मैं चतुरी
एक मेरी मटकी
उस मटकी में
भर कर
अपने संसार को
सिर पर रख
चला करती हूँ
मटक मटक कर
अपनी ही राह पर.....
आँखों में बनते
मन में बसते संसार को
उसी मटकी में
भरती जाती हूँ...
अपने संसार में
ऐसे मगन होती हूँ कि
उड़-उड़ कर
छूने लगती हूँ
अपने गगन को...
अचानक से
टकराती भी हूँ
किसी संदिग्ध
संक्रमित संसार से
गिरती हूँ औंधे मूँह
टूट जाती है
मेरी मटकी
और बिखर जाता है
मेरा संसार भी....
मूढ़ता या बुद्धिमत्ता में
मैं चपला
उसी क्षण
अपनी मटकी में
एक और संसार भरती हूँ
फिर सिर पर रख
फिर उसी राह पर
चलने लगती हूँ
मटक मटक कर .
एक मेरी मटकी
उस मटकी में
भर कर
अपने संसार को
सिर पर रख
चला करती हूँ
मटक मटक कर
अपनी ही राह पर.....
आँखों में बनते
मन में बसते संसार को
उसी मटकी में
भरती जाती हूँ...
अपने संसार में
ऐसे मगन होती हूँ कि
उड़-उड़ कर
छूने लगती हूँ
अपने गगन को...
अचानक से
टकराती भी हूँ
किसी संदिग्ध
संक्रमित संसार से
गिरती हूँ औंधे मूँह
टूट जाती है
मेरी मटकी
और बिखर जाता है
मेरा संसार भी....
मूढ़ता या बुद्धिमत्ता में
मैं चपला
उसी क्षण
अपनी मटकी में
एक और संसार भरती हूँ
फिर सिर पर रख
फिर उसी राह पर
चलने लगती हूँ
मटक मटक कर .
विलक्षण ...सुलक्षणा ...चतुर नार की मन मोहक कहानी ...
ReplyDeleteगागर में भरे नीर और आँखों में पानी ...!!
बहुत ही सुंदर भाव पिरोये हैं ....अद्भुत...!!
चतुराई इसी में है की जीवन भर संसार को भरते रहें अपनी मटकी में .. सुन्दर रचना .
ReplyDeleteye hi jeevan or is sansar ka niyaam hai
ReplyDeletebahut khub
सब चल रहे हैं अपनी मटकी सम्हाले, धीरे धीरे।
ReplyDeleteअपनी मटकी में
ReplyDeleteएक और संसार भरती हूं
बहुत बढि़या ... बेहतरीन भाव संयोजन ।
वाह! बहुत खूबसूरत....
ReplyDeleteसादर...
मटकी का प्रयोग अच्छा लगा ! सबने अपने अपने सर पर अपने संसार की मटकी पहन रखी है और अपनी धुन में मगन हैं !
ReplyDeleteसुन्दर अभिव्यक्ति !
आभार !
बहुत ही खूबसूरत एहसास !
ReplyDeleteभावपूर्ण रचना |बधाई |
ReplyDeleteआशा
बहुत सुन्दर प्रस्तुति ||
ReplyDeleteबधाई ||
अब पनघट के दिन तो रहे नहीं, चलो संसार भर कर ही चलें :)
ReplyDeleteAmrita,
ReplyDelete4 KAVITAAYAN PARHI. YEH WALI MUJHE SABSE ACHCHHI LAGI.
Take care
बहुत गूढ़ मटकी, बहुत ही प्यारी चाल -
ReplyDeleteसर पर मटकी, मटकी में संसार , संसार में हम सब और सब के सर पर मटकी.. जीवन की अनसुलझी गुथियों को सरलता से समझाया आपने.
ReplyDeleteसुन्दर रचना.
WWW.BELOVEDLIFE-SANTOSH.BLOGSPOT.COM
बहुत सुन्दर प्रविष्टि...वाह!
ReplyDeleteसुंदर.....
ReplyDeleteSunder, apritam rachna.
ReplyDeleteAabhaar. . !!
वाह... यही तो जिजीविषा है
ReplyDeleteविशाल जी ने मेल से कहा --
ReplyDeleteआदरणीया अमृता जी,
आपकी रचनायों में विलक्षणता है.
कितनी भी कोशिश की जाए ,इन्हें पढ़े बिना रहा नहीं जा सकता.
इस रचना की शुरुआत ही कितना कुछ कह रही है
मैं चतुरी
एक मेरी मटकी
और अंत का द्वंद्व हम सभी को आईना दिखला जाता है.
बस लिखते जाएँ,शिखर छोटे पड़ते जायेंगे.
bahut achche bhaav ek baar giri to kya honsla buland ho to baar baar naya sansaar sambhaal kar chalenge.bahut achcha likha hai.
ReplyDeleteसुन्दर शब्दावली,सुन्दर अभिव्यक्ति.भावपूर्ण कविता के लिए आभार.....
ReplyDeleteअत्यंत उत्क्रिस्ट रचना बेहद भावपूर्ण और मटकी में भरा संसार का सपना अपना होने जैसा बरबस यद् दिला जाता है उन गोपिकाओं का जो माखन भरी मटुकी लिए उस परम अनुराग में मतवाली सी चली जा रही हैं कृष्ण में बिभोर और क्रिशन तोड़ते रहते हैं मटकी और माखन रूपी संसार के आकर्षण को और भर देते है परम दिब्य प्रेम से से गोपिकाए हो जाती हैं बिभोर .
ReplyDeleteयह संसार की ठोकर ही तो यद् दिलाती है उस और कालने की.
लिख सकने के लिए शब्द भी मौन हो चुके है
'अपना संसार' .... 'अपने गगन'... संसार और गगन के साथ ये 'अपना' लिखना कितने सुन्दर विम्ब का सृजन कर रहा है...
ReplyDeleteThe sense of belonging well underlined!
best wishes!
सुभानाल्लाह..........बहुत ही खूबसूरत......आपकी मटकी सदा सलामत रहे और उसमे परम प्रकाश भरा रहे :-)
ReplyDeleteअरे अमृता तुमने तो गागर में सागर वाली कहावत चरितार्थ कर दी. बधाई इस सुंदर प्रस्तुति के लिए.
ReplyDeleteशानदार बिम्ब प्रयोग ………एक अलग ही नज़रिया और उसके माध्यम से गहरी बात कह दी।
ReplyDeleteमटकी का बिम्ब और जीवन. नया प्रयोग अच्छा लगा. बधाई
ReplyDeletebahut acchha likh leti hain aap. sunder shabd diye hain bhaavon ki kashmkash ko.
ReplyDeleteसुंदर प्रस्तुति के लिए बधाई..
ReplyDeleteमटकी का बहुत अच्छा पयोग बहुत अच्छा लगा,...बधाई
ReplyDeleteमेरे नए पोस्ट पर इंतजार है,...
मजेदार ,मटक मटक मटकी लिए नायिका की छवि -क्या कहने !
ReplyDeleteजीवन ऐसी ही उत्फुल्लता और अपराजेयता का पर्याय है ...
क्या कहने, कहीं मटरगश्ती तो कहीं मटकी चपलता ....
आनंदित हुए .....
वाह, क्या कहना इस नए अंदाज़ का. चतुरी का कार्य ही है मटकी में संसार भरना, संसार का सौदा करना और चलते रहना. गतिशील बिंब कविता को चलाए चलते हैं. बहुत खूब अमृता जी.
ReplyDeleteवाह ! आज की कविता पढ़कर तो मटक मटक कर चलती गोपिका सम्मुख आ गयी...कहीं कृष्ण ने ही तो नहीं फोड़ी आपकी मटकी...
ReplyDeletesundar abhivyakti.....!!
ReplyDeleteek differnet nazariya khud ke baare mein...!!
bahut sundar...nari man ka sajeev chitran..bhavpoorna rachna ke liye badhai..
ReplyDeletebahut hi sunder matki ..:):):):)
ReplyDeleteबहुत सुंदर ...बहुत सुंदर रचना !
ReplyDeleteआभार आपका !
ये क्या कह रहीं हैं अमृता जी आप
ReplyDeleteमटक मटक कर मटकी चटका रहीं हैं.
वाह री चतुरी तेरी मटकी.
ऐसा लिखा कि नजर मेरी अटकी.
बेहद खूबसूरत।
ReplyDeleteसादर
Wah!!! Wah!!!
ReplyDeletekya vichar hai...Bahut hi sundar....
www.poeticprakash.com
उसी क्षण
ReplyDeleteअपनी मटकी में
एक और संसार भरती हूँ
फिर सिर पर रख
फिर उसी राह पर
चलने लगती हूँ
मटक मटक कर .......
....
अमृता जी जब तक ये चलना है तब तक ये मटकी भी है ही ...अच्छा है कि ये भरी ही रहे !
मटकी साथ रहेगी -उसमें भरे जाने वाले संसार बदलते रहेंगे .
ReplyDeleteक्या कहूँ ..इतना सुन्दर कि प्रसंशा के सब्द नहीं मिल रहे
ReplyDeleteमेरी मटकी..
ReplyDeleteवाह! बेहतरीन कविता है।
वाह! बेहतरीन...
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