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Monday, December 5, 2011

मेरी मटकी

मैं चतुरी
एक मेरी मटकी
उस मटकी में
भर कर
अपने संसार को
सिर पर रख
चला करती हूँ
मटक मटक कर
अपनी ही राह पर.....
आँखों में बनते
मन में बसते संसार को
उसी मटकी में
भरती जाती हूँ...
अपने संसार में
ऐसे मगन होती हूँ कि
उड़-उड़ कर
छूने लगती हूँ
अपने गगन को...
अचानक से
टकराती भी हूँ
किसी संदिग्ध
संक्रमित संसार से
गिरती हूँ औंधे मूँह
टूट जाती है
मेरी मटकी
और बिखर जाता है
मेरा संसार भी....
मूढ़ता या बुद्धिमत्ता में
मैं चपला
उसी क्षण
अपनी मटकी में
एक और संसार भरती हूँ
फिर सिर पर रख
फिर उसी राह पर
चलने लगती हूँ
मटक मटक कर .

 

45 comments:

  1. विलक्षण ...सुलक्षणा ...चतुर नार की मन मोहक कहानी ...
    गागर में भरे नीर और आँखों में पानी ...!!
    बहुत ही सुंदर भाव पिरोये हैं ....अद्भुत...!!

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  2. चतुराई इसी में है की जीवन भर संसार को भरते रहें अपनी मटकी में .. सुन्दर रचना .

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  3. ye hi jeevan or is sansar ka niyaam hai

    bahut khub

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  4. सब चल रहे हैं अपनी मटकी सम्हाले, धीरे धीरे।

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  5. अपनी मटकी में

    एक और संसार भरती हूं

    बहुत बढि़या ... बेहतरीन भाव संयोजन ।

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  6. वाह! बहुत खूबसूरत....
    सादर...

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  7. मटकी का प्रयोग अच्छा लगा ! सबने अपने अपने सर पर अपने संसार की मटकी पहन रखी है और अपनी धुन में मगन हैं !
    सुन्दर अभिव्यक्ति !
    आभार !

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  8. भावपूर्ण रचना |बधाई |
    आशा

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  9. बहुत सुन्दर प्रस्तुति ||
    बधाई ||

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  10. अब पनघट के दिन तो रहे नहीं, चलो संसार भर कर ही चलें :)

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  11. Amrita,

    4 KAVITAAYAN PARHI. YEH WALI MUJHE SABSE ACHCHHI LAGI.

    Take care

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  12. बहुत गूढ़ मटकी, बहुत ही प्यारी चाल -

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  13. सर पर मटकी, मटकी में संसार , संसार में हम सब और सब के सर पर मटकी.. जीवन की अनसुलझी गुथियों को सरलता से समझाया आपने.

    सुन्दर रचना.
    WWW.BELOVEDLIFE-SANTOSH.BLOGSPOT.COM

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  14. वाह... यही तो जिजीविषा है

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  15. विशाल जी ने मेल से कहा --

    आदरणीया अमृता जी,
    आपकी रचनायों में विलक्षणता है.
    कितनी भी कोशिश की जाए ,इन्हें पढ़े बिना रहा नहीं जा सकता.
    इस रचना की शुरुआत ही कितना कुछ कह रही है


    मैं चतुरी
    एक मेरी मटकी


    और अंत का द्वंद्व हम सभी को आईना दिखला जाता है.
    बस लिखते जाएँ,शिखर छोटे पड़ते जायेंगे.

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  16. bahut achche bhaav ek baar giri to kya honsla buland ho to baar baar naya sansaar sambhaal kar chalenge.bahut achcha likha hai.

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  17. सुन्दर शब्दावली,सुन्दर अभिव्यक्ति.भावपूर्ण कविता के लिए आभार.....

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  18. अत्यंत उत्क्रिस्ट रचना बेहद भावपूर्ण और मटकी में भरा संसार का सपना अपना होने जैसा बरबस यद् दिला जाता है उन गोपिकाओं का जो माखन भरी मटुकी लिए उस परम अनुराग में मतवाली सी चली जा रही हैं कृष्ण में बिभोर और क्रिशन तोड़ते रहते हैं मटकी और माखन रूपी संसार के आकर्षण को और भर देते है परम दिब्य प्रेम से से गोपिकाए हो जाती हैं बिभोर .
    यह संसार की ठोकर ही तो यद् दिलाती है उस और कालने की.
    लिख सकने के लिए शब्द भी मौन हो चुके है

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  19. 'अपना संसार' .... 'अपने गगन'... संसार और गगन के साथ ये 'अपना' लिखना कितने सुन्दर विम्ब का सृजन कर रहा है...
    The sense of belonging well underlined!
    best wishes!

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  20. सुभानाल्लाह..........बहुत ही खूबसूरत......आपकी मटकी सदा सलामत रहे और उसमे परम प्रकाश भरा रहे :-)

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  21. अरे अमृता तुमने तो गागर में सागर वाली कहावत चरितार्थ कर दी. बधाई इस सुंदर प्रस्तुति के लिए.

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  22. शानदार बिम्ब प्रयोग ………एक अलग ही नज़रिया और उसके माध्यम से गहरी बात कह दी।

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  23. मटकी का बिम्ब और जीवन. नया प्रयोग अच्छा लगा. बधाई

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  24. bahut acchha likh leti hain aap. sunder shabd diye hain bhaavon ki kashmkash ko.

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  25. सुंदर प्रस्तुति के लिए बधाई..

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  26. मटकी का बहुत अच्छा पयोग बहुत अच्छा लगा,...बधाई
    मेरे नए पोस्ट पर इंतजार है,...

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  27. मजेदार ,मटक मटक मटकी लिए नायिका की छवि -क्या कहने !
    जीवन ऐसी ही उत्फुल्लता और अपराजेयता का पर्याय है ...
    क्या कहने, कहीं मटरगश्ती तो कहीं मटकी चपलता ....
    आनंदित हुए .....

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  28. वाह, क्या कहना इस नए अंदाज़ का. चतुरी का कार्य ही है मटकी में संसार भरना, संसार का सौदा करना और चलते रहना. गतिशील बिंब कविता को चलाए चलते हैं. बहुत खूब अमृता जी.

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  29. वाह ! आज की कविता पढ़कर तो मटक मटक कर चलती गोपिका सम्मुख आ गयी...कहीं कृष्ण ने ही तो नहीं फोड़ी आपकी मटकी...

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  30. sundar abhivyakti.....!!
    ek differnet nazariya khud ke baare mein...!!

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  31. bahut sundar...nari man ka sajeev chitran..bhavpoorna rachna ke liye badhai..

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  32. बहुत सुंदर ...बहुत सुंदर रचना !
    आभार आपका !

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  33. ये क्या कह रहीं हैं अमृता जी आप
    मटक मटक कर मटकी चटका रहीं हैं.
    वाह री चतुरी तेरी मटकी.
    ऐसा लिखा कि नजर मेरी अटकी.

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  34. बेहद खूबसूरत।

    सादर

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  35. Wah!!! Wah!!!

    kya vichar hai...Bahut hi sundar....

    www.poeticprakash.com

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  36. उसी क्षण
    अपनी मटकी में
    एक और संसार भरती हूँ
    फिर सिर पर रख
    फिर उसी राह पर
    चलने लगती हूँ
    मटक मटक कर .......
    ....
    अमृता जी जब तक ये चलना है तब तक ये मटकी भी है ही ...अच्छा है कि ये भरी ही रहे !

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  37. मटकी साथ रहेगी -उसमें भरे जाने वाले संसार बदलते रहेंगे .

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  38. क्या कहूँ ..इतना सुन्दर कि प्रसंशा के सब्द नहीं मिल रहे

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  39. मेरी मटकी..
    वाह! बेहतरीन कविता है।

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