आत्म विभोर होकर
सस्ते में मैंने मान लिया कि
हर एक शब्द हीरा है
मंहगा न पड़ जाता कहीं
आत्मभार इसलिए
चुटकी बजा कर उठा लिया
ऐसा-वैसा हर बीड़ा है ....
अब क्षमता से अधिक भार लिए
कलम के नीचे दब रही हूँ
खुद को तो बचाना ही है तो
अपनी स्याही की ताकत को
खोखले शब्दों में भर रही हूँ.....
हैरान हूँ , वही आड़ी बन कर
मुझे ही ऐसे चीरा है
किससे और कैसे कहूँ -
आहत अभिमान बड़ी पीड़ा है ...
उलटे शब्दों ने व्यंग से कहा -
निराशाओं की पगडण्डी
इतनी छोटी होती नहीं
आँखों से चाहे गिरा लो
जितने भी आँसू
पानी ही है कोई मोती नहीं
अब बिचारी गंगा भी
धर्म व नीति के विरुद्ध
आचरणों को धोती नहीं
समय की भी टूटी कमर है
इसलिए सबको वह ढ़ोती नहीं...
और तो और ... मेरे बिना
कोई बात भी तो होती नहीं.....
सीना चौड़ा करके गर्व से
शब्द आगे कहता रहा -
जरा देखो हर तरफ बस
मेरा ही बोलबाला है
हर उजली बातों के पीछे
कहीं तो छिपा कुछ काला है...
मुझसे ही सजे हुए सबके
अपने -अपने अखाड़े हैं
जितना भी खेले गुप्त दाँव-पेंच
लेकिन सब मुझसे ही हारे हैं....
आखिर मुझसे ही तो
हर एक नाम लिखा जाता है
फिर अपने ही जमघट में ही
तड़प-झड़प कर खो जाता है....
नाम वाले कहते हैं - मुझमें
उन्होंने अपना अर्थ भरा है
पर सच तो यही है कि मैंने भी
उनको तदर्थ गढ़ा है .
भावों के गाढ़ेपन में शब्द अपना महत्व पा जाते हैं।
ReplyDeleteशब्दों के अपने अपने अर्थ होते हैं
ReplyDeleteनिःसंदेह उसे हमने जीया है
फिर संवारा है
दीदी, कहाँ से लाती हैं ऐसे तगड़े तगड़े शब्द..'तदर्थ'..
ReplyDeleteमुझे शब्दकोष पे इसका अर्थ ढूँढना पड़ा, और फिर तब दोबारा कविता पढ़ना पड़ा..
जबरदस्त कविता है ;)
बढिया
ReplyDeleteबहुत सुंदर
सच तो यही है कि...मैंने भी उनको, तदर्थ गढा है!
ReplyDelete...भावपूर्ण सुन्दर रचना...आभार!
पर सच तो यही है __
ReplyDeleteबहुत ही अनुपम अभिव्यक्ति ।
तदर्थ = जिसके लिए = जिस प्रयोजन के लिए गढ़ा है .... !
ReplyDeleteसार्थक गढ़ा है .... !!
सिर्फ वाह कहने को जी चाहता है.......
ReplyDeleteआपका जवाब नहीं.....
नाम वाले कहते हैं - मुझमें
ReplyDeleteउन्होंने अपना अर्थ भरा है
पर सच तो यही है कि मैंने भी
उनको तदर्थ गढ़ा है .
वाह!!!!बहुत सुंदर प्रस्तुति,..अमृता जी
प्रभावित् करती रचना,..
MY RECENT POST...काव्यान्जलि ...: गजल.....
वाह अमृता जी.................
ReplyDeleteभावपूर्ण, प्रभावशाली और प्रवाह पूर्ण.....
लाजवाब......
निराशाओं की पगडंडी
ReplyDeleteइतनी छोटी होती नहीं
आखों से चाहो गिरा लो
जितने भी आंसूं
पानी ही है कोई मोती नहीं
सुन्दर उलझनों से भरी खुद को सुलझाती लड़ियाँ आपके लेखन को नमस्कार और भावों को नमन .
शब्द नहीं हैं मेरे पास......हैट्स ऑफ
ReplyDeleteशब्द.....शब्द....शब्द....!!
ReplyDeleteज़रूरत हो तो महत्त्वपूर्ण होते हैं.....
कई जगह जहां मौन होना चाहिए.....
यही शब्द (चाहे कितने भी अच्छे हों ) निरर्थक हो जाते हैं॥!!
सुंदर....अति सुंदर...!
ओह आहत अभिमान कि पीड़ा ....
ReplyDeleteनाम हो जाने पर इस अहंकार से कैसे बचें ....??
अपने अहंकार से स्वयं को ही लड़ना पड़ता है ....जो इस अहंकार को जीत गया ...वो ही प्रभु तक पहुँच पाता है ....!!
बहुत सुंदर रचना ....शुभकामनायें .....!!
अमृता जी, स्वयं से संवाद करती..यानि आत्मालाप करती इस कविता को सचमुच एक से अधिक बार पढ़ा..बधाई !
ReplyDeletebhavpoorn prabhavshali rachna amruta ji.
ReplyDeleteकलम के नीचे दब रही हूँ,
ReplyDelete....................................
अपनी स्याही की ताकत को,
खोखले शब्दों में भर रही हूँ.
भावनाओ के समुंदर से आपने बहुत सुंदर सुंदर मोतिया,
चुन चुन कर शब्दों की जो माला जो पिरोई है, स्वागतेय है.
शुभेच्छु
सूर्या
भावों कि गहरी अभिव्यक्ति
ReplyDeleteहाँ मैंने भी उन्हें तदर्थ गढ़ा है . हाँ बाहर सिर्फ शब्द होतें हैं ,
ReplyDeleteअर्थ होतें हैं हमारे ही अन्दर ,
जैसे एक समंदर ,मैंने कब क्या कहा -
तुझे क्या मालूम ,
समझे बैठा है खुद को धुरंधर .
अमृता जी बहुत ऊंचे पाए की रचना है .छल कपट की इस दुनिया का वाहन शब्द ही है .
बहुत सुन्दर
ReplyDeleteवाकई शब्द करामाती है
अनिता जी की तरह ही मेरी भी हालत थी। पर मैंने इसके अर्थ समझने के लिए कई बार पढ़ा। बड़ा बिम्बात्मक कथ्य है। समझने दिमागी कसरत करनी पड़ती है। जिस विशेष प्रयोजन के लिए कविता गढ़ी गई है, वह अपने हिसाब-किताब में पूरी तरह सफल हुई है।
ReplyDeleteशब्द अपनी सत्ता को सर्वोपरि बता रहा है। लेकिन हमारी जिंदगी से आने वाले शब्द....जिंदगी और अनुभव से सर्वोपरि कैसे हो सकते हैं...यह सवाल बना रहता है। शब्द की सत्ता भी एक ताकत है। जिसका इस्तेमाल इससे खेलने वाले करते हैं.....लेखक, कवि, कलाकार। लेकिन जिंदगी के किसी खूबसूरत पल से रचना उसी मायने में सुंदर हो सकती है कि यह बाकियों को भी अपने अनुभव में शामिल करती है।
ReplyDeletewonderful expression,continuity of feelings resembles spring flowing through mountain of dreamland to a plane of actuality.in fact a poem of highly imaginative. congrutulation. thank you.
ReplyDeleteशब्दों के जंगल-दंगल में गुम हो गया...अच्छी है शब्दों की बाजीगरी...
ReplyDeleteMAI HAMESHA AAP KI KAVITAYEN PADHTA RAHTA HOON..LEKIN AAJ COMMENT KARNE KO JI KAR GAYAA...PAHLE AAPNE KAHA KI-HAR EK SHABD HIRA HAI.
ReplyDeletePHIR AAGE AAP KAHTI HAIN KI-APNE SYAHI KI TAQAT KO KHOKHLE SHABDON ME BHAR RHI HOON.
MAAF KIJIYEGA YE BAAT MUJHSE NHI PACHI..
KHAIR..KAVITA PADH KAR HMESHA KI TARAH AAJ BHI MAZA AAYA..
आपकी यह कविता शब्दों के समुचित प्रयोग के कारण अपनी सुरभि चतुर्दिक फैलाने एवं पाठकों के अंतर्मन में थोड़ी सी जगह बना सकने में सार्थक सिद्ध हुई है । मन को दोलायमान करती आपकी कविता के हर शब्द समवेत स्वर में बोल रहे हैं । बहुत सुंदर । धन्यवाद ।
ReplyDeleteअमृताजी आपकी कवितायेँ वाकई बहुत गूढ़ होती हैं ...दो तीन बार पढ़कर ही उन्हें समझ पाती हूँ .....पर जो समझ आता है वोह सागर की तरह गहरा होता है ......अर्थपूर्ण होता है .. appeal करता है ..!!
ReplyDeletenice writing, achchhi kavita hai.badhai.
ReplyDeleteAmrita,
ReplyDeleteHAR SHABAD KI APNI HI SHAKTI HOTI HAI. SHABAD KHOKHLA TAB LAGTAA HAI JAB USKE PRYOG SAHI NA KIYAA JAAYE. KAVITAA KA ANT SAHI RAHAA.
Take care
शब्द ब्रह्म कहे गए हैं मगर अब शायद वे ब्रह्मत्व खोने लग गए हैं!
ReplyDeleteमैंने उसने या तुमने कहा हो, अब शब्द भला वो गुरुता कहाँ रख सके हैं !
मैं ही मैं हूँ, दूसरा कोई नहीं ...
ReplyDelete'तदर्थ' में निहित तो 'समर्पण' ही होता है |
ReplyDeleteउच्च कोटि की कृति |
आदरणीया....
ReplyDeleteचयनित शब्दों को नया रंग रोगन देकर एहसासों के समंदर में डुबोकर ऐसी प्रवाहमय कविता प्रस्तुत करने का आभार. शब्द और अर्थ दोनों के पैमाने पर खरी उतरती इस कविता को प्रस्तुत करने का आभार..... ! आगे भी प्रतीक्षा रहेगी
मुग्ध करते शब्द लाजबाब भाव . मन मुदित होत अ है आपको पढ़कर .
ReplyDeleteनिशब्द करते भाव और शब्द....
ReplyDeleteभाव बढ़े हर चीज के , शब्द हुये बेभाव
ReplyDeleteपत्थर मत इनको बना, इनका सरल स्वभाव.
बाण, शब्द - भेदी चले, हुआ बहुत बिखराव
गाज गिरी ; जब से हुआ, शब्दों में टकराव.
लेते श्रद्धा - प्रेम जगे , वरना नाम है व्यर्थ
शब्द कहे हर नाम को , मैंने गढ़ा तदर्थ.
उच्च स्तरीय रचना पढ़ मन तृप्त हो गया, आभार.
aapne to kamal ka likha hai. badhai.
Deleteनायाब अर्थपूर्ण प्रस्तुति.
ReplyDeleteगहरे भावों वाली सुंदर रचना।
ReplyDeleteपीड़ा को खूब अभिव्यक्ति दी है आपने ....तदर्थ गढा है ...बहुत बढ़िया
ReplyDeletechuninda behtarin shabd..khoobsurat prabahmayee rachna....aauron kee tarah maine bhee baar baar padha..kafi clist hai..koi bhee rachna tab samajh me aati hai jab kavi kee frequency se pathak kee freequecy match kar jaaye..bahut kuch to maine samjha par hakeekat me puri tarah nahi samajh paaya...sadar badhayee aaur amantran ke sath
ReplyDeletebahut he shasakt rachna jitni tarif kee jaye kam hai..sach me aapka jawab nahi hai..sadar badhayee ke sath
ReplyDeleteस्याही की ताकत शब्दों मे भर दी तो खोखले रहे कहाँ ...
ReplyDeleteएक -एक शब्द हीरा ही तो है !
आपको पढना हमेशा ही सुख देता है !
निराशाओं की पगडंडी ... कितने ही आँसू बहा लो होता तो पानी ही है ... शब्द तदर्थ गढ़े जाएँ तो वो भी सार्थक हो जाते हैं ... बहुत गहन अभिव्यक्ति ....
ReplyDeleteमैं अभी आपके ही ब्लॉग को खोज रही थी कि इतने में आपकी टिप्पणी मिली और मेरे लिए यहाँ तक आना सरल हो गया :)
बेहतरीन रचना
ReplyDeleteअरुन (arunsblog.in)
कल 01/05/2012 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल (विभा रानी श्रीवास्तव जी की प्रस्तुति में) पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
ReplyDeleteधन्यवाद!
गहरे भाव लिए हुए सुन्दर अभिव्यक्ति....
ReplyDeleteबेहतरीन रचना...
ऊँ नम: शिवाय
ReplyDeleteसर्वत्र कल्याण हो.
'कल्याण'का भाव हो तो हर शब्द अनमोल है.
हर शब्द भावों का खजाना है.
सुन्दर प्रस्तुति.
आत्म विभोर होकर सस्ते में मैंने मान लिया कि हर एक शब्द हीरा है मंहगा न पड़ जाता कहीं आत्मभार इसलिए चुटकी बजा कर उठा लिया ऐसा-वैसा हर बीड़ा है ....
ReplyDeleteखूवसूरत पंक्तियाँ....
शब्दार्थ की तदर्थता....सुंदर भाव और चित्रण.
ReplyDeletecycle shops north in london
ReplyDeleteExcellent Working Dear Friend Nice Information Share all over the world.God Bless You.
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