की ये कहाँ से आई है :-)
ReplyDeleteप्रेत से दोस्ती...यह तो हॉरर फिल्म जैसा लगता है...
ReplyDeleteजब प्रेत ही बैठा है
ReplyDeleteइस सनकी सीने में
तो हर्ज ही क्या है ?
उसी के कहे सा ही जीने में .
बात तो ठीक है
जब प्रेत ही बैठा है
ReplyDeleteइस सनकी सीने में
तो हर्ज ही क्या है ?
उसी के कहे सा ही जीने में.
शुक्रिया सुंदर रचना के लिए
प्रेत न जाने क्या क्या करवा देता है हमसे।
ReplyDeleteमन की घुटन की भावभरी अभिव्यक्ति ,
ReplyDeleteइस सार्थक रचना के लिए
शुक्रिया अमृता जी
पहली बार आपके ब्लॉग पर आना
हुआ रचना बहुत बढ़िया है.....
वैसे गौर फरमाया जाए तो
ReplyDeleteजब प्रेत ही बैठा है
इस सनकी सीने में
तो हर्ज ही क्या है ?
उसी के कहे सा ही जीने में .
....आंतरिक द्वन्द की बहुत प्रभावी अभिव्यक्ति...
जब प्रेत ही बैठा है
ReplyDeleteइस सनकी सीने में
तो हर्ज ही क्या है ?
उसी के कहे सा ही जीने में .
बिल्कुल मान लीजिये उसकी बात ………ये प्रेत सबमें है:)
बेहद अर्थ पूर्ण बहुत रवानी लिए है यह रचना .प्रवाह ही प्रवाह .मानसिक स्थितियों का शब्द विस्फोट हुआ है रचना में जस का तस .
ReplyDeleteशुक्रिया आपकी सद्य टिपण्णी का .समाज उपयोगी सार्थक लेखन के लिए बधाई .
ReplyDeleteVAH KYA KHOOB. UTAR AAYA HAI PRET KAL SAM JINE SE
ReplyDeleteLAGTA HAI JADA VO MERE DIL ME NAGINE SE
जब प्रेत ही बैठा है
ReplyDeleteइस सनकी सीने में
तो हर्ज ही क्या है ?
उसी के कहे सा ही जीने में .
सच कहा आपने .....कई बार प्रेत क्या लिखवा देता है ....पता ही नहीं चलता ...
सार्थक रचना ...
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